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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

कितना अच्छा होता है


कितना अच्‍छा होता है

एक दूसरे को जाने बगैर
पास-पास होना 
और उस संगीत को सुनना 
जो धमनियों में बजता है
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं।

शब्‍दों की खोज शुरू होते ही 
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं ,
और उपके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से 
मछली की तरह फिसल जाते हैं।


हर जानकारी में बहुत गहरे
उब का एक पतला धागा छिपा होता है, 
कुछ भी ठीक से जान लेना 
ख़ुद से दुश्‍मनी ठान लेना है ।


कितना अच्‍छा होता है 
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर 
दूसरे का पा लेना।



सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना