शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

ओ ज्योतिर्मय....!



 गहरी उदासी को लिखना खिलखिलाहट.....

उज्जाड़ बंजर को पुकारना हरीतिमा....

सूखे सावन में गुनगुनाना बारिश....

गहरी डगमगहाट को दिखाना ध्रुवतारा....

भूख को कहना रोटी....

जगराते को नींद...

मृत्यु में रचना जीवन...

पतझड़ को पहना देना वसंत...

शोर को बनाना संगीत....

नफरत को करना प्यार...

और जब कुछ भी न बचे उम्मीद भर

गहरी निराशा पर भरना उजली उड़ान...

न रहे कोई जब साथ...

उत्सवमय रखना एकांत

किरणों के माथे जब झूमे मद्धिम अंधियाला

उज्ज्वल श्वासों में भरना आकाश...

रुकना मत...

बदले में देते रहना उच्छ्वास....


अनुजा

कविता विहान में प्रकाशित

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

मौसम.....

बादल तो आते हैं...
झूमते हैं, लहराते हैं....
सूने से आँगन में उम्मीदें जगाते हैं....

बूँदों की रुनझुन 
पर मुश्किल से आती है...
पोर भर धरती भीग भी नहीं पाती...
बारिश बस अपने घर लौट जाती है...

बारिश...!
जो लाती थी मौसम की खुनक...
मेंहदी की महक...
मिट्टी की गमक....

नाराज़ है इन दिनों...
गुस्से में कहीं टूट पड़ती है....
गुस्से में कहीं रूठ पड़ती है....

हरियाले जंगलों पर
बिछ गया एक सिलेटी चादर...
कुछ रंग-बिरंगे बेल-बूटे....
बेसबब आँखों के लिए....
और 
बँधी हुई साँसें
शीशे के दरिया में...

हम तो मौसम हैं...
हमें मालूम है....
कैसे हुआ काला
हमारे नीले आसमान का शफ़्फ़ाक सीना...
किसने डाला डाका 
हमारे रंगों पर ...

हमारी रुत चुराकार....
किसने भर दिए हैं रंग 
प्लास्टिक पेंटों में....
बर्फीले पहाड़ों के सीने पर किसने छोड़ीं
कांक्रीट के जंगलों की निशानियाँ....

तुमने कर ली मनमानी
नोच लिए रंग...
लूट लिया हमें....
जागी तो तृष्णा...
जीता तो रुक्का...

मर गयीं साँसें...
जीते रहे
तुम...!


अनुजा

कविता विहान में प्रकाशित


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मंगलवार, 8 फ़रवरी 2022

यादें...

घरौंदा टूटता है...
बचती हैं यादें...
सरकती हैं हर दीवार पर...
कसकती हैं घर के हर कोने पर...


बैठक के सोफे पर...
टी.वी. की स्क्रीन पर...
किचन में गैस पर...
मसालों के डिब्बों की गंध में....
कपड़ों से सूनी हो चुकी अलमारी में....
खाली लटकते हुए हैंगर पर...
तरतीब से बेसलवट बिस्तर में...
गलियारे में पौधों के पास...
सूखती हुई डालियों में...
धूप खाते आम के अचार में...


हर कोने से बहती हुई आती हैं...
आँखों में 
और फिर 
प्रवाहित होती हैं नस-नस में...
गिरते हुए हीमोग्लोबीन के साथ...
तिरती रहती हैं
रक्त की हर बूँद में....
प्रोटीन विटामिन के साथ...


फैल जाती हैं सुवास सी....
देह के हर कोने में...
पहुँच जाती हैं....
साँस के हर शोर में....
चुनने लगती हैं वायु के कण...
हर माँसपेशी, हर नस में फैल जाती हैं...
कितने बीते हैं...
कितने रीते हैं....


कचोटती रहती हैं यादें....
सिंकती रहती हैं सिगड़ी पर...
पिया रंगरसिया की धुन पर....


यादें कहीं नहीं जातीं...
जाने वालों के साथ...
अलगनी पर सूखती रहती हैं...
गीले कपड़ों सी...
कुकर में पकती रहती हैं...
गोभी की सब्जी और दाल के साथ....
रंग-ओ-रोशनी के साथ हर बार आती हैं...
दस्तक देने दरवाज़े पर...
और बस वैसे ही लौट जाती हैं वापस...
प्राणायाम की गहरी साँसों के साथ....


यादें कभी नहीं लौटतीं....
दरवाजे़ से सटी झाँकती रहती हैं...
इस उम्मीद में 
कि 
शायद एक दिन बुला लो तुम उन्हें...!


अनुजा

कविता विहान में प्रकाशित 

सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

सन्नाटा.....

तुमने 
ये कैसा सन्नाटा बोया है....
चारों तरफ
बस धुंधलाती दिशाएं हैं...
और टूटकर बिखरते फूल...

तुमने ये कैसा सन्नाटा खींचा है...
कि 
कैनवास की रेत पर रुकता ही नहीं 
कोई रंग...
तुमने ये कैसा सन्नाटा बोला है...

सन्नाटा...!
जिसमें गूँजता है बस 
खामोशी का एक लम्हा
और 
चुप्पी का एक मौसम...!

कितनी भारी है ये खामोशी
उन आँधियों से....
जब
टूटती थीं शिलाएँ...
और 
भागते थे दरिया...
बस अपनी ही रौ में...
दौड़ती थीं लहरें....
पाँवों को छूने
और छूकर लौट जाने के लिए...
रेत के लहराते सपनों पर
रचा है तुमने 
ये कैसा सन्नाटा...!

यहाँ न सितारे हैं....
न चाँद....
न निरभ्र आकाश... 
न बादलों का ओर छोर छूते...
चहचहाते पंछी...
बस एक चमकीली नीलिमा
के साये तले
बिखरी हुई उजड़ी सी हरीतिमा के आगोश में...
छीजता है एक गहरा सन्नाटा...!
सन्नाटा...!

(फुटपाथ पर रोती, खामोश होती उस स्त्री की याद में, जिसका पति पिछले दिनों लाॅक डाउन के बाद परिवार को घर ले जाते हुए रास्ते में मर गया और नन्हें बच्चे बस उसका मुहँ देखते बैठे रह गए ।)

अनुजा

कविता विहान में प्रकाशित