शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

कुछ कविताएं

दीवारें 


दीवारों के सिर्फ  कान नहीं होते....
ज़बान भी होती है....
सन्नाटे को तोड़ती है...
खुसुर पुसुर करती है...!

चौंक जाती हैं दीवारें सन्नाटे में
चूल्हा जला लेती हैं...
दाल खदबदाने लगती है...!

उसकी खदबदाहट से 
गूंजने लगता है सन्नाटा...
दीवारों की ज़बान चलने लगती है.....


बतियाने लगती हैं  वो
आपस में....
तुम्हारे मेरे मौन के बीच....


दीवारों  के सिर्फ  कान ही नही होते...
ज़बान भी होती है.....!


2. 

जीवन

जीवन जैसा है
इच्छाएं भी वैसी ही होनी चाहिए...
जीवन ऐसा
और 
इच्छाएं वैसी क्यों हों....
इतने द्वंद्व की ज़रूरत क्या थी...!

 

जीवन देना था वही...
जिसकी इच्छा देनी हो.....
इच्छा देनी थी वही....
जैसा दिया था जीवन.....
 
नमक तो नमक
पानी तो पानी.....
नमक को पानी 
और 
पानी को नमक में 
बदलने की कवायद
बेमतलब क्यों.....
होती किसी आज़ादी के लिए
तो ठीक थी....!

 

किसी के स्वरूप को 
बेवजह बदलना....
क्यों बदलना....
बलिदान नहीं....
शोषण है....!


3. 

मैं

मैं पेड़ थी...
किसी जंगल की....
मुझे आंगन क्यों दे दिया....!
 
केवल आंगन नहीं....
आंगन के भीतर कोई एक कमरा....
अंधियारा....
जहां न है 
नीलाकाश....
न बरसता है सावन....
न कुहुकता है कोई पंछी....
 
शाखें सूनी हैं....
कोई घोंसला नहीं है 
यहां मेरी किसी शाख पर....

 

यहां मेरी कोई शाख ही नहीं....
कोई छांव ही नहीं..... 

मैं लहर थी...
मुझे लपट क्यों बना दिया....!

बहाना था किसी झरने के साथ....
नदी की क्रोड़ में
जिसमें डोलती एक नाव....
लहरातीं उर्मियां....
और...
टकराकर भागती चली जातीं
शिलाओं के पार.....
निर्विरोध....
निर्बाध....
निरंतर....

बांधा क्यों कोई बांध...
मेरे सीने पर....!


अनुजा 

संडे नवजीवन में प्रकाशित 

रविवार, 14 अगस्त 2022

कौन आज़ाद हुआ.....किसके माथे की सियाही छूटी.....!


पिछले दो दिनों से अक्सर दिन ढले रात को बाहर से लौटना होता है.....शहर के एक सिरे से दूसरे सिरे के बीच में बसा शहर दुल्हन की तरह सजा है...! रौशनी और रंगों से सराबोर है शहर...! तिरंगों की दुकानें सजी हैं....! शहर के दिल हज़रतगंज में मोती महल और राॅयल कैफे के बाहर लोग खाने पीने और आनंद लेने में मस्त हैं....! यकीनन कुछ ऐसा ही नज़ारा होगा शहर के दूसरे हिस्सों में जो घूमने फिरने और खाने के लिए बने हैं....ऐसी कल्पना कर लेती हूं। गोमती रंगों से लबरेज़ है....! पर लालबाग अमीनाबाद और मौलवीगंज, यहियागंज, रकाबगंज, नादान महल रोड के छोटे दुकानदारों की दुकानों के बंद हो जाने के बाद सड़क पर अंधेरा है। ऐसे ही शहर के और दूसरे इलाके होंगे, जहां छोटे दुकानदार हैं....और जो दिन में रौनकों से भरे रहते हैं...पर दुकानें बंद होने के बाद ये इलाके अंधेरे में डूब जाते हैं....! यहां रौशनी की कोई समंदर नहीं है...! रौशनी नए लखनऊ, नई इमारतों, बड़े शोरूम्स, माॅल, पार्कों में जगमगा रही है....पर छोटे गरीबों और मध्यमवर्गीय इलाकों में अंधेरों का वही रंग बदस्तूर जारी है। मध्यमवर्गीय घरों में वोल्टेज की समस्या है....बिजली के आने न आने की समस्या है...बिजली चोरों की कारस्तानियां अभी भी जारी हैं....ईमानदार उमस और गर्मी में झूल रहे हैं.....ऐसा और भी बहुत से शहरों में भी होगा....मैं यक़ीन से कह सकती हूं.....पर हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। 

अच्छी बात है कि हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं....! सरकार और सहयोगियों ने उसके जश्न में कोई कमी नहीं रहने दी है....! अच्छा लगता है....पर मुन्नू और मिश्रा जी, गुप्ता जी, अग्रवाल जी, पाल जी वगैरा-वगैरा के घर में अभी भी बदहाली ही है....! कुछ महंगाई से....कुछ गरीबी से....कुछ बेरोज़गारी से....तंगहाल परिवार में रानों की अम्मा अभी भी मार ही खा रही है....!  क्या ही अच्छा होता कि रौशनी से शहर को सराबोर करने में मदद करने वाले मददगारों के घर और मन, जीवन भी रौशन होते...! हर हाथ के पास काम होता....हर आंगन में खुशियां होती....!

लीजिए, हम कह ही रहे थे और ट्रांसफार्मर भड़ से उड़ गया....! अब हम भी अंधेरे में बैठ रौशनी की दुहाई दे रहे हैं....! बिजली वालों को फोन किया जाएगा....वो आते-आते आएंगे....बमुश्किल बिजली ठीक होगी और तब तक हम मौसम की उमस का मज़ा लेंगे । 

आज़ादी के 75 बरस का हासिल कुछ भी नहीं है....ऐसा नहीं कहा जा सकता...! जितनी सरकारें आईं...सबने कुछ न कुछ किया....! वैचारिक मतभेद चाहे जितना हो सबने कुछ न कुछ किया ही देश और देशवासियों को विकास की ओर ले जाने के लिए....! तब ही हम आज मोबाइल और इंटरनेट के युग में हैं....तब ही पुरानी और नई पीढ़ी में ढेरों मतभेद हैं...हवा नई है...! मंहगाई का रोना हर बार की तरह वही है....! यह तो होता ही है...दस बरस बाद पीढ़ी बदल जाती है...बहुत कुछ पीछे छूट जाता है, बहुत कुछ आगे आ जाता है....पर कुछ ऐसा है...जो कभी नहीं बदलता...अलग-अलग शक्लों में सब कहीं आज भी वैसा ही है।

हर कोई अपनी सोच, समझ और विचारधारा के अनुरूप चीज़ें ठीक करने की कोशिश करता रहा, करीं भी ! ....किसी की मंशा पर शक नहीं किया जा सकता । पर फिर क्या है कि अभी भी रानो की अम्मा मार खाती है....इंद्र को मटकी से पानी पीने के लिए मार दिया जाता है....निर्भयाएं बलात्कार का दंश सहती हैं...मर भी जाती है..., कुछ मन से, कुछ तन से भी....., कितने युवा, प्रौढ़ बेरोज़गार हैं.....भिखारियों की संख्या बढ़ती जाती है.....प्रकृति के आवरण में छेद बढ़ता ही जाता है....पड़ोसी की छत पर लगे तिरंगे को बंदर नोच फाड़ जाता है....! ये किसका स्वार्थ है....हमारा, सरकार का, या राजनीति का.....! 

तो आज़ादी के इस अमृत महोत्सव को किसके लिए मनाया जा रहा है, कौन मना रहा है....? क्या वो, जिनके लिए महोत्सव और उत्सव का मतलब केवल महंगे बाज़ारों में अपनी कारों में घूमना, खाना पीना फिल्म देखना भर है...., या उनके लिए जो यह तय करते हैं कि लाल सिंह चड्ढा देखी जाएगी, कश्मीर फाइल्स देखी जाएगी या नहीं देखी जाएगी....! 

किसी ने कहा, यदि हमें अंदाज़ा होता कि आज़ादी के लिए लड़ने वालों ने क्या प्रताड़नाएं, और क्या अत्याचार झेला है तो हम निश्चय ही आज़ादी के जश्न में शामिल होेते......! तो क्या माना जाए कि जो इस उत्सव में शामिल हो छुट्टियों का मज़ा ले रहे हैं, उनको इसका अंदाज़ा है कि आज़ाद भारत का दिन दिखाने के लिए हमारे पूर्वजों ने क्या सहा है? मुझे नहीं लगता कि ऐसा है । आज़ादी  का पर्व हो या कोई सांस्कृतिक पर्व....कामगारों के लिए वह एक छुट्टी का दिन होता है...आगे पीछे छुट्टियां हैं तो घर वापस जाने का मौका....बाहर घूमने का मौका....या फिर होटलों और बाज़ारों की आय बढ़ाने का मौका....! 75 बरसों में ही आज़ादी के उत्सव के मायने बदल चुके हैं। 

अच्छा लगता है देखकर कि सरकार ने आह्वान किया कि हर घर तिरंगा हो....सरकार और उनके नुमाइंदों ने रौशनी की चादर फैला दी चारों तरफ...! देश ने साथ भी दिया....! पर क्या युवाओं को शांति, प्रेम और न्याय का वह संदेश मिला है...जिसकी बेहद ज़रूरत है....! क्या हम पूरी तरह भयमुक्त और लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं? क्या देश की आज़ादी का अमृत महोत्सव प्रकृति की सुरक्षा संरक्षा का संदेश दे पाया है....? हमारे युवा जिनके हाथों में इसे आगे ले जाने की बागडोर है क्या मनुष्य बन पाए हैं....क्या प्रकृति का हिस्सा बन पाए हैं....? या इस उत्सव के बाद हम फिर वापस उसी उपभोक्तावाद में डूब जाने वाले हैं....? या क्या हम आज भी उपभोक्तावाद की छत्रछाया में आज़ादी का अमृत महोत्सव नहीं मना रहे हैं....यह विचार करने की बात है.....! नहीं, मुझे आज़ादी के महोत्सव में उत्सव और आनंद मनाने से कोई गुरेज नहीं है....! पर इसमें जो पीछे छूट गए हैं.....उनको साथ लाने की दरकार ज़रूर है.....! यह आज़ादी का अमृत महोत्सव तब ही पूरी तरह से जगमगाएगा....जब बहुत से छूट गए मूलभूत प्रश्नों का हल खोज लिया जाएगा....!  


अनुजा

बुधवार, 3 अगस्त 2022

अकेलापन !

 लिखने के बाद उनको पढ़ने के लिए भेजी थी....

अचानक पता चला कि पत्रिका में प्रकाशन के लिए चयनित हो गई है.....वास्तविक रचना वही जिसे पाठक चुन ले.... जो किसी को इस तरह छू जाए कि वह उस पर अपना अधिकार समझ ले..... आभार कि रचना आपको छू सकी... लिखना सार्थक होता है  यदि वह किसी एक को भी बाँध सके.... 


गहरे अकेलेपन के बीच में
बहुत फँसा होना क्या होता है...
उस व्यक्ति से पूछो....
जिसके आस-पास बहुत लोग हों....
और 
वह नितांत अकेला हो.....
अपने विचार में....
अपने ख्याल में....
अपनी ज़रूरत में....
अपनी अनुभूति में....
जो मिलना चाहता हो किसी से....
किसी ऐसे से 
जो 
सुन सके उसे....
बिना किसी निर्णय के....
बिना किसी विचार के....
बिना किसी पूर्वाग्रह के....
सिर्फ 
सुनने के लिए....
जो
समझ सके उसे...
उसकी स्थितियों को....
उसके फँसेपन को....
उसके न समझ में आने को....
और 
मुक्त कर सके उसको....
उसके फँसेपन से....
गज-ग्राह की तरह....
बिना
उसे छुए....
स्पर्श किए....
किसी जादुई शक्ति से....!

अनुजा

उत्तर प्रदेश पत्रिका में  प्रकाशित..


शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

ओ ज्योतिर्मय....!



 गहरी उदासी को लिखना खिलखिलाहट.....

उज्जाड़ बंजर को पुकारना हरीतिमा....

सूखे सावन में गुनगुनाना बारिश....

गहरी डगमगहाट को दिखाना ध्रुवतारा....

भूख को कहना रोटी....

जगराते को नींद...

मृत्यु में रचना जीवन...

पतझड़ को पहना देना वसंत...

शोर को बनाना संगीत....

नफरत को करना प्यार...

और जब कुछ भी न बचे उम्मीद भर

गहरी निराशा पर भरना उजली उड़ान...

न रहे कोई जब साथ...

उत्सवमय रखना एकांत

किरणों के माथे जब झूमे मद्धिम अंधियाला

उज्ज्वल श्वासों में भरना आकाश...

रुकना मत...

बदले में देते रहना उच्छ्वास....


अनुजा

कविता विहान में प्रकाशित

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

मौसम.....

बादल तो आते हैं...
झूमते हैं, लहराते हैं....
सूने से आँगन में उम्मीदें जगाते हैं....

बूँदों की रुनझुन 
पर मुश्किल से आती है...
पोर भर धरती भीग भी नहीं पाती...
बारिश बस अपने घर लौट जाती है...

बारिश...!
जो लाती थी मौसम की खुनक...
मेंहदी की महक...
मिट्टी की गमक....

नाराज़ है इन दिनों...
गुस्से में कहीं टूट पड़ती है....
गुस्से में कहीं रूठ पड़ती है....

हरियाले जंगलों पर
बिछ गया एक सिलेटी चादर...
कुछ रंग-बिरंगे बेल-बूटे....
बेसबब आँखों के लिए....
और 
बँधी हुई साँसें
शीशे के दरिया में...

हम तो मौसम हैं...
हमें मालूम है....
कैसे हुआ काला
हमारे नीले आसमान का शफ़्फ़ाक सीना...
किसने डाला डाका 
हमारे रंगों पर ...

हमारी रुत चुराकार....
किसने भर दिए हैं रंग 
प्लास्टिक पेंटों में....
बर्फीले पहाड़ों के सीने पर किसने छोड़ीं
कांक्रीट के जंगलों की निशानियाँ....

तुमने कर ली मनमानी
नोच लिए रंग...
लूट लिया हमें....
जागी तो तृष्णा...
जीता तो रुक्का...

मर गयीं साँसें...
जीते रहे
तुम...!


अनुजा

कविता विहान में प्रकाशित


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