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सोमवार, 15 अगस्त 2011

हरसिंगार

हर सुबह देखती हूँ
ज़मीन पर बिखरे हरसिंगार........

और
सोचती हूं
सुख इतना क्षणिक क्‍यों होता है
……?
खूबसूरत सुबहों का ये बिछोह
……!
और कोई नहीं,

कि रूक कर देखे या पूछे
……
अपनी शाख से बिछुड़कर कैसा लगता है तुम्‍हें
.....?
अद्भुत
है……
लाल सूरज और सफेद चांद का ये साथ
…….
उगते सूरज ढलते चांद का ये खुशनुमा साथ
मिलना और बिछुड़ना एक साथ
नए सफ़र के लिए…..
मगर ये है……!यही है हरसिंगार……!
रात भर जो रहता है किसी शाख का मेहमान…..!
और
हर सुबह बिछुड़ जाता है….!
हर नन्‍हा फूल अकेला…..
अपने आप में, सबके साथ होकर भी……
आईने के सौ टुकड़े करके हमने देखे हैं की तरह……!
मत उदास हो….!
लौट जाओ जीवन की हरारत में..... हमारी रात की सुबह अभी नहीं हुई है ....!हमें तो चलना है पिछली सुबह की याद के साथ......!तुम्‍हारी आंच मुझ तक आती है .....और तुम्हारी बारिश भी भिगोती है मुझे....!मगर हम सब अपनी जगह पर जमे बोनसाई हैं....अपनी दहलीजों में क़ैद.....!
हमारे सिर्फ शब्‍द पहुंचते हैं कानों तक .....
और शायद कभी ख़ामोशी भी......!आंखों तक उंगलियां नहीं जा पातीं.......!
कभी ख़ामोशी को बहते और बोलते हुए सुनो....!
वहां है कुछ...तुम्‍हारे लिए.....
जीवन की तरह.......
बरगद की तरह........
ओस की ठंडक की तरह ....
अपनेपन की तरह......
लौट जाओ जीवन की गर्माहट में.......
सब हैं वहां तुम्‍हारे लिए.....
जिनकी ज़रूरत है तुमको.....!
अनुजा

ओ आकाश......

तुम्‍हारे लिए
सहेजे मैंने हर बार.....
कुछ चुने हुए शब्‍द
मन की दुखती हुई तहों से निकालकर
रूई के गालों से.......
तुम्‍हें हर बार याद किया
अपने अकेलेपन......
और
दुख की सरसराहटों के बीच
स्‍त्री मुक्ति के हर संघर्ष से परे
तुमको देखा सिर्फ प्रेम के लिए
प्रेम......
जिससे उपजती है करूणा......
पर उसी करूणा ने
बांध दिया मेरा मन
फिर एक बार तुम्‍हारे साथ.......
और
जैसा कि तुमने हमेशा किया
रौंद दिया अपने संवेदनशून्‍य कदमों से........
मेरे प्रेम को.......
मेरी करूणा को.......
अब भी गूंज रही है
मेरे दुख में तुम्‍हारी उल्‍लास से भरी हुई हंसी
जिसमें कहीं आहट भी नहीं है कदमों के तले
चरमराते सूखे पत्‍तों से मेरे प्रेम की......
जिसमें कहीं नहीं वो कुछ भी
जो था.......
जो धड़कने लगा था.....
बहने लगा था......
बसने लगा था.......
मैं फिर हूं श्‍मशान में......
चिता की लपटों के बीच.......!

मैं फिर कह रही हूं
ओ आकाश!
क्षमा करो मुझे
मेरे प्रेम के लिए.......!

अनुजा


शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2007

मैं कहूंगी अपने नज़रिये से...

क्‍या सच में मैं विचारशून्‍य थी....
कि सिर्फ तुम्‍हारे दर्प,
तुम्‍हारी असुरक्षा के भय ने बनाया
मुझे अज्ञात विचारशून्‍य...
जिसका सारा चिन्‍तन
बस चूल्‍हे की आंच को धीमा तेज करने
स्‍वादिष्‍ट पकवान बनाने...
अचार पापड़ बड़ी रचने....
तुम्‍हारे बिस्‍तर की शोभा बनने...
तुम्‍हारी चरित्रवान पुत्री से
तुम्‍हारी प्रिया..
तुम्‍हारी सुशील कुशल बहू बने रहने....
तुम्‍हारे बच्‍चों की अच्‍छी मां बनने के
प्रयासों तक सीमित रहा
कभी इंसान होने तक का रास्‍ता ढ़ूढने का मन भी किया
तो तुम्‍हारे अहं की आंच में झुलस गए मेरे पांव...
कभी मन की बात को शब्‍द देने का प्रयास किया
तो तुम्‍हारे उपहास और उपेक्षा ने मौन का ताला लगा दिया....
तुम्‍हारे संसार में मैं मौन और तुम्‍हारे तथाकथित वंश में
मैं अज्ञात और अदृश्‍य ही रही...
तुम्‍हारी पहचान तो तुम्‍हारे जन्‍म से ही शुरू हो गयी...
हर बरस तुम्‍हारे जन्‍मदिन की धूमधाम उसे और प्रगाढ़ करती गयी....
हर उपलब्धि उसे और निखारती गयी
और मैं हर बरस अपने चुपचाप सरक जाने वाले
अज्ञात मौन से जन्‍मदिन को अपने विचारों में संजोती गयी
सपनों की तरह....
एक दिन मैंने देखी तुम्‍हारी वंशबेल की कहानी......
और पाया
कि तुम्‍हारी वंशबेल जो मुझसे फल फूल रही थी...
जिसके लिए हर बार मैं सहती थी
त्रासद यंत्रणा....
नौ महीनों का बोझ....
और जन्‍म देने की पीडा....
तुम्‍हारी उस वंशबेल के इतिहास में मैं तो बिन्‍दु भर भी नहीं थी....
थे तो केवल तुम.....
मैं अज्ञात और अदृश्‍य थी.....



पर आज..
आज तो सारा आसमान है मेरा....
आज तुम्‍हारी दी हुई विचारशून्‍य अज्ञात की पहचान को
मैंने तुम्‍हारी दहलीज के भीतर छोडकर
आसमान में पसार लिए हैं पंख...
अब तुम्‍हारी वंशबेल के इतिहास की पहचान की मोहताज नहीं है
मेरी उडा़न....
अंतरिक्ष्‍ा में खोल दिए हैं मैंने अपने पंख.....
अब दिशाओं का ज्ञान और उनका चयन मेरा हक़ है....
अब मैं मौन अज्ञात विचारशून्‍य नहीं हूं
कि मर जाएं मेरे सब विचार मेरे ही मन में....
बह जाएं हर बार मेरे उत्‍सर्जन की प्रक्रिया के साथ
रं‍गीन कपडों के साथ कूडे़ के ढेर में...
और बस यूं ही खत्‍म हो जाए मेरी कहानी
अज्ञात विचारशून्‍य
एक दिन रंगीन या सफेद कपड़ों के साथ
चिता में....।


अब
मेरे पास आवाज़ भी है
और पंख भी
अब तो तुम न मेरी उड़ान रोक सकते हो
न विचार.....
तब से लेकर अब तक...
अपनी से लेकर तुम्‍हारी तक सब कहानी...
अब मैं कहूंगी अपने नज़रिये से......।

बुधवार, 10 अक्तूबर 2007

मैंने कहा......

मैं इश्‍क़ हूं.....
मैंने कहा-
वे खुश हो गए
कि
मैं उनके साथ हूं.....
मैं आंदोलन हूं....
मैंने घोषणा की...
उन्‍होंने बाहें फैला दीं
कि
मैं उनके साथ हूं....
मैं बेटी और बहू हूं....
मैंने नज़र झुका ली....
उन्‍होंने संतोष की सांस ली
कि
मैं सही रास्‍ते पर हूं....
मैं पंछी हूं...
मैंने उड़ान भरी......
उन्‍होंने मेरे आसमान पर मंडराना शुरू कर दिया
कि
मैं उनकी पहुंच में हूं.....
मैं आज़ादी हूं.....
उन्‍होंने मेरा बिस्‍तर देखा....
कि
मैं उनकी आगोश में हूं....
मैं स्‍त्री हूं.....
उन्‍होंने आह्वान किया
कि
वे पुजारी हैं.....
मैं इंसान हूं....
मैंने उद्घोष किया
वे सब सिमट गए......।

अनुजा