बहू है कि........
हरियाणा के कई जिलों में ब्याह के लिए लडकियां नहीं मिल पा रहीं हैं। दूसरे राज्यों से खरीदी गयी गरीब आदिवासी लडकियों को बहू बनाने की मजबूरी से ठसक वाले जाट भी गुजर रहे हैं। जाटों के जातीय गर्व का सिंहासन डोलने लगा है। गरीब लडकियां कई बार खरीदी-बेची जाती हैं। इन्हें 'पारो' कहा जाता है जिनको कभी 'देवदास' नसीब नहीं होता। इनकी उपादेयता बच्चा पैदा करने के एक उपकरण से ज्यादा की नहीं। इन्हें मशीन या वेश्या समझा जाता है। ये रोती हैं, बिसरती हैं मगर आस-पास सहानुभूति जताने वाला कोई नहीं होता। मिलने वाली कठोर यातना तथा यंत्रणा कई बार दिमागी रूप से असंतुलित भी बना देती है। न ये कोठे पर हैं, न बाजार में, फिर भी वेश्या की व्यथा-दशा से घनीभूत हैं। घर और परिवार के बीच बेबसी की बुत बनी इन औरतों की पीडा और इस क्रम में टूटते जातीय-सामंती दुर्ग को चित्रित करती यह रिपोर्ट-
वह खरीदी गयी पूजा है जो आज करनाल के झुण्डला गांव की बहू है। चूल्हे पर दूध गरमा रही साहब सिंह की पत्नी पूजा का एक बार नहीं पांच बार मोलभाव हो चुका है। उसकी यह छठी शादी है।दरवाजे पर खडी़ गाय से कम कीमत इसलिए लगी क्योंकि वह कुंआरी नहीं थी। अन्यथा हरियाणा के बहू बाजार में पूजा के बदले दलालों को पन्द्रह-बीस हजार जरूर मिलते। पूजा पश्चिम बंगाल से आने के बाद से दलालों के हाथों बिन ब्याहों के आंगनों में घुमायी जाती रही है। उन चौखटों को उसने पार किया जो कैदखानों से भी बदतर थे। नब्बे के दशक के उतरार्द्ध में इस तरह की शादियों का चलन शुरू हुआ। हरियाणा के मेवात क्षेत्र में खरीदकर ब्याही गयी दुल्हनों को 'पारो' कहा जाता है। बेशक इस इलाके की हर पारो का चन्द्रमुखी के एहसास से गुजरना नियति है। यहां कौन अपना, कौन पराया वे किसको कहें। यहां के रिवाज नये हैं, बोली और माहौल नया है। पति है मगर उससे वह दो बात नहीं कर सकती। करे भी तो कैसे आखिर भाषा जो अपनी नहीं है।
हरियाणा, पंजाब, राजस्थान तथा पश्चिमी उतर-प्रदेश के सैकड़ों गांवों में देश निकाला का जीवन बसर कर रही हजारों महिलाओं की यह पीडा़ शब्द किस तरह बयां कर पायेंगे। जब वह पानी भरती है तो गांव के युवक ऐसे घूरते हैं जैसे वह सबकी रखैल हो। सच कहा जाये तो 'नानजात के मेहरारू गांव भर की भौजाई' वाली हालत में रहना भी इनके नारकीय जीवन के दैनन्दिन में शामिल है। पानी के लिए कुंए पर जमा महिलाएं बातों-बातों में कितने तरीके से बेइज्जत करती हैं उसका अहसास जीते जी पारो को मार डालता है। फिर भी जीती है।'बबीता' अपने गांव का हनुमान मंदिर पार करते वक्त मन्नत मांगी थी कि बच्चा लेकर वापस आयेगी तो लडडू चढायेगी। इस बीच बबीता को दो बच्चे हुए मगर उसे याद नहीं कि जी भर कर कभी उन बच्चों को देख पायी हो। होठों को भींचते हुए बबीता कहती है 'दूध पिलवाकर सास उठा ले जाती है, सास को डर है कि मेरे साथ रहकर बच्चा काला हो जायेगा।' पूछने पर कि क्या वह गांव वापस जायेगी। वह कहती है,'क्या करूंगी घर जाकर, चाय बागान बंद हो गये, दूसरा मेहनत-मजदूरी का कुछ रहा नहीं। वहां मैं भूखों मर जाउंगी और यहां जीते जी मर रही हूं।'यह कहना गलत बयानी होगी कि पूजा को इस बीच कुछ नहीं मिला। हर नये घर में उसे लोग मिले, पानी की जगह दूध और साथ में बख्शीश के तौर पर दो से तीन साल तक पति का प्यार। वह इसलिए क्योंकि इतना वक्त एक बच्चे को पैदा होने और उसे छोड़कर जाने में लग ही जाता है।यह सब कुछ हरियाणा के दर्जनों गांवों का नया यथार्थ है। आखिरकर ताउ ने खरीदा भी इसीलिए था कि सूने घर में किलकारी गूंजे, न कि खरीदी गयी औरत की अठखेलियां और हंसी की खनखनाहट। 'उसकी' हंसी की खनखनाहट ताउ के कानों को बर्दाश्त नहीं है क्योंकि वह अपनी कुल बिरादरी की नहीं है। ताउ की नाक फनफना उठती है जब वह बंगाल के न्यू जलपाईगुडी़ में बहू के खोज का संस्मरण सुनाता है। माछभात की गंध, काले ठिगने लोगों के सामने दयनीय सा चेहरा बनाकर ताउ का यह कहना हम तुम्हारी बेटी के साथ ब्याह करने के बाद जीवन भर रहेंगे उसे बेहद नागवर गुजरा था। अब नागवार गुजर रही है दीपा। शादी के दो साल बाद भी वह मां नहीं बन सकी है। घरूंडा गांव का कुलवीर इस फिराक में है कि अब कोई बंगाली, बिहारी या असमिया लड़की सस्ते रेट में मिले कि वह दूसरी को ले आये और दीपा को खदेडे। 16 वर्ष की दीपा की शादी 40 वर्षीय कुलवीर से 2004 में हुई थी।कुछ वर्षों से घटित हो रही सामाजिक परिघटना का मुख्य कारण हरियाणा, पंजाब में घटता लिंगानुपात है। आंकडों की माने तो हरियाणा में एक हजार में एक सौ तीस बिना शादी के रह जाते हैं। विशेष तौर पर हरियाणा के हिसार जिले में एक हजार लड़कों के मुकाबले 851 लड़कियां ही हैं। लड़कियों की यह संख्या दलित जातियों में लिंगानुपात एक तक संतुलित होने के चलते है। नहीं तो सिर्फ हरियाणा के सवर्ण और पिछडी़ जातियों के लिंगानुपात के औसत अनुमानित से भी काफी कम होंगे। दूसरी तरफ विडम्बना यह है कि ट्रैफिकिंग की गिरफ्त में आने वाली ज्यादातर लड़कियां दलित समुदाय की होती हैं। 2004 में बिहार की 'भूमिका' नामक स्वयं सेवी संस्था ने 173 मामलों का अध्ययन किया। अपनी जारी रिपोर्ट में संस्था ने लिखा कि ट्रैफिकिंग में जहां 85 प्रतिशत किशोरी हैं वहीं इतना ही प्रतिशत दलित लड़कियों का भी है। कुलवीर कहता है 'म्हारी जाति में बंगाली से ब्याह जात्ते हैं। पांच दस हजार देवे हैं और बहू घर मैं। अपणी जाति की छोरी रही कहां। जो थोडी़ हैं वे भी जमींदारों की बहू हौवे हैं। म्हारी हरियाणा की तो तस्वीर बदलै है, छोरियों के बाप्पों को दुल्हा वाला पैसा देवै हैं।हरियाणवी में कुलवार की कही ये बातें न सिर्फ उसकी कहानी बयां करती हैं बल्कि इसका भी प्रमाण हैं कि भ्रूण हत्याओं के बाद शादी के लिये लड़कियों की कमी ने बहुत हद तक हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश की संरचना को तोडा है और समाज पहले के मुकाबले और स्त्री विरोधी हुआ है। पूरे हरियाणा में ट्रैफिकिंग करके ब्याहने का पिछले कुछ सालों में चलन बढा़ है। शुरू के वर्षों में काम्बोज, रोर, डोबर गड़रिया और ब्राह्मण युवक ही बहका के लायी गयी लडकियों को खरीदकर ब्याहते थे। अब जाटों में भी यह चलन तेजी के साथ फैल रहा है।हरियाणा के जिला जींद का सण्डील गांव जहां एक जाट को गांव से बाहर बसना पडा था, क्योंकि उसने उपयुक्त गोत्र में शादी नहीं की थी। आमतौर पर जाति को लेकर कट्टरता बघारने वाले हरियाणवी जाटों के यहां मात्र दो-तीन वर्षों के दौरान इतना परिवर्तन हुआ कि सण्डील गांव के ही तीन जाट परिवारों के यहां झारखण्ड के पलामू और गुमला जिले से लायी गयी आदिवासी लडकियों की शादी हुई है। सण्डील गांव में जब 'दि संडे पोस्ट' के संवाददाताओं ने जाटों से ब्याही आदिवासी लडकियों से बातचीत करनी चाही तो घर वालों ने मना किया। बताते हैं कि इस गांव के बगल वाले गांव में किसी ने बहकाकर लायी गयी नाबालिग लड़की से शादी की थी। बाद में असम के डिग्रूगढ जिले से आये उसके मां-बाप अपने साथ ले गये। उल्लेखनीय है कि गांव वाले जब इस घटना को सुना रहे थे तो उन्हें अफसोस इस बात का नहीं था कि फलां गांव की इज्जत चली गयी बल्कि उनकी चिंता का विषय वह पैसा था जो उसके घर वालों ने शादी से पहले लड़की के बदले दलालों को दिया था। सरकार द्वारा आदिवासियों की उपेक्षा के बाद से उजी बहुमंडी का प्रमुख क्षेत्र पूर्वोत्तर के सभी राज्यों असम, मणिपुर, नागालैंड, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश और आंध प्रदेश का भी है। इक्कसवीं सदी की इस नयी मानव मंडी के खरीददार देश के समृद्ध राज्य पंजाब, हरियाणा और पश्िचमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र हैं। ऐसा नहीं है कि यह तीन ही क्षेत्र हैं बल्कि बहू मंडी के नये बाजार में राजस्थान का हनुमाननगर और श्रीगंगानगर जिला भी शामिल है। पाकिस्तान की सीमा से लगा श्रीगंगानगर राजस्थान का वह जिला है जहां लैंगिक अनुपात सबसे कम है। 2003 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हर वर्ष दर्ज किये गुमशुदा लोगों में ग्यारह हजार महिलाएं तथा पांच हजार बच्चे शामिल हैं। आयोग की रिपोर्ट तैयार करने में शामिल वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पीएम नायर ने यह भी कहा था कि यह संख्या तब है जबकि ज्यादातर केस दर्ज नहीं किये जाते। रिपोर्ट के अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मात्र 7 प्रतिशत पुलिसकर्मी इस तरह के मामलों को गंभीरता से लेते हैं। गंडगांव के मेवात गांव के बारे में यह नहीं बताया जा सकता कि वहां ट्रैफिकिंग करके लायी गयी लडकियों की ठीक-ठीक संख्या कितनी है। हजारों की संख्या में बहू के तौर पर दर्जा पायी औरतें इस गांव में रह रही हैं। इस गांव में ही तीन बच्चों की मां बन चुकी रेहाना झारखण्ड की है। शारीरिक बनावट से आदिवासी लगी रेहाना ने बताया कि वह संथाल आदिवासी है। नाम इसलिए रेहाना हुआ कि शादी मुस्लिम परिवार में हुई। अपने हालात पर बोलने के लिए उसके पास कुछ नहीं है। वह कहती है कि बताने वाली क्या बात है। पूरे मेवात में हर दो घर छोड़ आदिवासी ही तो बहू है। मेरा शौहर अच्छा है वरना कई तो बच्चे होने के बाद छोड़ देते हैं। छोड़ने के बाद वे औरतें कहां जाती हैं, के जवाब में वह कहती है कि वहीं जायेंगी जहां एक अबला की जगह होती है। औरत बाप की है, पति की है अगर इन दोनों की नहीं है तो कोठे की है। एक आंकडे़ के अनुसार देश में चल रहे देह व्यापार के धंधे में 80 प्रतिशत बहकाकर लायी गयी महिलाओं को भरा जाता है। कहा जाता है कि ट्रैफिकिंग एक भूमंडलीय समस्या के रूप में उभरकर सामने आया है जिसने महिलाओं को देह की नयी मंडी में ला खडा किया है। संगठित अपराध और डरग के धंधे को बढाने में ट्रैफिकिंग तीसरे सबसे बडे़ सहयोगी की भूमिका निभाता है। बकरियों व गायों के रेट पर खरीदी जाने वाली इन लड़कियों की कीमत चार हजार से बीस हजार के बीच है। पूर्वोतर के राज्यों तथा पश्चिम बंगाल क्षेत्र में जहां असम बडी मंडी है वहीं देश की राजधानी दिल्ली वितरण का प्रमुख केन्द्र है। जगजाहिर तथ्य है कि दिल्ली में हजारों की संख्या में कुकुरमुत्तों जैसी प्लेसमेंट एजेंसियां मुख्य तौर पर ट्रैफिकिंग का ही काम करती है। शारीरिक बनावट और सुंदरता के हिसाब से दिल्ली में उनकी कीमत लगती है और वे खरीददारों के घर रवाना कर दी जाती है। वैसे एक बडी़ संख्या खरीददारों की ऐसी भी है जो सीधे आदिवासी क्षेत्रों में पहुंचते हैं, नाबालिगों से शादी करते हैं, मां-बाप को कुछ हजार रुपये देते हैं और ले आते हैं एक बच्चा पैदा करने की मशीन। जब दलाल उन्हें दो-तीन हजार किलोमीटर दूर से दिल्ली तक लेकर आते हैं, उस बीच कम से कम चार-पांच बार उनका बलात्कार हो चुका होता है। इस बात को उन मर्दों की निगाहें जानती हैं जो खरीदने के बाद उन लडकियों से शादी करते हैं। इसलिए कभी वे उन्हें मानसिक तौर पर अपनी पत्नी का दर्जा नहीं देते। उदाहरण के लिए हरियाणा के शाहाबाद गांव का अविवाहित बी ए पास युवक जब यह कहता है कि उन्हें हम पत्नी के रूप में कैसे स्वीकार कर सकते हैं जो औरत बिन मां-बाप के इतनी दूर लायी गयी हो जिसकी न मिट्टी अपनी हो न भाषा। वह पता नहीं पहले कितनों की पत्नी रह चुकी है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में वेश्यावृत्ति की इस नयी मंडी ने सामाजिक जकडबंदी को और ज्यादा बल दिया है। औरत धंधे में अपने को बचाने के लिए तो आजाद है। मगर यह बाजा़र तो बंधुआ देह व्यापार के चलन को पैदा कर रहा है।दिल्ली के जीबी रोड स्थित कोठा नम्बर इकतालिस पर कुछ महीने पहले आयी मोना कभी पंजाब के मंसा गांव की बहू रही थी जो शादी के बाद अपने तथाकथित पति के अलावा देवरों और ससुर के हवस का शिकार होती रही। वह इस कोठे पर भाग कर आयी है। इन सभी मामलों से एक अलग ही मामला आया जिसमें घर वाले पुलिस को खरीदकर लायी गयी लडकी को सौंपने के लिए तैयार नहीं थे। हरियाणा के पोपडा गांव में ब्याही गयी नाबालिग लडकी ने मां-बाप के साथ पुलिस ने दबिश दी थी। घर वालों ने कहा कि हम क्यूं दें। हमने इसका पैसा अदा किया है। सासू तो रोने लगी और कहती है कि हमारा तो एक ही लड़का है और हमने जमीन बेचकर बारह हजार में लड़की खरीदी है। अब तो यही हमारी संपत्ति है। हमने तो इसलिए ब्याहा था कि इससे एक लड़का हो जायेगा, पीढी़ चल पडे़गी। यह हालात अकेले किसी लड़की की नहीं बल्कि मेवात क्षेत्र में ब्याहने वालों की गैंग इतनी सक्रिय है कि वे मीडिया की भनक लगते ही सावधान हो जाते हैं। पुलिस वाले भी इन क्षेत्रों में घुसने से हिचकते हैं। शक्तिशालिनी के निदेशक रविकांत ने बताया कि सिर्फ चुनौती इतनी नहीं है कि उन लड़कियों को चिन्हित किया जाये जो नाबालिग हैं तथा ट्रैफिकिंग के लिए लायी गयी हैं। बडी़ चुनौती है उन्हें मुक्त कराने की है। क्षेत्र की पुलिस भी इस तरह के मामलों को गंभीरता से नहीं लेती जिसका कारण यह भी है कि कई बार तो आरोपी पुलिसवालों का रिश्तेदार निकलाता है। बीते संसद सत्र में महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री रेणुका चौधरी ने ट्रैफिकिंग को लेकर चिंता व्यक्त की थी लेकिन उनकी चिंताएं व्यावहारिक रूप से सामने नहीं आ सकी है। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास के अनुसार आयोग ने ट्रैफिकिंग के आंशिक मामले सामने आये हैं लेकिन ये उतने अधिक नहीं हैं जितना मीडिया में उछाला जा रहा है। हालांकि इस संबंध में जो भी शिकायतें आयोग में आती हैं उनकी जांच करायी जाती हैं।
अजय प्रकाश
हरियाणा के कई जिलों में ब्याह के लिए लडकियां नहीं मिल पा रहीं हैं। दूसरे राज्यों से खरीदी गयी गरीब आदिवासी लडकियों को बहू बनाने की मजबूरी से ठसक वाले जाट भी गुजर रहे हैं। जाटों के जातीय गर्व का सिंहासन डोलने लगा है। गरीब लडकियां कई बार खरीदी-बेची जाती हैं। इन्हें 'पारो' कहा जाता है जिनको कभी 'देवदास' नसीब नहीं होता। इनकी उपादेयता बच्चा पैदा करने के एक उपकरण से ज्यादा की नहीं। इन्हें मशीन या वेश्या समझा जाता है। ये रोती हैं, बिसरती हैं मगर आस-पास सहानुभूति जताने वाला कोई नहीं होता। मिलने वाली कठोर यातना तथा यंत्रणा कई बार दिमागी रूप से असंतुलित भी बना देती है। न ये कोठे पर हैं, न बाजार में, फिर भी वेश्या की व्यथा-दशा से घनीभूत हैं। घर और परिवार के बीच बेबसी की बुत बनी इन औरतों की पीडा और इस क्रम में टूटते जातीय-सामंती दुर्ग को चित्रित करती यह रिपोर्ट-
वह खरीदी गयी पूजा है जो आज करनाल के झुण्डला गांव की बहू है। चूल्हे पर दूध गरमा रही साहब सिंह की पत्नी पूजा का एक बार नहीं पांच बार मोलभाव हो चुका है। उसकी यह छठी शादी है।दरवाजे पर खडी़ गाय से कम कीमत इसलिए लगी क्योंकि वह कुंआरी नहीं थी। अन्यथा हरियाणा के बहू बाजार में पूजा के बदले दलालों को पन्द्रह-बीस हजार जरूर मिलते। पूजा पश्चिम बंगाल से आने के बाद से दलालों के हाथों बिन ब्याहों के आंगनों में घुमायी जाती रही है। उन चौखटों को उसने पार किया जो कैदखानों से भी बदतर थे। नब्बे के दशक के उतरार्द्ध में इस तरह की शादियों का चलन शुरू हुआ। हरियाणा के मेवात क्षेत्र में खरीदकर ब्याही गयी दुल्हनों को 'पारो' कहा जाता है। बेशक इस इलाके की हर पारो का चन्द्रमुखी के एहसास से गुजरना नियति है। यहां कौन अपना, कौन पराया वे किसको कहें। यहां के रिवाज नये हैं, बोली और माहौल नया है। पति है मगर उससे वह दो बात नहीं कर सकती। करे भी तो कैसे आखिर भाषा जो अपनी नहीं है।
हरियाणा, पंजाब, राजस्थान तथा पश्चिमी उतर-प्रदेश के सैकड़ों गांवों में देश निकाला का जीवन बसर कर रही हजारों महिलाओं की यह पीडा़ शब्द किस तरह बयां कर पायेंगे। जब वह पानी भरती है तो गांव के युवक ऐसे घूरते हैं जैसे वह सबकी रखैल हो। सच कहा जाये तो 'नानजात के मेहरारू गांव भर की भौजाई' वाली हालत में रहना भी इनके नारकीय जीवन के दैनन्दिन में शामिल है। पानी के लिए कुंए पर जमा महिलाएं बातों-बातों में कितने तरीके से बेइज्जत करती हैं उसका अहसास जीते जी पारो को मार डालता है। फिर भी जीती है।'बबीता' अपने गांव का हनुमान मंदिर पार करते वक्त मन्नत मांगी थी कि बच्चा लेकर वापस आयेगी तो लडडू चढायेगी। इस बीच बबीता को दो बच्चे हुए मगर उसे याद नहीं कि जी भर कर कभी उन बच्चों को देख पायी हो। होठों को भींचते हुए बबीता कहती है 'दूध पिलवाकर सास उठा ले जाती है, सास को डर है कि मेरे साथ रहकर बच्चा काला हो जायेगा।' पूछने पर कि क्या वह गांव वापस जायेगी। वह कहती है,'क्या करूंगी घर जाकर, चाय बागान बंद हो गये, दूसरा मेहनत-मजदूरी का कुछ रहा नहीं। वहां मैं भूखों मर जाउंगी और यहां जीते जी मर रही हूं।'यह कहना गलत बयानी होगी कि पूजा को इस बीच कुछ नहीं मिला। हर नये घर में उसे लोग मिले, पानी की जगह दूध और साथ में बख्शीश के तौर पर दो से तीन साल तक पति का प्यार। वह इसलिए क्योंकि इतना वक्त एक बच्चे को पैदा होने और उसे छोड़कर जाने में लग ही जाता है।यह सब कुछ हरियाणा के दर्जनों गांवों का नया यथार्थ है। आखिरकर ताउ ने खरीदा भी इसीलिए था कि सूने घर में किलकारी गूंजे, न कि खरीदी गयी औरत की अठखेलियां और हंसी की खनखनाहट। 'उसकी' हंसी की खनखनाहट ताउ के कानों को बर्दाश्त नहीं है क्योंकि वह अपनी कुल बिरादरी की नहीं है। ताउ की नाक फनफना उठती है जब वह बंगाल के न्यू जलपाईगुडी़ में बहू के खोज का संस्मरण सुनाता है। माछभात की गंध, काले ठिगने लोगों के सामने दयनीय सा चेहरा बनाकर ताउ का यह कहना हम तुम्हारी बेटी के साथ ब्याह करने के बाद जीवन भर रहेंगे उसे बेहद नागवर गुजरा था। अब नागवार गुजर रही है दीपा। शादी के दो साल बाद भी वह मां नहीं बन सकी है। घरूंडा गांव का कुलवीर इस फिराक में है कि अब कोई बंगाली, बिहारी या असमिया लड़की सस्ते रेट में मिले कि वह दूसरी को ले आये और दीपा को खदेडे। 16 वर्ष की दीपा की शादी 40 वर्षीय कुलवीर से 2004 में हुई थी।कुछ वर्षों से घटित हो रही सामाजिक परिघटना का मुख्य कारण हरियाणा, पंजाब में घटता लिंगानुपात है। आंकडों की माने तो हरियाणा में एक हजार में एक सौ तीस बिना शादी के रह जाते हैं। विशेष तौर पर हरियाणा के हिसार जिले में एक हजार लड़कों के मुकाबले 851 लड़कियां ही हैं। लड़कियों की यह संख्या दलित जातियों में लिंगानुपात एक तक संतुलित होने के चलते है। नहीं तो सिर्फ हरियाणा के सवर्ण और पिछडी़ जातियों के लिंगानुपात के औसत अनुमानित से भी काफी कम होंगे। दूसरी तरफ विडम्बना यह है कि ट्रैफिकिंग की गिरफ्त में आने वाली ज्यादातर लड़कियां दलित समुदाय की होती हैं। 2004 में बिहार की 'भूमिका' नामक स्वयं सेवी संस्था ने 173 मामलों का अध्ययन किया। अपनी जारी रिपोर्ट में संस्था ने लिखा कि ट्रैफिकिंग में जहां 85 प्रतिशत किशोरी हैं वहीं इतना ही प्रतिशत दलित लड़कियों का भी है। कुलवीर कहता है 'म्हारी जाति में बंगाली से ब्याह जात्ते हैं। पांच दस हजार देवे हैं और बहू घर मैं। अपणी जाति की छोरी रही कहां। जो थोडी़ हैं वे भी जमींदारों की बहू हौवे हैं। म्हारी हरियाणा की तो तस्वीर बदलै है, छोरियों के बाप्पों को दुल्हा वाला पैसा देवै हैं।हरियाणवी में कुलवार की कही ये बातें न सिर्फ उसकी कहानी बयां करती हैं बल्कि इसका भी प्रमाण हैं कि भ्रूण हत्याओं के बाद शादी के लिये लड़कियों की कमी ने बहुत हद तक हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश की संरचना को तोडा है और समाज पहले के मुकाबले और स्त्री विरोधी हुआ है। पूरे हरियाणा में ट्रैफिकिंग करके ब्याहने का पिछले कुछ सालों में चलन बढा़ है। शुरू के वर्षों में काम्बोज, रोर, डोबर गड़रिया और ब्राह्मण युवक ही बहका के लायी गयी लडकियों को खरीदकर ब्याहते थे। अब जाटों में भी यह चलन तेजी के साथ फैल रहा है।हरियाणा के जिला जींद का सण्डील गांव जहां एक जाट को गांव से बाहर बसना पडा था, क्योंकि उसने उपयुक्त गोत्र में शादी नहीं की थी। आमतौर पर जाति को लेकर कट्टरता बघारने वाले हरियाणवी जाटों के यहां मात्र दो-तीन वर्षों के दौरान इतना परिवर्तन हुआ कि सण्डील गांव के ही तीन जाट परिवारों के यहां झारखण्ड के पलामू और गुमला जिले से लायी गयी आदिवासी लडकियों की शादी हुई है। सण्डील गांव में जब 'दि संडे पोस्ट' के संवाददाताओं ने जाटों से ब्याही आदिवासी लडकियों से बातचीत करनी चाही तो घर वालों ने मना किया। बताते हैं कि इस गांव के बगल वाले गांव में किसी ने बहकाकर लायी गयी नाबालिग लड़की से शादी की थी। बाद में असम के डिग्रूगढ जिले से आये उसके मां-बाप अपने साथ ले गये। उल्लेखनीय है कि गांव वाले जब इस घटना को सुना रहे थे तो उन्हें अफसोस इस बात का नहीं था कि फलां गांव की इज्जत चली गयी बल्कि उनकी चिंता का विषय वह पैसा था जो उसके घर वालों ने शादी से पहले लड़की के बदले दलालों को दिया था। सरकार द्वारा आदिवासियों की उपेक्षा के बाद से उजी बहुमंडी का प्रमुख क्षेत्र पूर्वोत्तर के सभी राज्यों असम, मणिपुर, नागालैंड, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश और आंध प्रदेश का भी है। इक्कसवीं सदी की इस नयी मानव मंडी के खरीददार देश के समृद्ध राज्य पंजाब, हरियाणा और पश्िचमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र हैं। ऐसा नहीं है कि यह तीन ही क्षेत्र हैं बल्कि बहू मंडी के नये बाजार में राजस्थान का हनुमाननगर और श्रीगंगानगर जिला भी शामिल है। पाकिस्तान की सीमा से लगा श्रीगंगानगर राजस्थान का वह जिला है जहां लैंगिक अनुपात सबसे कम है। 2003 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हर वर्ष दर्ज किये गुमशुदा लोगों में ग्यारह हजार महिलाएं तथा पांच हजार बच्चे शामिल हैं। आयोग की रिपोर्ट तैयार करने में शामिल वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पीएम नायर ने यह भी कहा था कि यह संख्या तब है जबकि ज्यादातर केस दर्ज नहीं किये जाते। रिपोर्ट के अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मात्र 7 प्रतिशत पुलिसकर्मी इस तरह के मामलों को गंभीरता से लेते हैं। गंडगांव के मेवात गांव के बारे में यह नहीं बताया जा सकता कि वहां ट्रैफिकिंग करके लायी गयी लडकियों की ठीक-ठीक संख्या कितनी है। हजारों की संख्या में बहू के तौर पर दर्जा पायी औरतें इस गांव में रह रही हैं। इस गांव में ही तीन बच्चों की मां बन चुकी रेहाना झारखण्ड की है। शारीरिक बनावट से आदिवासी लगी रेहाना ने बताया कि वह संथाल आदिवासी है। नाम इसलिए रेहाना हुआ कि शादी मुस्लिम परिवार में हुई। अपने हालात पर बोलने के लिए उसके पास कुछ नहीं है। वह कहती है कि बताने वाली क्या बात है। पूरे मेवात में हर दो घर छोड़ आदिवासी ही तो बहू है। मेरा शौहर अच्छा है वरना कई तो बच्चे होने के बाद छोड़ देते हैं। छोड़ने के बाद वे औरतें कहां जाती हैं, के जवाब में वह कहती है कि वहीं जायेंगी जहां एक अबला की जगह होती है। औरत बाप की है, पति की है अगर इन दोनों की नहीं है तो कोठे की है। एक आंकडे़ के अनुसार देश में चल रहे देह व्यापार के धंधे में 80 प्रतिशत बहकाकर लायी गयी महिलाओं को भरा जाता है। कहा जाता है कि ट्रैफिकिंग एक भूमंडलीय समस्या के रूप में उभरकर सामने आया है जिसने महिलाओं को देह की नयी मंडी में ला खडा किया है। संगठित अपराध और डरग के धंधे को बढाने में ट्रैफिकिंग तीसरे सबसे बडे़ सहयोगी की भूमिका निभाता है। बकरियों व गायों के रेट पर खरीदी जाने वाली इन लड़कियों की कीमत चार हजार से बीस हजार के बीच है। पूर्वोतर के राज्यों तथा पश्चिम बंगाल क्षेत्र में जहां असम बडी मंडी है वहीं देश की राजधानी दिल्ली वितरण का प्रमुख केन्द्र है। जगजाहिर तथ्य है कि दिल्ली में हजारों की संख्या में कुकुरमुत्तों जैसी प्लेसमेंट एजेंसियां मुख्य तौर पर ट्रैफिकिंग का ही काम करती है। शारीरिक बनावट और सुंदरता के हिसाब से दिल्ली में उनकी कीमत लगती है और वे खरीददारों के घर रवाना कर दी जाती है। वैसे एक बडी़ संख्या खरीददारों की ऐसी भी है जो सीधे आदिवासी क्षेत्रों में पहुंचते हैं, नाबालिगों से शादी करते हैं, मां-बाप को कुछ हजार रुपये देते हैं और ले आते हैं एक बच्चा पैदा करने की मशीन। जब दलाल उन्हें दो-तीन हजार किलोमीटर दूर से दिल्ली तक लेकर आते हैं, उस बीच कम से कम चार-पांच बार उनका बलात्कार हो चुका होता है। इस बात को उन मर्दों की निगाहें जानती हैं जो खरीदने के बाद उन लडकियों से शादी करते हैं। इसलिए कभी वे उन्हें मानसिक तौर पर अपनी पत्नी का दर्जा नहीं देते। उदाहरण के लिए हरियाणा के शाहाबाद गांव का अविवाहित बी ए पास युवक जब यह कहता है कि उन्हें हम पत्नी के रूप में कैसे स्वीकार कर सकते हैं जो औरत बिन मां-बाप के इतनी दूर लायी गयी हो जिसकी न मिट्टी अपनी हो न भाषा। वह पता नहीं पहले कितनों की पत्नी रह चुकी है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में वेश्यावृत्ति की इस नयी मंडी ने सामाजिक जकडबंदी को और ज्यादा बल दिया है। औरत धंधे में अपने को बचाने के लिए तो आजाद है। मगर यह बाजा़र तो बंधुआ देह व्यापार के चलन को पैदा कर रहा है।दिल्ली के जीबी रोड स्थित कोठा नम्बर इकतालिस पर कुछ महीने पहले आयी मोना कभी पंजाब के मंसा गांव की बहू रही थी जो शादी के बाद अपने तथाकथित पति के अलावा देवरों और ससुर के हवस का शिकार होती रही। वह इस कोठे पर भाग कर आयी है। इन सभी मामलों से एक अलग ही मामला आया जिसमें घर वाले पुलिस को खरीदकर लायी गयी लडकी को सौंपने के लिए तैयार नहीं थे। हरियाणा के पोपडा गांव में ब्याही गयी नाबालिग लडकी ने मां-बाप के साथ पुलिस ने दबिश दी थी। घर वालों ने कहा कि हम क्यूं दें। हमने इसका पैसा अदा किया है। सासू तो रोने लगी और कहती है कि हमारा तो एक ही लड़का है और हमने जमीन बेचकर बारह हजार में लड़की खरीदी है। अब तो यही हमारी संपत्ति है। हमने तो इसलिए ब्याहा था कि इससे एक लड़का हो जायेगा, पीढी़ चल पडे़गी। यह हालात अकेले किसी लड़की की नहीं बल्कि मेवात क्षेत्र में ब्याहने वालों की गैंग इतनी सक्रिय है कि वे मीडिया की भनक लगते ही सावधान हो जाते हैं। पुलिस वाले भी इन क्षेत्रों में घुसने से हिचकते हैं। शक्तिशालिनी के निदेशक रविकांत ने बताया कि सिर्फ चुनौती इतनी नहीं है कि उन लड़कियों को चिन्हित किया जाये जो नाबालिग हैं तथा ट्रैफिकिंग के लिए लायी गयी हैं। बडी़ चुनौती है उन्हें मुक्त कराने की है। क्षेत्र की पुलिस भी इस तरह के मामलों को गंभीरता से नहीं लेती जिसका कारण यह भी है कि कई बार तो आरोपी पुलिसवालों का रिश्तेदार निकलाता है। बीते संसद सत्र में महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री रेणुका चौधरी ने ट्रैफिकिंग को लेकर चिंता व्यक्त की थी लेकिन उनकी चिंताएं व्यावहारिक रूप से सामने नहीं आ सकी है। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास के अनुसार आयोग ने ट्रैफिकिंग के आंशिक मामले सामने आये हैं लेकिन ये उतने अधिक नहीं हैं जितना मीडिया में उछाला जा रहा है। हालांकि इस संबंध में जो भी शिकायतें आयोग में आती हैं उनकी जांच करायी जाती हैं।
अजय प्रकाश
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