क्या सच में मैं विचारशून्य थी....
कि सिर्फ तुम्हारे दर्प,
तुम्हारी असुरक्षा के भय ने बनाया
मुझे अज्ञात विचारशून्य...?
कि सिर्फ तुम्हारे दर्प,
तुम्हारी असुरक्षा के भय ने बनाया
मुझे अज्ञात विचारशून्य...?
जिसका सारा चिन्तन
बस चूल्हे की आँच को धीमा तेज करने
स्वादिष्ट पकवान बनाने...
अचार, पापड़, बड़ी रचने....
तुम्हारे बिस्तर की शोभा बनने...
तुम्हारी चरित्रवान पुत्री से
तुम्हारी प्रिया..
तुम्हारी सुशील कुशल बहू बने रहने....
तुम्हारे बच्चों की अच्छी माँ बनने के
प्रयासों तक सीमित रहा...!
कभी इंसान होने तक का रास्ता ढूँढने का मन भी किया
तो तुम्हारे अहं की आँच में झुलस गए मेरे पाँव...
कभी मन की बात को शब्द देने का प्रयास किया
तो तुम्हारे उपहास और उपेक्षा ने मौन का ताला लगा दिया....
तुम्हारे संसार में,
मैं मौन,
और तुम्हारे तथाकथित वंश में
मैं अज्ञात और अदृश्य ही रही...!
तुम्हारी पहचान तो तुम्हारे जन्म से ही शुरू हो गई...
हर बरस तुम्हारे जन्मदिन की धूमधाम उसे और प्रगाढ़ करती गई....
हर उपलब्धि उसे और निखारती गई
और मैं हर बरस अपने चुपचाप सरक जाने वाले
अज्ञात मौन से जन्मदिन को अपने विचारों में सँजोती गई
सपनों की तरह....!
हर बरस तुम्हारे जन्मदिन की धूमधाम उसे और प्रगाढ़ करती गई....
हर उपलब्धि उसे और निखारती गई
और मैं हर बरस अपने चुपचाप सरक जाने वाले
अज्ञात मौन से जन्मदिन को अपने विचारों में सँजोती गई
सपनों की तरह....!
एक दिन मैंने देखी तुम्हारी वंशबेल की कहानी......
और पाया
कि तुम्हारी वंशबेल, जो मुझसे फल फूल रही थी...
जिसके लिए हर बार मैं सहती थी
त्रासद यंत्रणा....
नौ महीनों का बोझ....
और जन्म देने की पीडा....
तुम्हारी उस वंशबेल के इतिहास में
मैं तो बिन्दु भर भी नहीं थी....
थे तो केवल तुम.....
मैं अज्ञात और अदृश्य थी....
पर अब...
आज...!
आज तो सारा आसमान है मेरा....
आज तुम्हारी दी हुई विचारशून्य अज्ञात की पहचान को
मैंने तुम्हारी दहलीज के भीतर छोड़कर
आसमान में पसार लिए हैं पंख...!
अब तुम्हारी वंशबेल के इतिहास की पहचान की मोहताज नहीं है
मेरी उडा़न....!
अंतरिक्ष में खोल दिए हैं मैंने अपने पंख.....!
मेरी उडा़न....!
अंतरिक्ष में खोल दिए हैं मैंने अपने पंख.....!
अब दिशाओं का ज्ञान और उनका चयन मेरा हक़ है....!
अब मैं मौन अज्ञात विचारशून्य नहीं हूँ
कि मर जाएँ मेरे सब विचार मेरे ही मन में....
बह जाएँ हर बार मेरे उत्सर्जन की प्रक्रिया के साथ
रंगीन कपडों के कूड़े के ढेर में...
और बस यूँ ही ख़त्म हो जाए मेरी कहानी
अब मैं मौन अज्ञात विचारशून्य नहीं हूँ
कि मर जाएँ मेरे सब विचार मेरे ही मन में....
बह जाएँ हर बार मेरे उत्सर्जन की प्रक्रिया के साथ
रंगीन कपडों के कूड़े के ढेर में...
और बस यूँ ही ख़त्म हो जाए मेरी कहानी
अज्ञात, विचारशून्य...
एक दिन रंगीन या सफेद कपड़ों के साथ
चिता में....।
एक दिन रंगीन या सफेद कपड़ों के साथ
चिता में....।
अब
मेरे पास आवाज़ भी है
और पंख भी
अब तो तुम न मेरी उड़ान रोक सकते हो
न विचार.....
तब से लेकर अब तक...
अपनी से लेकर तुम्हारी तक सब कहानी..
अब मैं कहूँगी अपने नज़रिये से....!
मेरे पास आवाज़ भी है
और पंख भी
अब तो तुम न मेरी उड़ान रोक सकते हो
न विचार.....
तब से लेकर अब तक...
अपनी से लेकर तुम्हारी तक सब कहानी..
अब मैं कहूँगी अपने नज़रिये से....!
अनुजा
(सदीनामा दैनिक में प्रकाशित)
बहुत सुंदर ...
जवाब देंहटाएंDhanyavaad...!
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