बुधवार, 22 अप्रैल 2020

‘शिकारा’ के बहाने....


इन दिनों जब सब एकान्तवास में हैं...तब कई बार इस समय की व्यस्तता से चुराये गए समय का इस्तेमाल अच्छी, इच्छित और छूट गयी फिल्मों को देखने में भी करती हूँ....कभी उदासी सी महसूस हो तो जीवन्त फिल्में भी देखती हूँ....इस उदास और डरे हुए (हालांकि न मैं उदास हूँ, न डरी हुई) से समय में गंभीर फिल्मों से परहेज़ कर लेती हूँ...कई खूबसूरत फिल्में उपलब्ध भी नहीं हैं इंटरनेट की दुनिया में....फिर भी कई हैं....! ‘शिकारा’ कल देखी। आज कुछ उसके बारे में.....

कश्मीर ईश्वर की कविता है और वहाँ के लोग छन्द हैं...., वह पूरी धरती एक खूबसूरत संगीत का नोटेशन है....शिकारा इसका फूल....!

फिल्म ख़त्म होते-होते ऐसा महसूस होता है जैसे यह अपनी ही किसी जन्म की कथा है....! अपनी खूबसूरत पनाहगाहों को छोड़कर एक विस्थापित सा इधर उधर भटकना....शुरू करना एक नई यात्रा....सब कुछ ख़त्म होने के बाद एक नए सिरे से....एक ही ज़िन्दगी में....., सचमुच कितना त्रासद है....और बड़ी जिजीविषा का काम है.....! शब्द कम पड़ते हैं उस पीड़ा को व्यक्त करने के लिए जिसे प्रोफेसर धर, उनकी पत्नी और तमाम विस्थापित कश्मीरियों की आँखों में परदे पर देखा....यथार्थ इससे अधिक विह्वल करने वाला रहा होगा...इतना महसूस कर सकती हूँ। पूरी रात फिल्म सपने में चलती रही....बार-बार ऐसा महसूस हुआ कि ऐसी किसी कहानी का एक पात्र हूँ मैं....पर वह कौन सी सदी रही है....आज याद नहीं.....!

विस्थापन की कितनी कहानियाँ बुनी हैं इस सभ्यता की विकास यात्रा में....और जबरन विस्थापन की...., पता नहीं.... जिनका शायद कोई ज़िक्र भी न हो इतिहास में । इतिहास के पन्नों में तथ्य होंगे......पर उनका दर्द तो केवल कहानियों में होगा...। इतिहास तो नितान्त असंवेदनशील होता है...शिकारा के उस बाबू की तरह जिसे विस्थापितों के आंकड़े और सूचनाएं इकट्ठा करने के लिए बिठाया गया है फिल्म में....प्रोफेसर धर का सब सुन्न है...पत्नी में थोड़ी सी हरक़त है, वह विरोध करती है उसके व्यवहार का-‘ठीक से बात करिए। उधर कश्मीर में हमारा भी बहुत प्यारा सा घर है।’
‘पर चले तो आए न !’ कितना असंवेदनशील ताना है और कैसा व्यंग्य उन पर, जो अपने ही घरों से निकालकर विस्थापितों की श्रेणी में ला खड़े किए गए। मुझे तो ऐसा महसूस होता है कि वह दो आदमी भी उस अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा है जिसने कश्मीर से पूरी एक कौम का सफ़ाया करने में कोई कसर नहीं छोड़ी....। पूरी व्यवस्था कितनी असंवेदनशील है...दरअसल व्यवस्था चलाने वाले हम ही हैं और दूसरों के दर्द के प्रति इतने असंवेदनशील हैं कि यह भूल जाते हैं कि कहानी कहीं और की भी हो सकती है...ख़ुद हमारी भी....जाके पाँव न फटी बिवाई....!

प्रोफेसर धर की कविताओं के वहीं छूट जाने के दर्द को महसूसते हुए मैं कवि लेखक अग्निशेखर के उस दर्द को महसूसने लगी, जिसे उन्होंने अपने हालिया एक गद्यांश में व्यक्त किया कि हरिवंश राय बच्चन के उनको लिखे गए पत्र इस सारे हादसे में वहीं कश्मीर में छूट गए और अब उनकी यादों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है....एकबारगी प्रोफेसर धर और अग्निशेखर में बड़ा साम्य सा दिखाई पड़ा....!

परदे पर लिखी इस कविता ‘शिकारा’ को रचते हुए विधु विनोद चोपड़ा उस दर्द को उकेर पाए हैं जो 1990 के उस दिन हज़ारों कश्मीरियों ने जिया...शिल्प तो विनोद ने पकड़ ही लिया पर दर्द को बहने से रोक नहीं पाए....लतीफ का वह दर्द, जो पिता की हत्या ने उसे दिया...और उसकी प्रतिक्रिया जिसने उसे मिलिटेंट बना दिया । उसके पहले का कश्मीर कितना सुन्दर और जीवन्त था । बेनज़ीर की स्पीच का वह टुकड़ा और अमेरिकन राष्ट्रपति को लिखे गए वे ख़त जिनका जवाब कभी नहीं मिला प्रोफेसर धर को, और शायद किसी भी विस्थापित और मार दिए गए कश्मीरी को । डाॅ. नवीन की हत्या और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति..., लतीफ़ की शिव से वह आखि़री मुलाक़ात...शिव की उम्मीद और लतीफ की क्षमा याचना....क्या लगता है कि मनुष्य से मिलीटेंट बने इन युवाओं को क्या कुछ भी नहीं सालता होगा, क्या कोई द्वंद्व, कोई अपराधबोध....कुछ भी नहीं बहता होगा उनके भीतर या सब कुछ उस एक गुस्से और चालबाजी के नीचे दफ़्न हो गया होगा...सब कुछ जो बहता है एक मनुष्य की संवेदनाओं की दहलीज में..... छू लिया गया इस छोटी सी दो घंटे की यात्रा में...और छोड़े गए कई सवाल इस पूरी सभ्यता के सामने....लेकिन शायद अपने आप में डूबी इस तथाकथित विकसित सभ्यता के नुमाइंदों के पास इसका जवाब नहीं है.....या शायद वो देना नहीं चाहते हैं.....!

परन्तु समय बहुत ताक़तवर है.....विकास की इस पूरी यात्रा को एक छोटे से वायरस ने ध्वस्त करके रख दिया है। सारी दुनिया के तमाम ताक़तवर दिग्गज अपने अपने खोल में सिमटकर बैठे हैं लाचार से....स्थितियाँ उनके हाथ से संभल नहीं रही हैं....मैं सोचती हूँ कि ये कितने विस्थापनों और अमानवीय अत्याचारों से गुज़री असंख्य आत्माओं को अभिशाप है.....!

शिकारा दर्द को उकेरती एक कविता ज़रूर है...प्रेम कहानी के बहाने एक पूरे समुदाय के दर्द का बयान है....पर बहुत से प्रश्न भी खड़े करती है....आपकी संवेदनाओं को झिंझोड़ती है....यदि आप संवेदनशील हैं तो.....शिकारा....!


अनुजा
21.04.2020

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

समय...पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ....

तुम्हारा प्रश्न सुनने के बाद मैं पेशेंस खेलने लगती हूँ। हर बार एक हारी हुई बाजी लगा लेती हूँ। हारने में मुझे मज़ा आने लगा है। जीतने के बाद एक और चढ़ाई आ जाती है...। हाँफती हुई साँसें आराम करना चाहती हैं और सामने कोई और मंज़िल मुँह बाये खड़ी होती है।
अब हारना बेहतर लगने लगा है...। जीतने के बाद इच्छा होती है...एक बाज़ी और सही...। हारने के बाद थोड़ा आराम करने का मौका मिल जाता है।

नहीं...नहीं...,कहने को कुछ नहीं है मेरे पास.. ऐसा नहीं है...पर अब कह कर क्या करना....कहने-सुनने का समय तो बीत चुका है...अब तो जाने का समय आ गया है...बस बाय बोलना बाकी है...। बहस मुबाहिसे...परिचर्चाएं जहाँ बेमानी हो जाती हैं...वही तो जगह है यह...मौन.....असीम शान्ति....और बस एक उज्ज्वल मुसकान....उन सारे प्रश्नों पर, जिन पर ज़िन्दगी की ज़द में आई उत्साही नौजवानी अपना माथा खपा रही है....।

पता है....उम्र के एक लंबे पड़ाव के बाद समझ आता है कि जो बीत गया उसमें की गयी चपल कलाकारियाँ और उत्पात कितने बेमानी और वाहियात थे....तब हम सोचते हैं कि काश! आगे वाले ये गलतियाँ न करें...। पर ऐसा होता नहीं है....सबकी अपनी यात्रा है....और सब ऐसे ही सीखते समझते हैं....और फिर वही दोहराते हैं जो उनके पुरखे करके गए हैं.....लाखों-करोड़ों में कोई भाग्यवान इस श्रृंखला को तोड़ पाता है....बाक़ी, बस इस अफसोस के साथ अंतिम श्वास लेते हैं कि काश! इतनी शांति, समझ और सुलझापन तब आ जाता जब इन उत्पातों की रचना हो रही थी और लोग छोड़ रहे थे....हम कम हो रहे थे....मैं बढ़ रहा था....असुरक्षाएं सुरसा सा मुहँ बाये मन में खड़ी थीं और सुरक्षित होने का एहसास घबराए हिरन सा इधर-उधर रास्ता खोज रहा था....! लगता है बस सब कुछ हम अपनी मुट्ठी में क़ैद कर लेंगे....बाँध लेंगे....अबकी सब बचा लेंगे....जाने नहीं देंगे....! इसके बावजूद कि हम ख़ुद देख रहे हैं कि कितने असहाय से उपजे थे.....पाँवों पर खड़े होने की तमीज़ सीखी थी....फिर वहाँ भी रुके नहीं.... बस बढ़ते ही गए....वह जो था...कहीं बचा नहीं आज...सरक गया हथेलियों से.....फिर भी...., फिर भी.... एक बच्चों सी ज़िद है.....कि हम भी देखेंगे....हम रोकेंगे...हम बाँधेंगे..., हम बचाएंगे...और वह पज़ेसिवनेस....वह अवसाद....वह कुंठा...., वह क्रोध....वह चिल्लाहट....वह बेचैनी....यहीं से, इसी रास्ते से आती है भीतर......पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ...... और ढाई आखर प्रेम के बीच, बस केवल इतनी ही दूरी है.....!

प्रेम क्या है...क्यों हैं...इसके क्या फायदे और नुकसान हैं...,इसमे पज़ेसिवनेस क्यों है....होनी चाहिए या नहीं.....पारस्परिक संबंधों के क्या दबाव हैं और क्यों हैं..इन सारी बौद्धिक बहसों में कुछ मिलता नहीं... सिवा टाइम पास के....ये भी एक समय के बाद बेमानी हो जाती हैं....। मनुष्य अपनी उम्र के हर पड़ाव के साथ सीखता ही रहता है और निरंतर बदलता रहता है....फिर वो चाहे दुनियावी भौतिक हो या आध्यात्मिक..पारलौकिक....सबकी यात्राओं के विकास के चरण हैं....बस इतना ही समझ में आता है....बाक़ी सब बीच की कथा है...कहन है....।
जाहिर है कि बहुत कुछ निजी अनुभवों से आता है बाक़ी बहुत कुछ आस-पास की घटनाएं भी बता देती हैं।

मैंने पेशेंस बंद कर दिया। उसमें मन नहीं लगा...काम कर रही थी...उसे भी बंद कर दिया...उसमें भी मन नहीं लगा....!

वैसे इस लाॅक डाउन में जब सभी ओर हाहाकार मचा है...सब क़ैद से परेशान हैं...मैं क़ैद में मुक्त हूँ...मुझे कुछ भी बँधा सा नहीं महसूस होता....। मैं अपनी कल्पना या अपनी चारदीवारी में बेहद मुक्त हूँ....! थोड़ा सा ख्ुाला आसमान....दिप् दिप् करता दिन...धंुधलाती सी शाम और श्यामल चन्द्रमय रात...। सब कुछ बेहद सुन्दर....। नहीं, मैं टाइम पास के लिए कोई व्यंजन नहीं बनाती... कोई खेल भी नहीं खेलती....फोन पर अधिक बात भी नहीं करती...आधा घंटा अखबार को देती हूँ....टी.वी. भी नहीं रखती...कोई महफिल...कोई लाइव भी नहीं होती.... हाँ, कभी कभी कोई अच्छी फिल्म देख लेती हूँ।

पूरा संसार जब खबरची है, डाॅक्टर है, सलाहकार है, जज है....तो ऐसे में क्या कहना...जितने आसमान तक मैं पहुँचती हूँ, कई बार वह भी बड़ी ऊब से भर देता है....इसलिए कुछ नहीं करती....बस अपने साथ हूँ...। और अपना यह साथ बड़ी मुश्किल से मिला है....यहाँ आनन्द है और आशीर्वाद भी....मुक्ति भी और निर्भयता भी...। जाने और पाने को कुछ है नहीं....जो खोएगा वह मेरा नहीं....जो पाएगा, वह भी जाएगा ही...इसलिए कहीं कोई भय नहीं....और इस मुक्ति में कोई जकड़न नहीं...जहाँ इतना अभय हो... इतनी निश्चिन्तता और इतनी स्वीकृति वहाँ पजे़सिवनेस की बात तो कुछ हो ही नहीं सकती....!


अनुजा
13.04.2020


फोटोः अनुजा