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सोमवार, 15 जुलाई 2013

अभिषेक की कलम से...


मस्‍तमौला घूमन्‍तू विद्रोही.....ये अभिषेक........हमारे मित्र हैं...जनपथ पर बिचरते हुए उनकी अत्‍यन्‍त संवेदनशील नई कविताएं अभी-अभी पढ़ीं......ये वही अभिषेक है जिसे मैं जानती हूं......बेहतर....इस दृश्‍य से परे की संवेदना कोअग्निगर्भा पर लाने का लोभ संवरण न कर पाए......।



पिता पर तीन कविताएं





1

पिता
तुम क्‍यों चले गए समय से पहले
मैं आज अपने गोल कंधों पर नहीं संभाल पा रहा

पहाड़ सा दुख
मां का
जिसमें कुछ दुख अपने भी हैं

पिता
तुम जानते हो तुम्‍हारा होना कितना जरूरी था आज

जब घेरते हैं खामोशियों के प्रेत चारों ओर से
एक अजब चुप्‍पी
निगलती जाती है शब्‍दों को
और किशोर वय के अपराध जैसा
बोध पैठता जाता है दिमाग के तहखानों में

जब जाड़े की धूप से होती है चिढ़
और ठंड जमा देती है
हर उस चीज को जिसमें जीवन को बचा ले जाने की है ताकत

पिता
तुम जान लो तो बेहतर होगा
नहीं कर सकता मैं आत्‍मघात भी
डर है एक मन में

कि जैसे घिसटता आया तुम्‍हारा दुख मां के आंचल में लिपटा आज तक
मेरा दुख भी कहीं न सालता रहे उनको
जिन्‍हें मैंने अब तक संबोधित भी नहीं किया।

पिता
तुम्‍हें आना ही होगा, लेकिन ठहरो
वैसे नहीं,जैसे तुम आए थे मां के जीवन में तीस बरस पहले
भेस बदल कर आओ

समय बदल चुका है बहुत
और मां के मन में है कड़ुवाहट भी बहुत
खोजो कोई विधि,लगाओ जुगत
और घुस जाओ मां के कमरे में बिलकुल एक आत्‍मा के जैसे
इसका पता सिर्फ तुम्‍हें हो या मुझे।

2

मैं नहीं जानता
मांओं के पति,उनके प्रेमी भी होते हैं या नहीं
न भी हों तो क्‍या
एक कंधा तो है कम से कम मांओं के पास
बेटों का दिया दुख भुलाने के लिए

मेरी मां के पास वह भी नहीं

मुझे लगता है
विधवा मांओं को प्रेम कर ही लेना चाहिए
उम्र के किसी भी पड़ाव पर

मां को अकेले देख
अपने प्रेम पर होता है अपराध बोध
होता तो होगा उसे भी रश्‍क मुझसे

मां
तुम क्‍यों नहीं कर लेती प्रेम
और इस तरह मुझे भी मुक्‍त
उस भार सेजो मेरे प्रेम को खाए जा रहा है।

3

पिता का होना
मेरे लिए उतना जरूरी नहीं
जितना मां के लिए था

पिता होते,तो मां
मां होती
अभी तो वह है मास्‍टरनी आधी
आधी मां

और मैं जब देखो तब
शोक मनाता हूं उस पिता का
जिसे मैंने देखा तक नहीं

सोचो
फिर मां का क्‍या हाल होगा
मैंने तो पैदा होने के बाद से नहीं पूछा आज तक
पिता के बारे में उससे
कि कहीं न फूट जाएं फफोले
अनायास।

अब लगता है
मुझे करनी ही चाहिए थी बात इस बारे में
हम दोनों ही बचते-बचाते
पिता से आज तकएक-दूसरे से अनजान
दरअसल आ गए हैं उनके करीब इतना
कि मेरे दुख और मां के दुख
एक से हो गए हैं

दिक्‍कत है कि बस मैं ऐसा समझता हूं
और वह क्‍या समझती है, मुझे नहीं पता।



अभिषेक श्रीवास्‍तव

साभार : जनपथ से

बुधवार, 11 जनवरी 2012

सबसे ज्यादा पाई जाती हैं औरतें कविता में...

पर वो औरतों की कविता नहीं होतीं
उन कविताओं का विषय औरतें नहीं
होता है प्रेम .....
प्रेम भी औरतों का नहीं होता
होता है औरतों से प्रेम...,
सभी औरतों से प्रेम भी नहीं होता.
जब तक न हो उनमे एक ख़ास किस्म का औरतपन...,
हाँ ज़रूरी है इस औरतपन को देखने के लिए मर्दाना नज़र का होना..
इसीलिए तो मर्द लिखते हैं औरतों की कवितायेँ..
अनुपस्थिति हैं औरतों की कविताओं में औरतें..

तो औरतों की कवितायेँ कहाँ हैं..
क्यूँ नहीं इनकार कर देतीं वो मर्दों की कविता में आने से ,,
ओह् ! तो.. कविताओं में क़ैद हैं औरतें..
बाहर तो उनकी महज़ छायाएं हैं ...
और छायाओं से लिपटे पड़े हैं..
टूटे हुए शीशे ...गोरेपन की क्रीम..
माहवारी के बाद फेंके गए संक्रमित कपड़ों के पैड ..
गर्भ निरोधक गोलियां..सुडौल वक्ष के विज्ञापन..
और अनचाहे बाल हटाने के जादुई ब्लेड........

खूबसूरत कविताओं की दुनिया में औरतें कहाँ हैं..
या इतना ही बता दो..
जो औरतें खूबसूरत नहीं..वो कहाँ हैं..
औरतों की खूबसूरत दुनिया कहाँ है
औरतों की कवितायेँ कहाँ हैं..
सवाल ये भी है कि...''औरतें कहाँ हैं.''

तुम्हारी कविताओं में इतनी खुश्बू है..
कि बदबू आती है दोस्त...
कविता में बदबू होती तो कविता से बदबू नहीं आती..
कविता में बदबू को..
कविता में साझे प्रेम को...
कविता में जिंदगी को..
कविता में औरतों को आने दो...
औरतों की कविता को आने दो.......

दीपक कबीर



शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2007

संघर्ष की परंपरा का स्‍तंभ है लिखना और लड़ना- बेबी हालदार

प्रेमचंद्र के नाती प्रबोध कुमार ने भले ही हिन्‍दी साहित्‍य को अपनी रचना के जरिये अवदान नहीं दिया लेकिन उन्‍होंने रचनाकार तैयार किया है,वह भी विश्‍वविख्‍यात। उन्‍होंने अपने घर में सातवीं पास सेविका बेबी हालदार को लेखिका बना दिया। हालदार की आत्‍मकथा 'आलो आंधारि' का साहित्‍य जगत में जोरदार स्‍वागत हुआ। वह निरंतर रचनारत हैं। 'दि संडे पोस्‍ट' संवाददाता अजय प्रकाश ने दर्जनों भाषाओं में छप चुकी 'आलो आंधारि' की लेखिका बेबी हालदार से बातचीत की। पेश है उसके अंश :

कम समय में आपने बतौर लेखिका ख्‍याति हासिल कर ली, भविष्‍य की क्‍या योजनायें हैं।
मेरी भविष्‍य की योजना सीखने की है-अपने समाज से, शागिर्दों से। सच कहा जाये तो अभी तो मैंने समाज को लेखक की आंखों से देखने की शुरूआत भर की है। 'आलो आंधारि' लिखने के बाद मैंने महसूस किया कि उसमें वह बाकी रह गया जो उसे और उत्‍कृष्‍ट बना सकता था। इसलिये मैं अपनी पिछली किताब से सबक लेकर अगली किताब लिख रही हूं। लगभग तैयार हो चुके इस उपन्‍यास का नाम अभी तय नहीं हो पाया है। इसे भी रोशनाई प्रकाशन ही प्रकाशित कर रहा है।
किन उपन्‍यासकारों ने आपको 'काम वाली बाई' से 'आलो आंधारि' की बेबी हालदार बना दिया। लेखिका तसलीमा नसरीन का उपन्‍यास 'मेरा बचपन' पढकर मेरे सामने अपनी जिंदगी की कथा जीवंत हो उठी थी। मैंने महसूस किया कि ऐसी कथा तो मेरी भी है, मैं लिख सकती हूं और फिर लिख डाला। आज 'आले आंधारि' हिन्‍दी, अंग्रेजी, बांग्‍ला, कोरियाई समेत कई भाषाओं में छप चुकी है या छपने को तैयार है।
एक नौकरानी को तसलीमा कैसे मिली।
मैं बेहतर जीवन की तलाश में पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर से दिल्‍ली आयी थी। वर्ष 2000 में प्रबोध जी के यहां काम करने के वे शुरूआती दिन थे। मैं किताबों के आसपास जमीं गर्द को झाड़ते हुए बांग्‍ला भाषा की पुस्‍‍तकों को पलट लेती थी। कई बार मुझे किताब की अलमारी के पास देर भी हो जाती थी। किन्‍तु किताबों के लिए कभी तातुस (स्‍पेनिश में पिता को कहा जाता है) ने टोका नहीं। एक दिन काग़ज़ क़लम दिया और कहा जो पढ़कर तुम सोचती हो लिखा करो। हिचकिचाहट के साथ जब लिखना शुरू किया तो तातुस ने तसलीमा का 'मेरा बचपन' पढकर नोट्स लेने की बात कही और यह भी कहा कि उसने भी आपबीती ही लिखी है। तातुस के आत्‍मीय सहयोग और सचेतन कोशिश से मुझे बल मिला। उपन्‍यासों, कहानियों के लिखने का सिलसिला तभी शुरू हो पाया।
शिक्षक, पिता या पथ प्रदर्शक आप किस रूप में तातुस को महसूस करती हैं।
इन सबसे बढ़कर वो मेरे जीवन का वह पथ हैं जिसकी बदौलत हमें नई जिजीवषा मिली है। बांग्‍ला में लिखे मेरे पन्‍नों का अनुवाद करते जाना, अनुवादों को अन्‍य लेखकों की राय के लिए पतों पर भेजना यह सारा उद्यम उन्‍होंने कुछ यूं किया मानो वो खुद ही रच रहे हों। उनके किसी भी व्‍यवहार से मुझे कभी नहीं लगा कि वह उपकार या सहानुभूति की भावना से प्रस्‍थान करते हैं।
तातुस नया क्‍या कर रहे हैं
एक नौकरानी लेखिका या कुछ और भी हो सकती जानकर लोग संपर्क उनसे संपर्क कर रहे हैं। प्रबोध जी रचनाकारों की ऐसी पीढी़ तैयार कर रहे हैं जो साहित्‍य से सदियों दूर रही है। वह सौंदर्य गहरा होगा, सच्‍चाई मारक होगी जब वे खुद लिखेंगे जो उन जीवन परिस्थितियों को जी रहे हैं।
वर्ष 2000 के पहले वाली बेबी हालदार के बारे में कुछ बताइये।
ए‍‍क ही सपना था कि जिस जकड़न और घुटन की जिंदगी जीने के लिए मैं मजबूर हूं उससे अपने बच्‍चों को उबार लूं। पति इस काबिल नहीं थे कि वह पालन कर पाते। मैंने सुना था दिल्‍ली पहुंचने पर जिंदगी थोडी़ बेहतर हो जाती है, काम वाली बाई पेट भर लेती है। बच्‍चों को लेकर मैं भाई के पास दिल्‍ली आ गई और संयोग से तातुस का घर मिल गया। मात्र कुछ महीनों में ही मैं इंसान का दर्जा पा
गयी जिससे देश के करोड़ों लोग महरूम हैं।
उन महरूमों के लिए आप क्‍या करना चाहती हैं।
कुछ वैसा ही जैसा महाश्‍वेता देवी कर रही हैं। स्त्रियों,दलितों एवं उपेक्षित तबकों के पक्ष में लेखन करना चाहती हूं जिसे वह अपना साहित्‍य कह सकें। लड़ना और लिखना संघर्ष की ही परंपरा के मजबूत स्‍तंभ हैं। कहा जा सकता है कि एक लेखक किसी एक के अभाव में एकांगी हो जाता है, अपनी जड़ों से उखड़ जाता है।

बहू बाज़ार की औरतें


बहू है कि........

हरियाणा के कई जिलों में ब्‍याह के लिए लडकियां नहीं मिल पा रहीं हैं। दूसरे राज्‍यों से खरीदी गयी गरीब आदिवासी लडकियों को बहू बनाने की मजबूरी से ठसक वाले जाट भी गुजर रहे हैं। जाटों के जातीय गर्व का सिंहासन डोलने लगा है। गरीब लडकियां कई बार खरीदी-बेची जाती हैं। इन्‍हें 'पारो' कहा जाता है जिनको कभी 'देवदास' नसीब नहीं होता। इनकी उपादेयता बच्‍चा पैदा करने के एक उपकरण से ज्‍यादा की नहीं। इन्‍हें मशीन या वेश्‍या समझा जाता है। ये रोती हैं, बिसरती हैं मगर आस-पास सहानुभूति जताने वाला कोई नहीं होता। मिलने वाली कठोर यातना तथा यंत्रणा कई बार दिमागी रूप से असंतुलित भी बना देती है। न ये कोठे पर हैं, न बाजार में, फिर भी वेश्‍या की व्‍यथा-दशा से घनीभूत हैं। घर और परिवार के बीच बेबसी की बुत बनी इन औरतों की पीडा और इस क्रम में टूटते जातीय-सामंती दुर्ग को चित्रित करती यह रिपोर्ट-


वह खरीदी गयी पूजा है जो आज करनाल के झुण्‍डला गांव की बहू है। चूल्‍हे पर दूध गरमा रही साहब सिंह की पत्‍नी पूजा का एक बार नहीं पांच बार मोलभाव हो चुका है। उसकी यह छठी शादी है।दरवाजे पर खडी़ गाय से कम कीमत इस‍लिए लगी क्‍योंकि वह कुंआरी नहीं थी। अन्‍यथा हरियाणा के बहू बाजार में पूजा के बदले दलालों को पन्‍द्रह-बीस हजार जरूर मिलते। पूजा पश्चिम बंगाल से आने के बाद से दलालों के हाथों बिन ब्‍याहों के आंगनों में घुमायी जाती रही है। उन चौखटों को उसने पार किया जो कैदखानों से भी बदतर थे। नब्‍बे के दशक के उतरार्द्ध में इस तरह की शादियों का चलन शुरू हुआ। ह‍‍रियाणा के मेवात क्षेत्र में खरीदकर ब्‍याही गयी दुल्‍हनों को 'पारो' कहा जाता है। बेशक इस इलाके की हर पारो का चन्‍द्रमुखी के एहसास से गुजरना नियति है। यहां कौन अपना, कौन पराया वे किसको कहें। यहां के रिवाज नये हैं, बोली और माहौल नया है। पति है मगर उससे वह दो बात नहीं कर सकती। करे भी तो कैसे आखिर भाषा जो अपनी नहीं है।

हरियाणा, पंजाब, राजस्‍थान तथा पश्चिमी उतर-प्रदेश के सैकड़ों गांवों में देश निकाला का जीवन बसर कर रही हजारों महिलाओं की यह पीडा़ शब्‍द किस तरह बयां कर पायेंगे। जब वह पानी भरती है तो गांव के युवक ऐसे घूरते हैं जैसे वह सबकी रखैल हो। सच कहा जाये तो 'नानजात के मेहरारू गांव भर की भौजाई' वाली हालत में रहना भी इनके नारकीय जीवन के दैन‍न्दिन में शामिल है। पानी के लिए कुंए पर जमा महिलाएं बातों-बातों में कितने तरीके से बेइज्‍जत करती हैं उसका अहसास जीते जी पारो को मार डालता है। फिर भी जीती है।'बबीता' अपने गांव का हनुमान मंदिर पार करते वक्‍त मन्‍नत मांगी थी कि बच्‍चा लेकर वापस आयेगी तो लडडू चढायेगी। इस बीच बबीता को दो बच्‍चे हुए मगर उसे याद नहीं कि जी भर कर कभी उन बच्‍चों को देख पायी हो। होठों को भींचते हुए बबीता कहती है 'दूध पिलवाकर सास उठा ले जाती है, सास को डर है कि मेरे साथ रहकर बच्‍चा काला हो जायेगा।' पूछने पर कि क्‍या वह गांव वापस जायेगी। वह कहती है,'क्‍या करूंगी घर जाकर, चाय बागान बंद हो गये, दूसरा मेहनत-मजदूरी का कुछ रहा नहीं। वहां मैं भूखों मर जाउंगी और यहां जीते जी मर रही हूं।'यह कहना गलत बयानी होगी कि पूजा को इस बीच कुछ नहीं मिला। हर नये घर में उसे लोग मिले, पानी की जगह दूध और साथ में बख्‍शीश के तौर पर दो से तीन साल तक पति का प्‍यार। वह इसलिए क्‍योंकि इतना वक्‍त एक बच्‍चे को पैदा होने और उसे छोड़कर जाने में लग ही जाता है।यह सब कुछ हरियाणा के दर्जनों गांवों का नया यथार्थ है। आखिरकर ताउ ने खरीदा भी इसीलिए था कि सूने घर में किलकारी गूंजे, न कि खरीदी गयी औरत की अठखेलियां और हंसी की खनखनाहट। 'उसकी' हंसी की खनखनाहट ताउ के कानों को बर्दाश्‍त नहीं है क्‍योंकि वह अपनी कुल बिरादरी की नहीं है। ताउ की नाक फनफना उठती है जब वह बंगाल के न्‍यू जलपाईगुडी़ में बहू के खोज का संस्‍मरण सुनाता है। माछभात की गंध, काले ठिगने लोगों के सामने दयनीय सा चेहरा बनाकर ताउ का यह कहना हम तुम्‍हारी बेटी के साथ ब्‍याह करने के बाद जीवन भर रहेंगे उसे बेहद नागवर गुजरा था। अब नागवार गुजर रही है दीपा। शादी के दो साल बाद भी वह मां नहीं बन सकी है। घरूंडा गांव का कुलवीर इस फिराक में है कि अब कोई बंगाली, बिहारी या असमिया लड़की सस्‍ते रेट में मिले कि वह दूसरी को ले आये और दीपा को खदेडे। 16 वर्ष की दीपा की शादी 40 वर्षीय कुलवीर से 2004 में हुई थी।कुछ वर्षों से घटित हो रही सामाजिक परिघटना का मुख्‍य कारण हरियाणा, पंजाब में घटता लिंगानुपात है। आंकडों की माने तो हरियाणा में एक हजार में एक सौ तीस बिना शादी के रह जाते हैं। विशेष तौर पर हरियाणा के हिसार जिले में एक हजार लड़कों के मुकाबले 851 लड़कियां ही हैं। लड़कियों की यह संख्‍या दलित जातियों में लिंगानुपात एक तक संतुलित होने के चलते है। नहीं तो सिर्फ हरियाणा के सवर्ण और पिछडी़ जातियों के लिंगानुपात के औसत अनुमानित से भी काफी कम होंगे। दूसरी तरफ विडम्‍बना यह है कि ट्रैफिकिंग की गिरफ्त में आने वाली ज्‍यादातर लड़कियां दलित समुदाय की होती हैं। 2004 में बिहार की 'भूमिका' नामक स्‍वयं सेवी संस्‍था ने 173 मामलों का अध्‍ययन किया। अपनी जारी रिपोर्ट में संस्‍था ने लिखा कि ट्रैफिकिंग में जहां 85 प्रतिशत किशोरी हैं वहीं इतना ही प्रतिशत दलित लड़कियों का भी है। कुलवीर कहता है 'म्‍हारी जाति में बंगाली से ब्‍याह जात्‍ते हैं। पांच दस हजार देवे हैं और बहू घर मैं। अपणी जाति की छोरी रही कहां। जो थोडी़ हैं वे भी जमींदारों की बहू हौवे हैं। म्‍हारी हरियाणा की तो तस्‍वीर बदलै है, छोरियों के बाप्‍पों को दुल्‍हा वाला पैसा देवै हैं।हरियाणवी में कुलवार की कही ये बातें न सिर्फ उसकी कहानी बयां करती हैं बल्कि इसका भी प्रमाण हैं कि भ्रूण हत्‍याओं के बाद शादी के लिये लड़कियों की कमी ने बहुत हद तक हरियाणा के सामाजिक-सांस्‍कृतिक परिवेश की संरचना को तोडा है और समाज पहले के मुकाबले और स्‍त्री विरोधी हुआ है। पूरे हरियाणा में ट्रैफिकिंग करके ब्‍याहने का पिछले कुछ सालों में चलन बढा़ है। शुरू के वर्षों में काम्‍बोज, रोर, डोबर गड़रिया और ब्राह्मण युवक ही बहका के लायी गयी लडकियों को खरीदकर ब्‍याहते थे। अब जाटों में भी यह चलन तेजी के साथ फैल रहा है।हरियाणा के जिला जींद का सण्‍डील गांव जहां एक जाट को गांव से बाहर बसना पडा था, क्‍योंकि उसने उपयुक्‍त गोत्र में शादी नहीं की थी। आमतौर पर जाति को लेकर कट्टरता बघारने वाले हरियाणवी जाटों के यहां मात्र दो-तीन वर्षों के दौरान इतना परिवर्तन हुआ कि सण्‍डील गांव के ही तीन जाट परिवारों के यहां झारखण्‍ड के पलामू और गुमला जिले से लायी गयी आदिवासी लडकियों की शादी हुई है। सण्‍डील गांव में जब 'दि संडे पोस्‍ट' के संवाददाताओं ने जाटों से ब्‍याही आदिवासी लडकियों से बातचीत करनी चाही तो घर वालों ने मना किया। बताते हैं कि इस गांव के बगल वाले गांव में किसी ने बहकाकर लायी गयी नाबालिग लड़की से शादी की थी। बाद में असम के डिग्रूगढ जिले से आये उसके मां-बाप अपने साथ ले गये। उल्‍लेखनीय है कि गांव वाले जब इस घटना को सुना रहे थे तो उन्‍हें अफसोस इस बात का नहीं था कि फलां गांव की इज्‍जत चली गयी बल्कि उनकी चिंता का विषय वह पैसा था जो उसके घर वालों ने शादी से पहले लड़की के बदले दलालों को दिया था। सरकार द्वारा आदिवासियों की उपेक्षा के बाद से उजी बहुमंडी का प्रमुख क्षेत्र पूर्वोत्‍तर के सभी राज्‍यों असम, मणिपुर, नागालैंड, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश और आंध प्रदेश का भी है। इक्‍कसवीं सदी की इस नयी मानव मंडी के खरीददार देश के समृद्ध राज्‍य पंजाब, हरियाणा और पश्‍िचमी उत्‍तर प्रदेश के क्षेत्र हैं। ऐसा नहीं है कि यह तीन ही क्षेत्र हैं बल्कि बहू मंडी के नये बाजार में राजस्‍थान का हनुमाननगर और श्रीगंगानगर जिला भी शामिल है। पाकिस्‍तान की सीमा से लगा श्रीगंगानगर राजस्‍थान का वह जिला है जहां लैंगिक अनुपात सबसे कम है। 2003 में राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हर वर्ष दर्ज किये गुमशुदा लोगों में ग्‍यारह हजार महिलाएं तथा पांच हजार बच्‍चे शामिल हैं। आयोग की रिपोर्ट तैयार करने में शामिल वरिष्‍ठ पुलिस अधिकारी पीएम नायर ने यह भी कहा था कि यह संख्‍या तब है जबकि ज्‍यादातर केस दर्ज नहीं किये जाते। रिपोर्ट के अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्‍योंकि मात्र 7 प्रतिशत पुलिसकर्मी इस तरह के मामलों को गंभीरता से लेते हैं। गंडगांव के मेवात गांव के बारे में यह नहीं बताया जा सकता कि वहां ट्रैफिकिंग करके लायी गयी लडकियों की ठीक-ठीक संख्‍या कितनी है। हजारों की संख्‍या में बहू के तौर पर दर्जा पायी औरतें इस गांव में रह रही हैं। इस गांव में ही तीन बच्‍चों की मां बन चुकी रेहाना झारखण्‍ड की है। शारीरिक बनावट से आदिवासी लगी रेहाना ने बताया कि वह संथाल आदिवासी है। नाम इसलिए रेहाना हुआ कि शादी मुस्लिम परिवार में हुई। अपने हालात पर बोलने के लिए उसके पास कुछ नहीं है। वह कहती है कि बताने वाली क्‍या बात है। पूरे मेवात में हर दो घर छोड़ आदिवासी ही तो बहू है। मेरा शौहर अच्‍छा है वरना कई तो बच्‍चे होने के बाद छोड़ देते हैं। छोड़ने के बाद वे औरतें कहां जाती हैं, के जवाब में वह कहती है कि वहीं जायेंगी जहां एक अबला की जगह होती है। औरत बाप की है, पति की है अगर इन दोनों की नहीं है तो कोठे की है। एक आंकडे़ के अनुसार देश में चल रहे देह व्‍यापार के धंधे में 80 प्रतिशत बहकाकर लायी गयी महिलाओं को भरा जाता है। कहा जाता है कि ट्रैफिकिंग एक भूमंडलीय समस्‍या के रूप में उभरकर सामने आया है जिसने महिलाओं को देह की नयी मंडी में ला खडा किया है। संगठित अपराध और डरग के धंधे को बढाने में ट्रैफिकिंग तीसरे सबसे बडे़ सहयोगी की भूमिका निभाता है। बकरियों व गायों के रेट पर खरीदी जाने वाली इन लड़कियों की कीमत चार हजार से बीस हजार के बीच है। पूर्वोतर के राज्‍यों तथा पश्चिम बंगाल क्षेत्र में जहां असम बडी मंडी है वहीं देश की राजधानी दिल्‍ली वितरण का प्रमुख केन्‍द्र है। जगजाहिर तथ्‍य है कि दिल्‍ली में हजारों की संख्‍या में कुकुरमुत्‍तों जैसी प्‍लेसमेंट एजेंसियां मुख्‍य तौर पर ट्रैफिकिंग का ही काम करती है। शारीरिक बनावट और सुंदरता के हिसाब से दिल्‍ली में उनकी कीमत लगती है और वे खरीददारों के घर रवाना कर दी जाती है। वैसे एक बडी़ संख्‍या खरीददारों की ऐसी भी है जो सीधे आदिवासी क्षेत्रों में पहुंचते हैं, नाबालिगों से शादी करते हैं, मां-बाप को कुछ हजार रुपये देते हैं और ले आते हैं एक बच्‍चा पैदा करने की मशीन। जब दलाल उन्‍हें दो-तीन हजार किलोमीटर दूर से दिल्‍ली तक लेकर आते हैं, उस बीच कम से कम चार-पांच बार उनका बलात्‍कार हो चुका होता है। इस बात को उन मर्दों की निगाहें जानती हैं जो खरीदने के बाद उन लडकियों से शादी करते हैं। इसलिए कभी वे उन्‍हें मानसिक तौर पर अपनी पत्‍नी का दर्जा नहीं देते। उदाहरण के लिए हरियाणा के शाहाबाद गांव का अविवाहित बी ए पास युवक जब यह कहता है कि उन्‍हें हम पत्‍नी के रूप में कैसे स्‍वीकार कर सकते हैं जो औरत बिन मां-बाप के इतनी दूर लायी गयी हो जिसकी न मिट्टी अपनी हो न भाषा। वह पता नहीं पहले कितनों की पत्‍नी रह चुकी है। लेकिन इक्‍कीसवीं सदी में वेश्‍यावृत्ति की इस नयी मंडी ने सामाजिक जकडबंदी को और ज्‍यादा बल दिया है। औरत धंधे में अपने को बचाने के लिए तो आजाद है। मगर यह बाजा़र तो बंधुआ देह व्‍यापार के चलन को पैदा कर रहा है।दिल्‍ली के जीबी रोड स्थित कोठा नम्‍बर इकतालिस पर कुछ महीने पहले आयी मोना कभी पंजाब के मंसा गांव की बहू रही थी जो शादी के बाद अपने तथाकथित पति के अलावा देवरों और ससुर के हवस का शिकार होती रही। वह इस कोठे पर भाग कर आयी है। इन सभी मामलों से एक अलग ही मामला आया जिसमें घर वाले पुलिस को खरीदकर लायी गयी लडकी को सौंपने के लिए तैयार नहीं थे। हरियाणा के पोपडा गांव में ब्‍याही गयी नाबालिग लडकी ने मां-बाप के साथ पुलिस ने दबिश दी थी। घर वालों ने कहा कि हम क्‍यूं दें। हमने इसका पैसा अदा किया है। सासू तो रोने लगी और कहती है कि हमारा तो एक ही लड़का है और हमने जमीन बेचकर बारह हजार में लड़की खरीदी है। अब तो यही हमारी संपत्ति है। हमने तो इसलिए ब्‍याहा था कि इससे एक लड़का हो जायेगा, पीढी़ चल पडे़गी। यह हालात अकेले किसी लड़की की नहीं बल्कि मेवात क्षेत्र में ब्‍याहने वालों की गैंग इतनी सक्रिय है कि वे मीडिया की भनक लगते ही सावधान हो जाते हैं। पुलिस वाले भी इन क्षेत्रों में घुसने से हिचकते हैं। शक्तिशालिनी के निदेशक रविकांत ने बताया कि सिर्फ चुनौती इतनी नहीं है कि उन लड़कियों को चिन्‍हित किया जाये जो नाबालिग हैं तथा ट्रैफिकिंग के लिए लायी गयी हैं। बडी़ चुनौती है उन्‍हें मुक्‍त कराने की है। क्षेत्र की पुलिस भी इस तरह के मामलों को गंभीरता से नहीं लेती जिसका कारण यह भी है कि कई बार तो आरोपी पुलिसवालों का रिश्‍तेदार निकलाता है। बीते संसद सत्र में महिला एवं बाल विकास राज्‍य मंत्री रेणुका चौधरी ने ट्रैफिकिंग को लेकर चिंता व्‍यक्‍त की थी लेकिन उनकी चिंताएं व्‍यावहारिक रूप से सामने नहीं आ सकी है। राष्‍ट्रीय महिला आयोग की अध्‍यक्ष गिरिजा व्‍यास के अनुसार आयोग ने ट्रैफिकिंग के आंशिक मामले सामने आये हैं लेकिन ये उतने अधिक नहीं हैं जितना मीडिया में उछाला जा रहा है। हालांकि इस संबंध में जो भी शिकायतें आयोग में आती हैं उनकी जांच करायी जाती हैं।

अजय प्रकाश