यह समीक्षा अब से तीन बरस पहले लिखी गयी थी, जब 'संगतिन यात्रा' नई नई प्रकाशित हुई थी। इसे लिखे जाने का उद्देश्य तो था कि इसे इसके लेखिका समूह को भेजा जाए और उस निमित्त इसे दिया भी गया था परन्तु न जाने क्यों और कैसे यह उन तक नहीं पहुंची.......। इसके उत्तर का मौन ही दरअसल इसका जवाब है.....क्योंकि ये मौन भी वहीं से आया है जिनके खिलाफ़ एक मुहिम के तौर पर सामने आयी है 'संगतिन यात्रा ' ।
'संगतिन यात्रा ' के आने के बाद क्या हुआ ये तो अगर ऋचा सिंह खुद बताएं तो बेहतर होगा। हमें उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा......; देखने, पढने के बाद हमें कैसा लगा अभी यहां बस इतना ही......।
'संगतिन यात्रा' में एक क़दम साथ साथ........
गैर सरकारी संगठनों के साथ काम करने की शुरूआत एक्सीडेंटल ही थी। न जाने क्या ढूंढते-भटकते हुए कभी अचानक इस दुनिया से रू -ब-रू हुई थी। तब तक संगठनों, समाज सेवा और प्रतिरोध विरोध को व्यवसाय समझना नहीं सीख सकी थी (आज सीख्ा, समझ और स्वीकार कर पायी हूं, यह भी पूर्ण विश्वास से नहीं कह सकती)। दुनिया में किसी के कुछ काम आ सकूं, बस इतना ही सपना था।........पर जब से इस दुनिया से परिचय हुआ , आंखें कई बार अचम्भे से फैलती रहीं-' क्या ऐसा भी होता है' , शायद यह एक अव्यावहारिकता ही कही जाएगी दुनिया में और समय से बहुत पीछे होना.......पर सच यही है। एन.जी.ओ. की दुनिया को जब से जानना समझना शुरू किया....... क़लम बहुत मचलती थी और आक्रोश बहुत उद्वेलित करता था कि कुछ कहूं पर अंधेरे में कुछ भी न कहने की फितरत हमेशा इंतज़ार करने के लिए रोक लेती। यह दीगर बात है कि वे सारी उम्मीदें, जिन्हें समाज सेवा के बदलते प्रत्यय ने तोड़ दिया, मन को हमेशा मथती रहीं।
समता और समानता के लिए लड़ाई करने का दावा करने वालों के दोमुहेंपन से उपजे आक्रोश को अभिव्यक्ति का रास्ता दिया इस 'संगतिन यात्रा' ने। हर दो पृष्ठ पढ़ने के बाद बेचैनी इतनी बढ जाती थी कि अगला पृष्ठ पढने के लिए बैठे रहना संभव नहीं हो पाता। फिर भी इसे दो दिन में ख़त्म कर दिया। ऋचा सिंह और ऋचा नागर से मेरा सीधा कोई परिचय नहीं। संस्थाओं के कार्यों और लेखन के संदर्भ में दूसरे लोगों से मिलते हुए उन्हें देखा और जाना है। आज शायद उनके चेहरे भी नहीं याद हैं मुझे।.....पर संगतिन यात्रा की इन सात पथिक लेखिकाओं को, जिन्होंने अपने मन की गांठें यहां खोली हैं और व्यवस्था के स्वरूप पर कुछ मूल प्रश्न उठाए हैं, कई चेहरों के साथ, कई चेहरों में बार-बार उन्हें देखा है, जाना है, समझा है। हर चेहरे में बोलने की, कहने की आकुलता लिए खामोशी का जबरन साधती वो बार-बार दिखी हैं, हर कहीं.......।
अपने सच को बेधड़क, बेखौफ कह जाने, स्वीकार कर लेने का साहस ज़मीन से जुड़े उन लोगों में ही है जो असली लड़ाई लड़ते हैं लेकिन पर्दे पर कभी नहीं आते, बुर्ज पर कभी नहीं सजते, भीड़ में सबसे पीछे चलते हैं गुमनाम से। ये वही लोग हैं जो हालांकि सारी लड़ाई का नेतृत्व खुद करते हैं पर 'नेता' किसी और को बना देते हैं आखिरी पंक्ति में खड़े होकर। ऋचा सिंह की उलझन भी वही है जो पिछले कई बरसों से मेरी है......पर वह क्या मजबूरी है कि हम अब भी यहीं हैं.....यह अस्तित्व की तलाश है या रोज़ी की ....अथवा रोज़ी के, आत्मनिर्भरता के बहाने अपनी पहचान, अपनी अस्मिता की तलाश।
चीज़ें उतनी सुन्दर, सहज और निश्छल नहीं हैं जितनी कि बाहर से लगती हैं। ऋचा सिंह ने अपनी क़लम से (संगतिन यात्रा; पृष्ठ 8-10) जो कुछ भी कहा है, वह बेहद कड़वा सच है और विडम्बना भी कि मुक्ति की, समता और समानता की लड़ाई, श्रम की पहचान और उसके अधिकार की लड़ाई ऐसे लोगों के हाथ में है जो वैचारिक और कार्य स्तर पर शोषण, गैर बराबरी और भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे वो कीटाणु हैं जिनका ज़हर पूरे आंदोलन को न सिर्फ कमज़ोर कर रहा है बल्कि उसकी शक्ल भी बदलता जा रहा है। ऋचा सिंह ने जिस बात को इतने क्षोभ और दु:ख के साथ्ा किसी क्षेत्र विशेष के बारे में इतनी विनम्रता से कहा है उसे नग्न और वीभत्स शब्दों में कुछ यों कहा जा सकता है कि ये सब बाज़ार का खेल है और ये सारे तथाकथित समाजसेवी उन्हीं मुरदारों के हाथों की कठपुतलियां हैं जिन्होंने स्त्री की मुक्ति, समता और समानता की जायज़ लड़ाई को चंद सिक्कों में तौल दिया है।........ और ये ऐसी कठपुतलियां हैं जो उनकी लय ताल को इतनी निपुणता से सीख चुकी हैं कि अब ख़ुद ही उस पर नाचने-नचाने लगी हैं। ये एक ऐसी पौध को तैयार करते जा रहे हैं जो समता, समानता और मुक्ति की लड़ाई में एक शोषण का बाज़ार चलाने में दक्ष होती जा रही हैं।
'संगतिन यात्रा' पर कुछ समीक्षकों, लेखकों व संपादकों से भी चर्चा हुई। इसे देखने का उनका नज़रिया बहुआयामी है और उनकी आलोचना शायद व्यक्तिगत जानकारियों और अनुभवों से प्रेरित। पर सच यह है कि स्त्री जीवन के इस पूरे यात्रा वृतान्त को सिर्फ पथिकों के नज़रिये से देखा जाना चाहिए, पथिकों के कथाकारों के नज़रिये से नहीं। एन.जी.ओ. कार्य प्रणाली/व्यवस्था के सकारात्मक व नकारात्मक परिणामों (वैसे नकारात्मक कम ही मिलेंगे क्योंकि दानदाताओं को उनके धन का पूर्ण सदुपयोग और अपेक्षित सुखद परिणामों की रपट प्रस्तुत करना इनकी कार्य व्यवस्था की एक रणनीति है) के दस्तावेजों की भीड़ में यह एक ऐसा दस्तावेज है जो इस सारे हंगामे की पोल पूरी निर्ममता से खोलता है। तमाम फंडिंग एजेंसियों, दानदाताओं की नीतियों, उद्देश्यों, उसके अमल की असली तस्वीर सामने रखता है।
नारी विमर्श की इस पूरी यात्रा में यह एक ऐसा दस्तावेज है जो आंदोलन के खोखले होते जाने को रेखांकित करता है और नारी विमर्श के महान् अध्येताओं और चिंतकों के गहन गंभीर सूत्र वाक्यों को बहुत पीछे छोड़ देता है। सतह पर जिस नारी विमर्श की जागीरदारी को लेकर इतनी कलह मची हुई है, उस नारी विमर्श की असली नायिकाएं इस सारी लड़ाई व इसके चिंतन को खारिज करती हुई उन्हें भौंचक छोड़ेंगी, यह दावा है। बशर्त्ते इसे तमाम साहित्यिक व आंदोलनात्मक मानकों के निकष पर न कसा जाए। अगर इसे बिना किसी विचार मंथन के सहजता के साथ ग्रहण किया जाए तो कितनी ही कथा पात्रों की वास्तविकता यहां दिखाई पड़ जाएगी।
बचपन, कैशोर्य, विवाह, मातृत्व और फिर स्वायत्तता और आत्मनिर्भरता का संघर्ष......संगतिन यात्रा का एक-एक पृष्ठ एक मुद्दा और हर अभिव्यक्ति एक नया सच.....उन सारे सत्यों को परास्त करता, नकारता हुआ, जिन्हें अब तक सामने नहीं रखा गया। यह शोषितों की इतिहास रचना का महत् क्षण है। भविष्य वर्तमान के अतीत होने पर अतीत के दोनों सत्यों को समान रूप से देखकर नयी संतुलित दुनिया रचने का बीड़ा उठा सके, यह उसकी शुरूआत है।
पल्लवी, शिखा, मधुलिका, चांदनी, संध्या, राधा, गरिमा.... बचपन से लेकर जीवन के जिस मोड़ पर वे खड़ी हैं उस तक के सारे सफर के वे सारे लम्हे......सुख्ा के, दु:ख के, खुशी के, अवसाद के...। पर पूरी पुस्तक टटोलें तो खुशी और सुख के इने गिने लम्हे ही दिखाई पड़ेंगे। बचपन आंसुओं से सराबोर, उपेक्षा की आंधी से जूझता हुआ....कैशोर्य विचारों, भावनाओं, गतिशीलता पर पहरे और पाबन्दी लगाता हुआ, जवानी ससुराल और परिवार की जिम्मेदारियों को ढोते हुए। समाज और समय के बंधन के अंधड़ का शिकार सबसे पहले वही शख़्स होता है जो संसाधनों से महरूम होता है, गरीबी से जकड़ा होता है। इन सात कथाओं की व्यथा उनकी डायरी से उद्धृत किए गए अंशों से और तीव्रता से छलक आती है जो शब्दश: वैसे ही रख दिए गए हैं। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते' की अवधारणा यहीं खण्ड खण्ड होती दिखाई पड़ती है। पितृसत्ता का दंभी वर्चस्व वैसे भी स्त्रियों की मुखरता और आत्मविश्वास को स्वीकार नहीं कर पाता। खामोशी से मुस्कराकर बात को तरे डाल देने वाली स्त्रियां/लड़कियां ही उन्हें भली लगती हैं ( अपने जीवन में तो उन्हें गाय ही चाहिए, जिसके मुहं में जुबान न हो और सींगों से वे उन्हें साध सकें) फिर ऐसे में जीवन के तमाम संघर्षों, द्वन्द्वों को शब्द देने वाली इन महिलाओं को क्या सहना पड़ा और क्या सहना पड़ेगा, अकल्पनीय है।
ताज्जुब की बात है कि ये अनुदानदाता एजेंसियां जिनके विकास और मुक्ति के नाम पर अनुदान देती हैं, उन्हीं की असुविधाओं, दिक्कतों, परेशानियों का उनके सामने खुलासा नहीं होता और ना ही उनकी उपलब्धियों व परिश्रम का श्रेय उन्हें दिया जाता है। पूरी चेन में वही सबसे नीचे हैं जो नींव के पत्थर की तरह काम कर रहे होते हैं पर उनके महत्व और बलिदान से नावाकिफ हैं वो जो उन्हें बुर्ज के सौन्दर्य का सा सम्मान देना चाहते हैं। आज नींव के पत्थर जब अपनी बोली बानी में खुद ही बोल उठे हैं अकुलाकर तो उसे हर छल बल-कपट , रीति, नीति से परे सिर्फ सच के नज़रिये से देखा जाना चाहिए। मुक्ति के संघर्ष में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को समझना और स्वीकार करना चाहिए। शायद यही मुक्ति के संघर्ष में मील का पत्थर साबित हो। ......और शायद यही हो मुक्ति के संघर्ष का प्रस्थान बिन्दु।
पुस्तक का नाम : संगतिन यात्रा
प्रकाशक : संगतिन
अनुजा
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