गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

मौसम.....

बादल तो आते हैं...
झूमते हैं, लहराते हैं....
सूने से आँगन में उम्मीदें जगाते हैं....

बूँदों की रुनझुन 
पर मुश्किल से आती है...
पोर भर धरती भीग भी नहीं पाती...
बारिश बस अपने घर लौट जाती है...

बारिश...!
जो लाती थी मौसम की खुनक...
मेंहदी की महक...
मिट्टी की गमक....

नाराज़ है इन दिनों...
गुस्से में कहीं टूट पड़ती है....
गुस्से में कहीं रूठ पड़ती है....

हरियाले जंगलों पर
बिछ गया एक सिलेटी चादर...
कुछ रंग-बिरंगे बेल-बूटे....
बेसबब आँखों के लिए....
और 
बँधी हुई साँसें
शीशे के दरिया में...

हम तो मौसम हैं...
हमें मालूम है....
कैसे हुआ काला
हमारे नीले आसमान का शफ़्फ़ाक सीना...
किसने डाला डाका 
हमारे रंगों पर ...

हमारी रुत चुराकार....
किसने भर दिए हैं रंग 
प्लास्टिक पेंटों में....
बर्फीले पहाड़ों के सीने पर किसने छोड़ीं
कांक्रीट के जंगलों की निशानियाँ....

तुमने कर ली मनमानी
नोच लिए रंग...
लूट लिया हमें....
जागी तो तृष्णा...
जीता तो रुक्का...

मर गयीं साँसें...
जीते रहे
तुम...!


अनुजा

कविता विहान में प्रकाशित


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