सहेजे मैंने हर बार.....
कुछ चुने हुए शब्द
मन की दुखती हुई तहों से निकालकर
रूई के गालों से.......
तुम्हें हर बार याद किया
अपने अकेलेपन......
और
दुख की सरसराहटों के बीच
स्त्री मुक्ति के हर संघर्ष से परे
तुमको देखा सिर्फ प्रेम के लिए
प्रेम......
जिससे उपजती है करूणा......पर उसी करूणा ने
बांध दिया मेरा मन
फिर एक बार तुम्हारे साथ.......
और
जैसा कि तुमने हमेशा किया
रौंद दिया अपने संवेदनशून्य कदमों से........
मेरे प्रेम को.......
मेरी करूणा को.......
अब भी गूंज रही है
मेरे दुख में तुम्हारी उल्लास से भरी हुई हंसी
जिसमें कहीं आहट भी नहीं है कदमों के तले
चरमराते सूखे पत्तों से मेरे प्रेम की......
जिसमें कहीं नहीं वो कुछ भी
जो था.......
जो धड़कने लगा था.....
बहने लगा था......
बसने लगा था.......
मैं फिर हूं श्मशान में......
चिता की लपटों के बीच.......!
मैं फिर कह रही हूं
ओ आकाश!
क्षमा करो मुझे
मेरे प्रेम के लिए.......!
अनुजा
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