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बुधवार, 22 अगस्त 2012

हर बार
हारने का शाप
मुझे ही क्‍यों देती है
मां गांधारी.....
मैं
जो हर बार
रचता हूं एक नई गीता
बनाता हूं
एक नया अर्जुन....
करता हूं
पांचजन्‍य का उद्घोष.....
कहता हूं
लड़़ने के लिए स्थितप्रज्ञ हो.....
आज मैं क्‍यों कमज़ोर पड़ता जा रहा हूं.....
क्‍यों खींचते हैं
आज मेरे हाथों को
गोपिकाओं के आंचल.....
क्‍यों बुलाती है
राधा की
रंगीली बांसुरी....
क्‍यों अकुलाती है
यशोदा की ममता....
क्‍यों.....।

अनुजा
26.12.1996

क्‍यों.....

क्‍यों चाहते हो
कि
सरक जाए
मेरे
मोहासक्‍त हाथ से
कर्त्‍तव्‍य का गांडीव.....
क्‍यों चाहते होकि

रचना हो एक बार फिर
किसी गीता की....
जीवन के इस महाभारत में......
अनुजा
26.02.96


मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

चल हंसा......

जब उनके पास नहीं था कोई रूप रंग....
कोई आकार....
कोई चेहरा....
कोई पहचान....
उन्‍होंने चुना एक माली को.....
एक कुम्‍हार को.....
एक दर्जी़ को...
एक मिस्‍त्री को.....
एक कामगार को....
एक बुद्धिजीवी को.....
एक मां को....
एक औरत को....
एक टीचर को.....
एक निर्माता को....
रोका एक राही को.....
स्‍वागत किया सबका....

आज...
जब तैयार हो गया है उनका घर....
हो चुका है रंग रोगन....
आ चुका है दुनिया की नज़र में....
वो नहीं चाहते
कि वहां रूके एक पल भी वो....
उन्‍होंने तय कर दी हैं....
उनकी दिशाएं...
उनकी सीमाएं....
उनकी जि़म्‍मेदारियां....
उनकी भूमिकाएं....
उनका लक्ष्‍य.....

खींच दी है
एक लक्ष्‍मणरेखा....
ख़त्‍म करने को तैयार हैं उनका अस्तित्‍व....
ताबूत में बस आखिरी कील जड़नी बाक़ी है....

न जाने वो पल कौन सा होगा.....
किस झोंके के साथ आएगा.....
कहां ले जाएगा.....

कुछ भी नहीं पता....
बस दूर तक फैले सन्‍नाटे में....
उड़ती हुई रेत में....
फैली...बिखरी..धंसी....उभरी...हुई चट्टानों में...

सूखते पत्‍तों के कांपते हुए होठों को
पैरों से चूमते हुए.....
रौंदते हुए रेत के ढेर को.....

जाना है कहीं दूर....
किसी दिशा में....
तैयार है.... सब कुछ....

चल हंसा....
उस देस, जहां.....
उड़ते हों बादल....

खिलती हो धूप....
बहते हों झर झर झरने....

नाचती हो जीवन की उमंग....
बचपन का भोलापन.....
चल हंसा....!

-अनुजा
10.04.12

बुधवार, 11 जनवरी 2012


जब
खुद को भगतसिंह
का अनुयायी मानने वाले

सोने लगें
पलकों की छांव में....
छुपने लगें
ज़ुल्फों के घेरे में....
ढूंढने लगें
मोहब्बत की गोद.....

तब
सही ही है भगत
तुम्हें सिर्फ एक
याद
करार देना

और
तुम्हें भूल जाना.....
याद करना
23 मार्च के .......!

अनुजा
Friday, April 1, 2011

संबंध...

संबंधों को
तोड् देते हैं
कितनी निर्ममता से.......
या
बनने ही नहीं देते......
या
बनते हुए संबंध को ठहरा देते हैं
कुछ संकोच..
कोई हिचक..
कुछ झूठ..
कुछ अभिमान..
कुछ अहं..
कुछ आक्रोश..
कुछ पूर्वाग्रह..
कुछ दुख..
कुछ भय..
कुछ निराशाएं..
कुछ अविश्‍वास..
कुछ आहत मन..
और
बस एक पहल का इंतजार
ही होती है
इन संबंधों की परिभाषा
और नियति........!

अनुजा

नए बरस का पहला दिन.....

तेज बारिश..
छत से अविरल बहती पानी की धार...
बिजली से आहत हो
बंद हुई ब्रॉडकास्टिंग को फिर से शुरू करने की जद्दोजहद
घर का हुलिया दुरूस्‍त करते हुए
झूमती हवा की ताल पर
लहराती डालियों से आंखें चार करते हुए गुज़रा सारा दिन....
टिप् टिप् कर टपकते शुभकामना संदेश
पंख होते तो उड़ आती रे की धुन पर
शुभकामनाओं के ढेर पर बैठे...
बिजली पर झुंझलाते और
मस्‍त आसमान से साफ होने की गुज़‍ारिश के बीच
बीता साल का यह पहला खूबसूरत दिन....

मौका मिलते ही आए कहने के लिए......
वही हर बार का एक रटा रटाया संदेश
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ.......

नववर्ष मंगलमय हो
कल्‍याण, स्‍वास्‍थ्‍य और समृद्धि से भरपूर हो....
ठंड से इस बरस न मरे कोई
प्रकृति इस बार रहे मेहरबान
दु:ख और सुख में हो संतुलन...
भर जाएं सब ज़ख्‍़म जो चुभते हों.....

नियति की बदल जाए ताल...

तुम्‍हारे लिए
अंजुरी में भर जाए धूप और चांदनी...

भरपूर...

इस बरस....
2012 में .....

शनिवार, 31 दिसंबर 2011

नए बरस में

पेड़ों ने बदल लिया रंग
और सूरज ने पैंतरा.....
टिमटिमाता रहा बस के शीशे प अनमना सा
मठमैली सी शांति के बीच
फूलों की घाटी में अचानक उठी एक हिलोर
आसमान कड़कने और बरसने लगा....

जाते हुए बरस की लौटती हुई शाम
खुले आसमान के नीचे खड़ी हुई भीगती रही
उम्‍मीद में सांझ के तारे की
जिसके ताप से परस जाएगा रोम रोम
ठिठुरन से मिलेगी राहत...

राहत की रात के सिरहाने से गिर पड़ा तकिया
टंक गया पूरबिया आसमान पर...
धुंधले दुशाले पर सुबह ने लिखी इबारत
बीत गयी दु:ख की सुहानी रात
ईश्‍वर सो गया सुख से फैलाए पांव
दरवाजे पर थाप दी धूप ने
छम से कूद कर
खींच दी एक सुनहली लकीर आंगन में
दौड़ कर फैल गयी मां के चौके तक....

द्वार पर टेरते भिखारी के कटोरे में खनके कुछ सिक्‍के उम्‍मीद के
छाने लगी गुनगुनी धूप
लड़कियों के ठंड में ठिठुरने के अंत की हो रही है शुरूआत...
इस नए बरस में.....।

अनुजा
31.12.11
फोटो : अनंत अग्रवाल

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

तुम्‍हारे जाने के बाद.....

उस छत पर
जिसके एक कमरे में
रहा करते थे तुम...
अब धूप
सूनेपन के साथ
करती है चहलकदमी ...
एकदम गुमसुम और खामोश
रहती है वो छत....
सर्दी की गुनगुनी दोपहरों....
गर्मी की सुरमई धुंधलाती शामों में
बारिश की गुनगुनाती
छप्‍पकछैय्या के बीच भी
कोई आहट... कोई उमंग....
कोई पुकार....
नहीं आती उसमें से....।

न खामोश सूखते कपड़ों में
कोई रंग छलकता है तुम्‍हारा....
न चटाई पर सजी महफिलों में
दिखाई पड़ती है कोई थाली तुम्‍हारी
मुंडेर पर रखा लैपटॉप....
न नेटवर्क से जद्दोजहद करता डाटाकार्ड..
न 'का बा ?' के साथ
मोबाइल कान पर लगाए
मां की रूआंसी आवाज़ पर.....
उदास होते मन की
धुंधलाती लहरियां
अब खड़काती हैं मेरी सांकल....।

तुम्‍हारे जाने के बाद
धुंधलाई सुरमई शाम में
अब बंद रहता है मेरे कमरे का द्वार
किसी भी आहट के लिए.....।

अनुजा
17.12.11


शनिवार, 19 नवंबर 2011

तुम और मैं

एक मौन.....मेरे तुम्हारे बीच....एक डोर
मेरे तुम्हारे बीच में....

सफर
तुम्‍हारे साथ
तुम्‍हारे बिन.....


छीजती खामोशी ...
दरकती दीवार....
तुम और मैं .....
बस तुम और मैं....
अपने साथ.....।


अनुजा
19.11.11

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

उसके बाद


जिनको दीमक चाट चुकी है क्‍यों पलटूं अब वो तस्‍वीरें ।
जिनका कोई ख्‍़वाब नहीं है लाऊं कहां से वो ताबीरें।।

लाल दुपट्टा नीला कुर्ता मोती वाली लंबी माला।
उसके जाते ही लोगों ने बांटी उसकी सब जागीरें।।

जो थे उसको जान से प्‍यारे जिन पर नाम लिखा था उसका ।
उनके काम न आयीं कुछ तो फेंकी सारी वो तहरीरें।।

अब तो कोई कै़द नहीं है अब आज़ाद फि़जां में घूमो
खुद अपने हाथों से उसने तोड़ी थीं सारी जंजीरें।।

अब कैसे चुप हो बैठा है जाने क्‍या मौसम आया है ।
खामोशी में ही डूबी हैं उसकी सारी वो तकरीरें।।

अनुजा
1997

सोमवार, 14 नवंबर 2011

जब पैरों के नीचे
जलती है ज़मीन
और
सिर पर
आग उगलता है आसमान ,
तब
आता है समझ में
जीवन
का सही मतलब...!
तुम्‍हें क्‍या पता
कि
चिलचिलाती हुई ज़मीन
कैसे अपनी लपटें पहुंचाती है
जूतों के पार
मेरे तलवों तक.... !
तुम्‍हें क्‍या पता
कि
जि़न्‍दगी कितने इम्तिहान ले सकती है
इंसान के....
तुम्‍हें क्‍या पता
कि
किस चांदनी के लिए
सह रहे हैं पांव
अभी भी धूप की तपन को..... !

अनुजा
21.09. 96

नींव के पत्‍थर हैं हम....

नींव के पत्‍थर हैं हम.... !
हक़ नहीं है हमें
बुर्ज की सुन्‍दरता में शामिल होने का....!
मंजि़लों की राज‍नीति में कहीं भी फिट नहीं होते हैं
हम से कुरूप बदनुमां पत्‍थर...
जो
नींव की मज़बूती के लिए
खामोशी से स्‍वीकार करते हैं
मृत्‍यु का अंधकार......!

अनुजा
19.09.96

रविवार, 13 नवंबर 2011

कविता, रचना या रचनाधर्मिता किसी की जागीर नहीं है.... न ही प्रकृति के नियम में वह किसी एक विशिष्‍ट समय, व्‍यक्ति अथवा विचारधारा की बंदिनी है...

क्लिक: आर. सुन्‍दर


समय और समाज के साथ
हो या न हो....
अपने साथ है जो
वही कविता है.....
हूं...या नहीं हूं....के द्वन्‍द्व से पर
अपने होने या नहीं होने के बीच
सरकती है जो
वही कविता है....
समय की ताल पर धड़कती है तो
ख़त्‍म हो जाती है समय के साथ वह
पर जब धड़कती है तुम्‍हारे सीने में
तो वह कविता है.....
तुम्‍हारे खोने या मेरे बिछुड़ने में.....
तुम्‍हारे हंसने या मेरे रोने में......
तड़तड़ाती बारिश की मोटी-मोटी बूंदों में.....
टहनियों की सरसराती गुफ्तगू में....
मज़दूर की कुदाल या किसान के हंसिये में......
कहीं भी
जो मिलाती है तुम्‍हारी धड़कन से ताल .....
वही कविता है.....
तेजी से भागते ट्रैफिक, बस में बजते फूहड़ गीतों
या प्रदूषण की दम घोंटती गंध के बीच
हवा के बसंती मस्‍त झोंके में
छूकर गुज़र जाती है जो मन
वही कविता है......
मेरे दोस्‍त, तुम्‍हारी नज़र के मापक की
मोहताज नहीं है जो.....
वही कविता है ....
मेरे दोस्‍त.....,
वही कविता है......!

अनुजा
11.02.06

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

प्‍यार पर.....


प्‍यार-

शायद
वे बोल सकें
प्‍यार पर....
जिन्‍हें
मिला हो
प्‍यार...
बदले में प्‍यार के...
छल नहीं...
अस्‍वीकृति नहीं...
जिनके लिए
दु:ख रहा हो
प्‍यार का खो जाना...
प्‍यार का
आना नहीं.... ।


प्‍यार-2


जि़न्‍दगी
की तपती दोपहरों में....
जिन्‍होंने
पाया हो प्‍यार का अमलतास....
महसूस किया हो
प्‍यार का गुलमोहर...
शायद
वे
बात कर सकें प्‍यार पर....
बुढ़ापे की
झुर्रियों के बीच भी
ढुलक आए
एक
आंसू से....।


प्‍यार-3

रजनीगंधा
की तरह....
गंधमय कर गयी हो
कभी
स्‍वीकृति
अपने प्‍यार की....
शायद
वे कह सकें....
कुछ
प्‍यार पर....
चांदी के तारों के पार
झांककर
अतीत में.....
खंगाल सकें
कहीं किसी
विवशता में
बिछुड़ गए
प्‍यार की खटमिट्ठी यादों को....
मुस्‍कराती
सुबहों को....
छलक पड़ती
दोपहरों को.....।


प्यार-4

वे क्‍या कहेंगे
प्‍यार पर....
जिनको
कभी
दुलराया न हो
मीठी थपकियों ने....
झुलाया न हो
दो बाहों ने.....
छल
रौंद कर चला गया हो
जिनका
प्‍यार....
बिंध कर मर गया हो
जिनका
एहसास.....
वे क्‍या कहेंगे
प्‍यार पर....।


प्यार-5

वे क्‍या कहेंगे
प्‍यार पर....
जिनके
प्‍यार की
टूटी हुई आत्‍मा
आहत उमंगों.....
पथराए सपनों...
बिखरी हुई
उम्‍मीदों के
पत्‍तों की खरकन के बीच
अब भी
किसी अंधे कुएं में
लटकी...
मुक्ति के
दुर्लभ क्षणों की
प्रतीक्षा में हो.....
वे
क्‍या कहेंगे प्‍यार पर....।


अनुजा
2002

रविवार, 18 सितंबर 2011

खोल दी हैं मुट्ठियां....

खोल दी हैं मुट्ठियां....
ले जाओ
जो
मिले जिसको....
जिसको....
मुट्ठी भर
पूस की धूप.....
अंजुरी भर शरद की चांदनी...
आंख भर
गुलमोहर से सपने....

खोल दी हैं मुट्ठियां....
छीन लो जिसको
मिले जो...
और
सजा लो अपनी महत्‍वाकांक्षाओं का आकाश....।


कामनाओं की
धुंधलाती दोपहर से...
चुक चुकी
मुसकान के
नीरव आकाश तक ....
तय करते हुए सफर
थक गए हैं पांव....
अब
तुम क्‍या...
अब तो
मैं भी नहीं हूं....
कहीं दूर तक
अपने लिए...
खो दिया है
अपनापन
कड़वी सच्‍चाइयों के
चुभते बबूलों के बीच....
अब
शेष नहीं है
कहीं कोई कामना...
नई कोई इच्‍छा...
पुराना
कोई सपना....।

अनुजा
12/11/1998

शनिवार, 17 सितंबर 2011

उसके लिए...

उसके लिए वो एक पल था....
तुम्‍हारे लिए शायद पूरी उम्र का एक सवाल...
तुम आज भी वहीं हो....
हर लम्‍हा....
तलाशते हुए जवाब...
कभी मुखर...
कभी मौन....
वो लौट गया है
अपनी अमराइयों में....
शायद पूरी निश्चिंतता के साथ....।

अनुजा

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

बूढ़े क्‍यों हो जाते हैं वसंत.....?

एक एहसास है...
एक आहट सी....
मन में.....
वसन्‍त तो कभी भी आ सकता है.....!
कुछ वसंत
मन को इतना जकड़ क्‍यों देते हैं.....
कि
किसी भी पलाश के लिए जगह ही नहीं बचती.... !

झरती रहती हैं पत्तियां जब ...
खिलता रहता है अमलतास....
जेठ की
तमतमाती धूप में भी....
फिर भी
ठिठक जाता है वसंत....
दहलीज के उस पार.....

कुछ वसंत
मन को इतना जकड़ क्‍यों देते हैं....

ढलता नहीं
रूक जाता है....
ठहर जाता है....
कहीं
रिश्‍तों के बीच....
कोई कोना वसंत का....
क़ैद हो जाता है
एक चौखट में....
मन की तो उम्र नहीं होती....
पर
रिश्‍तों की होती है....

जीने के लिए
छोड़ दिए जाते हैं वसंत पीछे.....
उम्र के साथ बढ़ते नहीं.....
ठिठके हुए वसंत.....
पर ठहर जाते हैं कहीं किसी मोड़ पर.....
रूककर चलते हुए.....
उम्र के साथ बढ़ते नहीं.....
फिर
बूढ़े क्‍यों हो जाते हैं वसंत....?
अनुजा
26.09.2010
फोटो: अनुजा

सोमवार, 12 सितंबर 2011

वो लड़की.....

कभी सोचो
उस
लड़की के बारे में
जि़न्‍दगी में
जिसकी आते हैं तमाम
संघर्ष
बाधाएं
ढेरों उलझनें...
अस्‍थायित्‍व की लड़खड़ाहट...
स्‍थायित्‍व के सारे
प्रयास
परिवार और समाज की बंदिशें....
पर
कभी नहीं दिखते
जिसे
विन्‍ध्‍य और सतपुड़ा के जंगल....
कनेर के
पीले खुश्‍बूदार रंग....
अपने सौन्‍दर्य के
सारे उत्‍ताप के साथ......।
नहीं होती
जो
वेरा, वनलता सेन सी...
नहीं होता कोई दांते...
नहीं आता
नीले आसमान का शोख नीलापन
जिसके पास रहता है
अनन्‍त शून्‍य ....
खालीपन.... ।
नहीं आता
जिसके पास
प्‍यार.........।
अनुजा
18.11.1999
-आलोक की कविताओं से गुज़रते हुए

रविवार, 11 सितंबर 2011

सवाल.........।

सवाल
आहत करते हैं हमें......

कभी-कभी
चीर भी देते हैं भीतर तक......
शायद
भयाक्रान्‍त भी करते हैं

सवाल...
और
कुछ उत्‍तर भी....
तो
क्‍या सवालों के मुहं पर
जड़ देना चा‍हिए
ताला......?????????

-अनुजा
15.07.1999

रविवार, 28 अगस्त 2011

लौटा लाओ.......

माथे पर
तुम्‍हारा एक चुंबन...
अश्‍वत्‍थामा के रिसते ज़ख्‍़म पर
मरहम...
फिक्र के दो शब्‍द...
अपना ध्‍यान रखो.....
सुकून का एक झोंका.....
बाहों का एक आश्रय....
गले से लगी हुई
आत्‍मीयता.....
एक बार
फिर लौटा लाओ
वो कुछ
बीते पल .......!
अनुजा
02.08.11