गुरुवार, 16 मई 2019

खुल गओ बुन्देलखण्ड रेडियो, सुन लो भइया कान लगाय...


वसंत आता है तो बुन्देलखण्ड याद आता है। जून की भीगती सूखती गर्मी और दिसम्बर जनवरी के धुंधले झरते दिनों के बाद रंग बिरंगा हो उठता है बुन्देलखण्ड अपने पूरे सौन्दर्य के उत्ताप के साथ। ऐसे ही नहीं चन्देलों बुन्देलों ने बनाया होगा इसे अपना आशियाना...! पलाश के नीरस पेड़ों पर काली कलियों की लटें बिखरने लगती हैं, सरसों की पियरायेपन में झूमते बुन्देलखण्ड में चारों तरफ नारंगी लाल दीप जल जाते हैं...यह फागुन का महीना होता है...पलाश अपने शबाब पर होता है...और आनन्द अपने चरम पर....!

बुन्देलखण्ड में जाने का मौका मिला मुझे 2008 में...। बावरी सी मैं मना कर आयी थी इस खूबसूरत आमंत्रण को....। दिल्ली की चकाचौंध में जीवन की रहगुजर तलाशते दुर्गन्धित नाले के आस पास खिले जंगली पेड़ पौधों और साउथ दिल्ली की हरियाली सड़कों पर गाड़ियों के धुंए से संघर्ष करते सड़कीले छायादार पेड़ों, छत पर रखे गमलों या सामने के प्लॉट पर गदराये सेमल के बीच में खिले सफेद फूलों को ही अपने प्रकृति प्रेम के लिए लिए पर्याप्त मान समय की शुक्रगुज़ार होती रहती थी, जब बुन्देली धरती ने आवाज़ दी थी।

आवाज़ इतनी गहन अपनाइयत से भरी हुई थी कि न चाहते हुए भी खींच ही ले गयी। चार महीने का मन बनाकर गयी थी और मन को वहीं पलाश के जंगलों...जमे पड़े पत्थरों के बीच छोड़ आयी। वजह तो काम ही थी पर यह नहीं पता था तब कि एक सपने को जीने के लिए इस बुन्देली धरती ने आवाज़ दी है....और 23 अक्टूबर, 2008 को यह आवाज़ बुन्देलखण्ड के झांसी ओरछा के 200 गांवों के बीच लहक कर गूंज उठी...और आज भी हूक सी सीने में जज़्ब है.....रेडियो बुन्देलखण्ड ।

समय ने सौभाग्य दिया बुन्देलखण्ड का पहला ‘सामुदायिक रेडियो’ शुरू करने का। न कोई आकार था, न रूप, ना ही कोई समझ, बस एक तलाश थी जो संघर्ष की इस धरती पर कुछ नया शुरू करने का बीड़ा उठा पहुंच गयी....आज कुछ बातें उसी यात्रा की....।

यह सितम्बर का महीना था। झांसी के सूने से, शोर शराबे से दूर, शान्त स्टेशन पर अपनी एक अटैची और कंप्यूटर के साथ मैंने लक्ष्मीबाई के शहर में दस्तक दी। स्टेशन परिसर से बाहर द्वार पर ही मिले- वृन्दावनलाल वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त और केशवदास, हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य क़लमकार,....फिर गांधी की दांडी यात्रा....,फिर बारिश में भीगी हरियाली झांसी...। ओरछा के ताराग्राम तक के सफर में एक खूबसूरत, शान्त और भीगे शहर से मुलाक़ात हुई...ये बुन्देलखण्ड का केन्द्र था। स्वतंत्र बुन्देलखण्ड की राजधानी के तौर पर प्रस्तावित झांसी...। झांसी, जहां पहले स्वतंत्रता आंदोलन की आग प्रदीप्त हुई, आहुति हुई, मरदानी झांसी की रानी की...और गली गली में गूंज उठे सुभद्रा कुमारी चौहान के बुन्देले हरबोलों के ओजस्वी स्वर...।

बुन्देलखण्ड की झांसी से यह पहला परिचय अभिभूत कर देने वाला था। यूं तो कर्वी चित्रकूट और महोबा में भी जाना आना हुआ कई बार काम के सिलसिले में और पथरीले जंगलों के सौंदर्य से सजा बुन्देलखण्ड हमेशा अपनी ओर खींचता रहा...मन्दाकिनी और गोदावरी का पानी बसता रहा अन्तस में...और अन्ततः पहुज और बेतवा के तट पर खींच लाया...। हमेशा से सूखे दीन हीन हुए बुन्देलखण्ड के समृद्ध स्वरूप से यह पहली गहन सी मुलाकात थी....। झांसी से ओरछा के रास्ते में फैले हुए जंगलों ने अपनी आगोश में लिया और ताराग्राम ने बस जकड़ लिया।

मन ही मन धन्यवाद किया ईश्वर का और उस बॉस का, जिसने प्रस्ताव पर ध्यान न दे झांसी जाने का सुझाव रखा। ताराग्राम....! कल्पना थी कि यह कोई गांव है शायद जहां काम करना है....हां, गांव की तर्ज़ पर बना यह दफ़्तर है.... और यहीं शुरू करना था मुझे बुन्देलखण्ड का पहला सामुदायिक रेडियो जिसका मुझे तब तक नाम भी नहीं पता था...कितनी तैयारी है...किसके साथ काम करना है और कैसे करना है...कुछ भी ब्लू प्रिंट नहीं था...न मन में...न निर्देशों में...। कोई नियम नहीं...कोई जानकारी नहीं...पंछी को छोड़ दिया गया था निरभ्र आकाश में उड़ान भरने के लिए....रास्ता तय करने के लिए...और बस यहीं शुरू हुई यात्रा...बुन्देलखण्ड के उस पहले सामुदायिक रेडियो की जिसका नाम बाद में पता चला-रेडियो बुन्देलखण्ड।

ऑफिस के तौर पर एक खाली कमरा, एक स्टूडियो, एडिटिंग टेबल, चार किशोर और एक किशोरी लड़की....और ये पांचों पांडव पास के गांवों से निकल कर आये...बिन्दास ग्रामीण रंग में रचे बसे...पांच दिन के प्रशिक्षण के साथ रेडियो बुन्देलखण्ड की बागडोर संभालने....एक ऑल इन वन साथी संस्था के, और मैं....इन सारे संसाधनों और रेडियो की शुरूआत के बीच था एक महीने का समय....बारिश की टिप टिप और शरद की सुहानी हवाओं के बीच...। निमंत्रण देना था राम राजा को, राजा हरदौल को और दतिया की पीताम्बरा माई को..। ‘किसी भी शुभ काम का निमंत्रण पहले यहां रामराजा, हरदौल और दतिया की पीतांबरा माई को देते हैं। पहले यहीं देना चाहिए मैडम। यहां इनके बिना कोई शुभ काम शुरू नहीं होता,’ समुदाय के साथी बोले और पहले इन विशिष्ट अतिथियों को आमंत्रित किया गया सबसे पहले।

साथी अशोक की चिंता थी कि रेडियो और संगीत का गहन संबंध है। गीतों के बिना रेडियो का क्या मतलब है? गीत थे नहीं और गीत खरीदने के लिए पैसे चाहिए... 30 गीतों का मूल्य 40,000/-, इतने पैसे अनुदानों पर चलने वाली कोई गैर सरकारी संस्था नहीं खर्च कर सकती और यही 30 गीत हमेशा तो रेडियो में नहीं बज सकते...श्रोता बोर हो जाएंगे..! बात सही थी। गीत चाहिए वह भी स्थानीय लोक गीत, जिनमें ऐसे गीत तो नहीं ही थे जो कॉपीराइट की अवधि से मुक्त हों....खोजने का समय भी नहीं था...क्या किया जाए ? मैंने कहा रेडियो से एक आवाज़ दो समुदायों को...। जोशीली नौजवान टीम को आइडिया पसंद आया और दूसरे ही दिन से रेडियो परिसर में उत्सव का माहौल हो गया। ढोलक, हारमोनियम, झांझ, मजीरे के बीच गूंजने लगीं सुमधुर आवाज़ें लोक गायकों की मंडलियों की...‘गई थी कहां धनिया, डारी कितै करधनियां’...‘नारी को तुम खम नहीं समझौ नारी जग उजियारी, अरी ए री...’ ‘नवज्योति को जगा दो ओ वीणावादिनी’....‘सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम्, शस्य श्यामला मातरम्’....मिली जुली संगीत विधाओं, भाषाओं और बोलियों से उर्जस्वित हो उठा रेडियो बुन्देलखण्ड...!


बुन्देलखण्ड के लोक संगीत की समृद्ध परंपरा और लोक कथाओं से यहीं परिचय शुरू हुआ। आल्हा, राई, कजरी, कहरवा, बसंत, दादरा, लमटेरा, गोट, तिलवारा, चैती, दीवारी, फाग और ऐसी ही अनेक लोक, बल्कि ग्रामीण विधाएं, गांव की टूटे फूटे वाद्यों के संग गाने वाले ग्रामीणों के सुरों में लयबद्ध रहती हैं। कबीर परंपरा के गीतों की चेतावनी में, जल, जंगल, ज़मीन को बचाने की कोशिशों के गीत, सब दर्ज होते गए बुन्देली गीत कोश में। बस रेडियो से दी गयी आवाज़ और जिसे खबर मिलती गयी वह मंडली और गायक रेडियो आते गए और बुन्देलखण्ड के इस पहले रेडियो में अपनी समृद्ध परंपराओं और मधुर आवाज का दस्तावेजीकरण करते रहे। ये मंच बना उनका जिनके लिए कोई मंच नहीं था...और एक सफल मंच रहा स्थानीय समुदाय के कलाकारों, प्रतिभाओं और निवासियों के लिए....।

लोकगीतों की इस परंपरा में नए प्रयोग करते हुए रेडियो ने गांव गोहार में ज़रूरी सूचनाओं और संदेशों को भी स्वरबद्ध कर पहुंचाया। मौसमी गीतों के बीच ‘पानी अमृत समान, सबै देत प्रान दान, पानी में कचरा ना डालियो... जंगल के बिरछा न काटियो..’ जैसे गीतों को भी सहेजा और यह समझ हासिल की कि संगीतबद्ध संदेश कैसे आमजन के जे़हन में बस जाता है और अपना स्थायी असर छोड़ जाता है। रेडियो की टीम में बाद में जुड़े कई साथी इन कार्यक्रमों और गीतों से इतने संवेदनशील हो गए कि रोज़मर्रा के ईंधन की ज़रूरतों के लिए पेड़ की टहनियां काटने में भी सकुचाने लगे। राह चलते पानी बहता देख पहले के लापरवाह छोकरे अब नल और पाइप को दुरूस्त करने लगे...! पानी और पेड़ के अभाव का दर्द वैसे तो हर बुन्देलखण्डवासी जानता है पर स्थानीय लोकगीतों, संदेशों और कार्यक्रमों ने उनकी संवेदना को और भी पैना कर दिया।

सामुदायिक रेडियो हालांकि नया प्रयोग नहीं था पर गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा स्थानीय ग्रामीणों के साथ, 10-15 किलोमीटर की रेंज में स्थानीय बोलियों और मुद्दों पर बात करना जैसी कई नयी बातें इसमें एक चुनौती सरीखी थीं और ये सारे प्रयोग किये गए बुन्देलखण्ड में...! पूरे देश भर से सामुदायिक रेडियो की दुनिया में काम करने के इच्छुक और इसके साथ छोटे छोटे प्रयोगों में जुटे लोग, परामर्शदाता सबकी नज़र हमारी ओर थी और संशय के साथ...देखें, क्या होता है...सफल बनाने की ज़िम्मेदारी मिली थी डेवलपमेंट ऑल्टरनेटिव्स और बुन्देलखण्ड को ।...और अन्ततः सबने बुन्देलखण्ड के इस पहले रेडियो की धूम को स्वीकार किया। ऐसे कई साथी, जो रेडियो शुरू करना चाहते थे..उनकी हिम्मत बना ‘रेडियो बुन्देलखण्ड’ और राहबर भी... सम्मानित हुआ बुन्देलखण्ड का पहला सामुदायिक रेडियो प्रथम पुरस्कार से, सांस्कृतिक संरक्षण के लिए... झूम उठा विज्ञान भवन, बुन्देलखण्ड के संगीत के सुरों पर।

केवल लोक संगीत ही नहीं, संस्कृति, इतिहास और लोक कथाओं का भी दस्तावेजीकरण किया गया यहां। हर समुदाय की तरह बुन्देली समुदाय में भी लोक कथाओं और इतिहास की गाथाएं फैली हुई हैं, बुन्देलखण्ड रेडियो में ये अपने मौलिक रूप में दर्ज हैं। आज़ादपुरा गांव, जहां अपने अज्ञातवाद के दौरान चन्द्रशेखर आज़ाद रहते रहे, और जिनके नाम पर उस गांव का नाम बदलकर आज़ादपुरा हो गया। उनकी मड़ैया और मूर्ति वहां आज भी स्थित है। किलों, गढ़ियों, छतरियों और मन्दिरों से समृद्ध बुन्देलखण्ड में पत्थरों की अद्भुत कलाकारियां जो आज भी बुत बना देती हैं, एक एक कर दर्ज की गयीं...कही और सुनाई गयी। जून के महीने में सूखे से जूझते बुन्देलखण्ड के ओरछा में बेतवा पर बना पतला राजसी पुल बारिश के महीनों में नदी के उफान से लोगों को बचाने के लिए बंद हो जाता है। सैलानी और स्थानीय लोगों को सावधान करके बेतवा के दूसरे तटों पर रिवर राफ्टिंग का मज़ा लेने, बर्ड सेंचुरी में दुर्लभ पक्षियों से मुलाकात का पता बताते रेडियो बुन्देलखण्ड की ये आवाज़ पूरे देश की प्रेरणा बनती रही...विदेशियों शोधकर्ताओं और प्रशिक्षकों को भी अचम्भित करती रही इसमें समुदाय की प्रतिभागिता । पत्थरों और पलाशों से समृद्ध यह बुन्देलखण्ड अद्भुत कलाओं का स्वामी भी है और इसकी जिजीविषा दुर्धर्ष। ओरछा, दतिया, टीकमगढ़, गढ़कुण्डार, चंदेरी और झांसी के किलों का अद्भुत वास्तु, मौसम और भौगोलिक आपदाओं से जूझने की तैयारी लोगों को आज भी अचरज में डालती है। खजुराहो की कला मन्त्रमुग्ध करके अचानक ही पूछती है कि कल्पना और कला का संगम करने वाले ये कौन मूर्तिकार हैं ? मानसिंह तोमर के क़िले की ऊंचाई हैरानी में डालती है, कुछ क्षणों के लिए मूक रह जाते हैं..जब कही जाती हैं यहां की कहानियां स्थानीय लोगों के द्वारा...।

वो पांच पांडव जो बुन्देली देहातों से निकलकर आए थे...क्रमशः प्रखर रेडियो रिपोर्टर में बदले...उत्साह इतना कि मानो रेंज में आने वाले गांवों की सारी दुर्व्यवस्थाओं को बदलकर रख देंगे, सारी औरतों की ज़िन्दगी में अब एक नई दुनिया खुल जाएगी...उत्साह ठाठें मारता था..,क्या करें...देहातों में औरतों को घूंघट खोलने की आज़ादी नहीं, फिर चिड़ियों की चहक को मद्धिम हो ही जाएगी...! मेरे लिए यह अनुभव बहुत ही द्वंद्वमय था। एक ओर तो लोक संगीत कह रहा है बिटिया को तुम खम नहीं समझौ, बिटिया जग उजियारी...और एक ओर औरतों से बात करना दुश्वार..! वो कैसे प्रतिभागी बन पाएंगी अपने इस बाजे की, जो दरअसल उनके लिए सूचना और मनोरंजन का एक पिटारा बनकर आया है उनके ही क्षेत्र में...‘स्त्री एक कहानी मेरी भी’...एक पूरी श्रृंखला शुरू की...कहानी एक औरत की...मुद्दे तो बहुत थे अब तक, पर कहानी कहां थी औरत की...ये श्रृंखला औरतों की सादी जीवन गाथा में गुंथी हुई थी, गुड्डे गुड़ियों, बर्तन भांडे, खेत जनावर, रसोई खाना, घूंघट पायल के साथ ही दफ़्न हो चुकी उम्मीदें और सपने भी थे...और असीसें भी...बेटियों के लिए...। औरतों की इस बानी से बनी बात और समझ आया कि आज़ादी और आत्म निर्भरता सभी को चाहिए...औरत को भी...बुन्देलखण्ड की औरत को भी...! शुरूआत  मुश्किल थी...। 

प्राची, हमारी एकमात्र महिला रिपोर्टर रोती हुई लौटी कई बार- ‘दीदी, का करी, कोऊ बोलतै नाईं।’ दुनिया तलाशने निकली लड़की का पराजय बोध...। हाथ में माइक थाम चल पड़ी उसके साथ- चल मैं करती हूं...कुछ कहानियां घर चौबारे में पहुंची और औरतों के फोन आने लगे- ‘हमाई कहानी लई जाओ’..लड़की सीख चुकी थी...औरतें भी सीख चुकी थीं..। आज यह श्रृंखला इसी नाम के साथ देश के शायद कई सामुदायिक रेडियो शुरू कर चुके हैं...औरतों की कहानियां बुन्देलखण्ड से शुरू होकर अब सब कहीं दर्ज हो रही हैं।

यात्रा लगातार बढ़ रही थी और नया कुछ करने की चाहत हिलोरें ले रही थी। उत्साही और सहयोगी टीम हमेशा कुछ नया और रचनात्मक लाती है...रची गयी बुन्देलखण्ड के लोक संगीत की प्रतियोगिता- ‘बुन्देली आइडल’ । किसी भी सामुदायिक रेडियो पर होने वाली यह पहली प्रतियोगिता थी और इस प्रतियोगिता ने बहुत से स्थानीय लोक गायकों को पहचान और काम दिलाया। गरीबी से आहत बुन्देलखण्ड रेडियो क्षेत्र के इन स्थानीय कलाकारों का मूल्य बढ़ गया जब ओरछा राम राजा के मन्दिर में उन्हें विजेता घोषित किया गया। जिनके लिए कोई मंच नहीं था उनके लिए मंच बना रेडियो बुन्देलखण्ड और ओरछा से 100 किमी दूर टीकमगढ़ तक यह धुन पहुंची, कलाकारों को काम मिला और नाम भी....।

यात्रा का दूसरा पड़ा था ‘रूरल रीयलिटी शो’। जलवायु परिवर्तन के सताए हुए बुन्देलखण्ड में यह भी पहली शुरूआत थी। दुनिया के किसी भी रेडियो पर ऐसा ‘शो’ पहली बार हुआ और बुन्देलखण्ड के किसानों, जिसमें औरतें भी थीं और युवा भी, ने इसमें भाग लिया और जीत हासिल की। अपनी मिट्टी को उर्जस्वित करने, अपने सूखे घरों में पानी बचाने और अन्य भी अनेक स्थानीय परंपराओं का विज्ञान और तकनीक के साथ सामंजस्यपूर्ण प्रयोग करने और उसे अन्य लोगों तक बांटने के लिए पुरस्कृत हुए बुन्देलखण्ड के युवा और औरतें।

आज चार सामुदायिक रेडियो हैं बुन्देलखण्ड में, जो आठ लाख ग्रामीणों और कस्बाई समुदायों को उनकी स्थानीय बोली में, स्थानीय मुद्दों पर सूचना, जागरूकता और मनोरंजन उपलब्ध करा रहे हैं। सूखे से जूझते बुन्देलखण्ड के सभी सामुदायिक रेडियो बस अपनी जिजीविषा पर काम कर रहे हैं विषम आर्थिक परिस्थितियों में, पर ये बुन्देलखण्ड के अपने हैं। ‘चंदेरी की आवाज़’ बुनकरों का सामुदायिक रेडियो है जो चंदेरी में स्थित है। चंदेरी अपनी अद्भुत बुनाई और सुकोमल साड़ियों व अन्य कपड़ों के लिए प्रसिद्ध है। हर दूसरे घर में आपको ताना बाना मिल जाएगा। दर्शनीय बादल महल के अलावा एशिया को पहला ‘हैण्डलूम पार्क’ यहां बनाया गया है जहां कारीगर अपना काम करके अच्छे पैसे कमा सकते हैं। कबीरी कामगारों को गरीबी से निकालने का यह प्रयास, संभव है इस विश्व प्रसिद्ध कला को जीवित रखने में कामयाब हो सके। ग्वालियर जहां सो रही है मरदानी झांसी की रानी, के शिवपुरी में है ‘रेडियो धड़कन’ और ललितपुर जिसकी ललित छटा से आप सहज मुक्त नहीं हो सकते, वहां ‘ललित लोकवाणी’ अपनी प्रबुद्ध उपस्थिति से समुदाय को समृद्ध कर रहा है। स्थानीय युवाओं, प्रतिभाओं और कलाकारों के लिए एक मंच हैं ये बुन्देलखण्ड के ये सामुदायिक रेडियो। इन रेडियो से जुड़े कितने ही साथी आज अपनी यात्राओं में बहुत आगे निकल चुके हैं। रेडियो बुन्देलखण्ड में काम करने वाले प्रथम पंक्ति के साथियों में से दो राष्ट्रीय रेडियो आकाशवाणी से जुड़े। आज वे नियमित कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता हैं। केवल लड़के ही नहीं लड़कियों को भी यहां अवसर मिले हैं और गांव की गोरियां छोरियां अब बुन्देलखण्ड की सीमाओं से आगे जाकर देश के दूसरे राज्यों में अपनी प्रतिभा के फूल खिला रही हैं...यह इसी मंच से मिली ताक़त है।

कहानी बहुत लंबी है और यात्रा जारी है...। जैसे हर उदय का अवसान अवश्यंभावी है..बुन्देलखण्ड के इस पहले रेडियो में भी एक वक़्त लगा कि यह ख़त्म हो रहा है...पर यह ख़त्म नहीं हुआ क्योंकि आज भी बुन्देलखण्ड के दो लाख ग्रामीणों के मन में यह बजता है...दस साल हो गए हैं यात्रा को...मशाल मेरे हाथ से अब बुन्देली नौजवान पीढ़ी के हाथों में गयी है...और वो संभाल रहे हैं इस विरासत को...। यह जगह है जहां राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से लोग आते हैं, इस पूरी कहानी को सुनते हैं...इसके काम को समझते हैं...सीखते हैं और इस बात पर अचरज करते हैं कि रेडियो भी क्या ऐसी चीज है जिसे सामान्य ग्रामीण चला सकते हैं...? क्या एक बढ़ई, एक किसान, एक रसोई में काम करने वाली औरत, कभी भी घर से बाहर न निकली एक सामान्य ग्रामीण बालिका, एक ठेलेवाला, एक सब्जीवाला....कोई भी चला सकता है...और यह बात बुन्देलखण्ड के इस पहले रेडियो ने साबित की है कि सब कुछ संभव है । आज इस रेडियो के उन पहले पांच और उसके बाद के भी पांच और उसके बाद के भी पांच अपने अपने रास्तों पर आगे बढ़ चुके हैं...देश के दूसरे रेडियो और मीडिया मंचों को संभाल रहे हैं...और अगली कतार में गांवों से निकले नए लोग आ चुके हैं...पर यात्रा अनवरत जारी है...क्योंकि केवल सूखे से कराहता नहीं है बुन्देलखण्ड...गाता भी है...हंसता भी है....रंगमय भी होता है...और हुलसता भी है....जी पर है हमें घमण्ड वो है हमाओ बुन्देलखण्ड और इसी बुन्देलखण्ड के पहले सामुदायिक रेडियो- रेडियो बुन्देलखण्ड की धूम से मदमस्त हैं इसके डेढ़ सौ गांवों की गलियां....! 

अनुजा

(कला वसुधा बुन्देलखण्ड अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

ओ नदी.....


ओ नदी.....
बेचैन आत्‍मा सी भागती कहां जा रही हो....
ये तीव्र आकुलता
और ये पथरीला रास्‍ता....
तुम्‍हारे रेशमी दुपट्टे में लगे हैंं घाव कितने....
पांव आहत हृदय भीगा भग्‍न....
किस ठौर ठहरेगी, रूकेगी....
पांचाली 
तुम्‍हारी बेचैन आत्‍मा....
कब सूखेंगें...
वैदेही
तुम्‍हारे पथराये नयनों के अश्रु....
कहां पूर्ण होगी 
राधिेके 
तुम्‍हारी प्रतीक्षा....
कब तुम्‍हारे कक्ष में लौटेंगे
यशोधरा.....
तुम्‍हारे बुद्ध 
अपने गौतम के साथ..... 
या कि
सदियों तक उड़़ता रहेगा तुम्‍हारा ये रेशमी आंचल
अयोध्‍या की अंगनाई में....
या लखन की निद्रा
लेकर देती ही रहोगी 
उर्मिला
तुुम उन्‍हें जागरण का उपहार.....

ओ नदी.....

अनुजा
13.10.2016

फोटो : साभार: खजान सिंह जी....

रविवार, 10 अप्रैल 2016

सवाल और भी हैं.....

समय की वॉल पर आईना....
देखने का वक्त है यह....

चेतावनियों और चुनौतियों का समय है....
जब क़ीमती है तुम्हािरी बस एक चाल....
तब ख़ामोश बैठने....
परंपराओं के समय के साथ जाने
या
उनको बदलने के लिए ख़ुद को बदलने के समय
चुप बैठने से नहीं चलने वाला काम....

चुप्पी को तोड़ने
झकझोरने के वक्तल...
सही को चुनने की चुनौती भी है.....

पर एक सवाल फिर भी....
विकल्प कहां है....
कौन है....
क्या है....

125 करोड़ लोगों की आबादी के पास
धर्म, जाति, संप्रदाय, लैपटॉप, कंबल, साड़ी, राम मन्दिर

गुजरात, गोधरा, अयोध्याो, रोटी, भूख महंगाई, भ्रष्टाचार की चौसर पर
बंट जाने के अलावा विकल्प, क्याा है......

किसी नए रोडमैप, मंजि़लों और मुद्दों वाला कोई पाइड पाइपर है.....

समय है चेतावनियों और चुनौतियों का....
देश मर रहा है....
राष्ट्रर जल रहा है....

तैयारी है महासमर की....
एक नए महाभारत की....

क्या कोई पाइड पाइपर है......
हाथ में लिए हुए जादुई बांसुरी....
समय और इतिहास की संधि पर प्रतीक्षित
एक नए भविष्य की रचना को तत्पर....

अनुजा
7 अप्रैल, 2014

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

मौसम हुआ अमलताश.....


सुलगती दोपहरों में....
सोने की चमक....
के साथ...
नीले धुले आसमान की छाती पर 
खिल उठा मौसम.....
अमलताश.....अमलताश....
लो, फिर आ गया वसंत.....

अनुजा
10.05.14

सोमवार, 20 अप्रैल 2015

पिता......सब पिताओं के लिए

पिता मेरे
मैं अब तक नहीं समझ पाता हूँ
क्यों टूट जाते हैं तारे अचानक
आकाश गंगा को चमकता हुआ छोड़ कर
क्यों टूटता है वही तारा
जिसके इर्द-गिर्द हम बुन लेते हैं 
कितनी ही कहानियाँ और स्वप्न
उसे हम बरसों ध्रुव तारा समझते रहते हैं
झुलसता रहता है सूर्य किसी दूर के देश में
रात की चादर में सिसकती रहती है धरती
भुतहा-सा चाँद थर्राता है आकाश में
पूरा सौर मंडल चलने लगता है उल्टी गति से
और हम बिलखते हैं पूरी रात
बिना सुबह की प्रतीक्षा किए हुए
तुम्हारे चेहरे पर 
फैला है वही स्मित हास्य
बंद आँखों में 
अब भी मचल रहे होंगे सपने
निराशा और थकन का कोई निशान नहीं
माँ बार बार छू रही है तुम्हारे शरीर को
वह नहीं चाहती ज़मीन पर लेटे हुए
तुम्हें हो कोई पीड़ा
वह जानती है 
रहती है पीड़ा जब तक रहता है शरीर
कितनी देर लगती है उस व्यक्ति के स्नान में
जो नहा लेता था पल भर में
हम उन्हें जल से नहीं 
आँसुओं और स्मृति से नहला रहे हैं
हम उसे ले जा रहे हैं अंतिम यात्रा पर 
जिसने समाप्त करदी अपनी यात्रा
बिना किसी टिकिट कन्फर्मेशन के
किसी हठी यायावर की तरह 
बिना किसी पूर्व सूचना के 
यंत्रवत चल रहा हूँ मैं भी वैसे ही, 
जैसे चलते हैं आकाशगंगा में तारे
कंधे पर तुम्हारा बोझ लिए
पृथ्वी की तरह 
एक ओर थोड़ा-सा झुक गया हूँ 
यह जानते हुए
कि अभी मुझे घूमना होगा इसी सौर मंडल में
न जाने कितने और सौर वर्ष
तुम्हारी टिमटिमाहट के बिना
पिता मेरे
यूँ तो हरदम रहते हो तुम मेरे साथ
चिपके रहते हो मेरी आँखों की कोरों में
पर आज रो लेना चाहता हूँ 
किसी बरसाती नदी की तरह
जो नहीं बह सकती हर वक्त
आज रोना चाहता हूँ 
उन सब पिताओं के लिए 
जो तुम्हारी तरह निकल गए यात्राओं पर
बिना यह सोचे
कि बच्चे धुंधली देख पाते हैं दुनिया
आँखों में आँसू लिए हुए
बिना यह समझे
कि कितनी महसूस होगी तुम्हारी कमी
अपने बच्चों को दुलारते हुए
मैं अब तक नहीं समझ पाया हूँ
क्यों टूट जाते हैं तारे अचानक
आकाश गंगा को चमकता हुआ छोड़ कर
पिता मेरे
तुम क्यों नहीं बने सूर्य
कहते हैं सूर्य भी तो एक तारा ही है।



राजेश्वर वशिष्ठ

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

अकेले आना----------------


अकेले आना----------------
पहले ही पेड़ के नीचे छोड़ देना झोली
दूसरे के नीचे कमंडल रख देना
आगे भी बहुत पेड़ हैं, सामान भी बहुत
कुछ छोड़ देना, कुछ छूट जाएगा
जाने से पहले कहा फकीर ने--जो गया अकेला होकर---।

छोड़ देना पेड़ भी वहीं रास्‍ते पर
पहुंचने तक रखना रास्‍तों को
और साथ लिए हुए मत आना कोई रास्‍ता भी
अक्‍सर ि‍चपक जाते हैं रास्‍ते पैरों से बिना बताए------।

यात्राएं छूट जाती हैं अगर छूट जाए चलने का मोह
छोड़ आना यात्राएं पहले ही पड़ाव पर
पड़ाव पर ठहरे हुए पलों को वहीं से कर देना विदा
जहां पहली बार सोचा तुमने बची हुई यात्रा के बारे मेंं---।

नदी को किनारे पर छोड़ देना
किनारे छोड़ देना नदी के भरोसे
जो किनारों में बहे उसे नहीं होना होता कभी मुक्‍त
मुक्‍त होने की शर्त है किनारे तोड़ देना ----।

चहकते पंछी छोड़ देना, उड़ान भरते उनके पंख आसमान से बंधे हैं
हवाओं में बंधा हुआ है खुला सा दिखता आसमान
हवाओं को रहने देना वहीं, जो बंधी है सांसों में
अपनी सांसें छोड़ आना किसी बंधे हुए जीवन के लिए---।

अकेले का पथ है अकेले आना
अपने को साथ लेकर नहीं हो पाओगे अकेले
सावधान रहना, कामनाओं को छोड़ने का गर्व आ जाता हैे साथ
या कि अकेले के साथ हो लेता भय
अकेले आना---कहा था फकीर ने-- जो अकेला गया इस रास्‍ते से----।

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

ग़ज़ल....


सितारे हों बुलन्दी पर अक्सर यूं भी होता है 
लगी हो आग जब तब भी शरारे बात करते हैं।।

हो उनकी बात का मौसम कि उनकी आंख का जादू 
हमारा क्या अगर हंसकर इशारे बात करते हैं ।।

उफ़क की लाल आंखें हों कि शब का सांवला आंचल
कोर्इ हो वक्‍़त लेकिन ये नज़ारे बात करते हैं।।

हो मौजों की रवानी या भंवर की एक सरगोशी
निकल कर झील से फिर ये शिकारे बात करते हैं।।

लकीरें साथ गर देदें तो साहिल साथ चलता है
घिरा हो लाख तूफां पर किनारे बात करते हैं।।

अनुजा

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

उससे मिलने के बाद...

बरसों के बाद मिली वो एक स्‍त्री....
उससे मिलने के बाद...
(1)
उसने चुना था....
घर......
पति....
बच्‍चे.....
और
एक हरियाली दुनिया....
और
छोड़ी थी उसने
इस संसार के लिए.....
अपनी सबसे खूबसूरत ख्‍वाहिश.....
और
अपने सबसे मीठे और सुरीले गले का साथ.....।
(2)
एक स्‍त्री रम गयी है
जि़न्‍दगी के उस सुहाने सफ़र में.....
जो उसने चुना था
अपने लिए...
ख़ुश है एक स्‍त्री
कि
वह जो चाहती थी
उसने
वो पाया....
खुश है एक स्‍त्री
कि
उसने अपने को खो कर
पाया है
एक सुन्‍दर घर....
प्‍यारे से बच्‍चे....
और
लंबा इंवेस्‍टमेंट प्‍लान....
पोते-पोतियों के साथ खेलने का.....।
खुश है एक स्‍त्री
कि
इसमें कहीं भी नहीं है टकराहट
उसके अस्तित्‍व की.....
नहीं है चुनौती कोई
अपनी अस्मिता को सहेज पाने की.....
खुश है एक स्‍त्री
कि
उसने वो पाया
जो
चुना था उसने अपने लिए.....।

अनुजा
22.09.13

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

वह...

आदमी ने उसे घर दिया...
रहने के लिए...
रसोई दी....
खाना पकाने के लिए...
गुसलखाना दिया
नहाने के लिए....
छत दी...
केशों को सुखाने के लिए...
सोने का कमरा दिया
बिस्‍तर दिया
बच्‍चे दिए....
बिना उससे पूछे..
जि़न्‍दगी दी...
जीने के लिए....
सब कुछ
बिना उससे पूछे....
बिना यह जाने
कि
वह क्‍या चा‍‍हती है...
कैसे चाहती है...
रहना चा‍हती है...
उड़ना चाहती है...
या
सोना चाहती है....
जीना चा‍हती है..
या
मर जाना चाहती है.....।
अनुजा
31.01.14

रविवार, 5 अप्रैल 2015

वैरागी संसारी के डायरी अंश.....




जुदाई का हर निर्णय संपूर्ण और अंतिम होना चाहिए, पीछे छोड़े हुए सब स्‍मृतिचिन्‍हों को मिटा देना चाहिए, और पुलों को नष्‍ट कर देना चाहिए, किसी भ्‍ाी तरह की वापसी को असंभव बनाने के लिए।

हर पीड़ायुक्‍त निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए हमें उसे दैनिक जीवन का स्‍वाभाविक अंग बनाना होगा । तभी हम उसे भूल सकते हैं जिसे हमने खो दिया है।

वह थकान- इसके नीचे लेट जाना चाहिए, इसकी घनी छाया के नीचे जहां विरक्ति की अलमस्‍त लहर घेर लेती है...पीड़ा, इच्‍छा, उम्‍मीद का वह पत्‍ता कहां गया, क्‍या शून्‍यता से टकराकर झर गया...या वह अब भी वहीं है, निश्‍चल, शांत, आंखों से आेझल ?

एक जि़ंदगी जो बीच में कट जाती है अपने में संपूर्ण है । उसके आगे का समय उसके साथ ही मर जाता है, जैसे उम्र की रेखा- वह चाहे कितनी ही लंबी क्‍यों न हो- म़त हथेली पर मुरझाने लगती है । क्‍या रिश्‍तों के साथ भी ऐसा होता है जो बीच में टूट जाते हैं ?  हम विगत के बारे में सोचते हुए पछताते हैं कि उसे बचाया जा सकता था, बिना यह जाने कि स्‍मृतियां उसे बचा नहीं सकती़, जो बीत गया । मरे हुए रिश्‍ते पर उसी तरह रेंगने लगती हैं, जैसे शव पर च्‍यूंटियां । दो चरम बिंदुओं के बीच झूलता हुआ आदमी । क्‍या उन्‍हें  (बिंदुओं का) नाम दिया जा सकता है? दोनों के बीच जो है, वह सत्‍य नहीं पीड़ा है । वह एक अर्धसत्‍य और दूसरे अर्धसत्‍य के बीच पेंडुलम की तरह डोलता है, उन्‍हें संपूर्ण पाने के लिए, लेकिन अपने गति में- जो उसकी आदिम अवस्‍था है- हमे शा अपूर्ण रहता है ।

अब कुछ भी नहीं है, उतना भी नहीं, जिसमें अपने न होने को समर्पित किया जा सकेा जब कुछ भी नहीं रहेगा तो शून्‍यता का स्‍वच्‍छ बोध भी, जो हमेशा भीतर रहता था, हमारा साथ छोड़ देता हैा

लेकिन जब कुछ भ्‍ाी नहीं रहता, तो मैं कुछ भी हो सकता हूं- एक वृक्ष, एक पत्‍ता , एक पत्‍थर। और यह ख्‍ा़याल कि हम 'कुछ नहीं' से भी कम हो सकते है, मृत से अधिक मृत- एक गहरी सांत्‍वना देता है, जैसे बचपन में, बीमारी की रात, मां का हाथ अंधेरे में सहलाता है.....जिस दिन मैं अपने अकेलेपन का सामना कर पाउंगा- बिना किसी आशा के- ठीक तब मेरे लिए आशा होगी कि मैं अकेलेपन को जी सकूं।

-निर्मल वर्मा

रविवार, 8 मार्च 2015

ऐ लड़की.....

अर्चना, नन्दिनी, जया और उन जैसी तमाम स‍ाथियों के लिए....
जिनके जज्‍़बे और साहस को सलाम करता है अासमान...
तुम्‍हारे ही लिए मेरी साथी....


उफ... !
लड़की ने छू लिया अासमान....
अब क्‍या होगा.... !!!!!!

उफ...
ये क्‍या किया तूने ऐ लड़की...
बना ली अपनी छोटी सी दुनिया...
वैसे ही
जैसे तू चाहती थी....।

उफ....
ये क्‍या किया तूने ऐ लड़की....
तय कर लिए रास्‍ते...
अपने पांवों पर...

बिना किसी सहारे के....
पार कर लिए सागर
अकेले ही...
नाप लीं ब्रम्‍हांड की दूरिया...
चौंका दिया हमको...

तू आधी से पूरी बन गयी...
उफ....
ये क्‍या किया तूने ऐ लड़की....

छू लिया आकाश...
बन गयी चिडि़या....
उड़ चली नीले आसमान में...
भर ली पंखों में ढेर सी हवा....
नाप लिया सारा अाकाश....

उफ....
अच्‍छा किया तूने ऐ लड़की....
छू लिया अपना आकाश....
बना ली अपनी दुनिया...
रच लिया अपना संसार...
सुदूर कोने में...
नीले पहाड़ों के बीच...
जहां लहराते हैं झरने....
खिलखिलाता है मौसम....
आते हैं ज़लज़ले....
भेदते हुए हर दीवार....
जीतते हुए हर तूफ़ान...
तूने सजा ली एक छोटी सी दुनिया...

एक बड़े से काम के लिए....

सलाम है तुझे ऐ लड़की.....।

-अनुजा
08.03.2015

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

कुछ तो बताओ मुझे मेरे बारे में.....

जी चाहता है जानने को....
खोते-खोते अपने आपको...
अब
कुछ अपना आप रह ही नहीं गया है....

कुछ तुम
कुछ वह
कुछ सब
कुछ दुनिया
कुछ ग़मे रोज़गार....
कुछ प्रेम प्‍यार.. .
कुछ मौसम की मार...
समय की तक़रार...
कुछ, सब कुछ बेकार....


बस
इतना ही रह गया है....

मैं
खो गयी हूं....

कोई तो हो...
जो ढूंढ लाए मुझे....

कोई तो हो
जो मुझसे मिलाए मुझे....

कोई तो हो....
कोई तो...!!!!!!!


अनुजा

10.02.15

शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

पिता....


गर्म माथे पर रखा हुआ हाथ वो
सर्द कब हो गया कुछ पता न चला...

सब भिगोते रहे आंसुओं से ज़मीं
वो चला कब गया कुछ पता न चला...

एक मुद्दत रहा सायबां की तरह
कब हवा हो गया कुछ पता न चला...

उसकी नाराज़गी को न समझा कोई
क्‍यूं ख़फ़ा हो गया कुछ पता न चला....

उम्र भर तो कोई भी उसे न मिला
सब मिले जब उसे कुछ पता न चला...

अब ये पूछो अगर है कहां आजकल
क्‍या बताएं अभी कुछ पता न चला...

लौट आते हैं अक्‍सर मुसाफि़र सभी
वो कहां रह गया कुछ पता न चला...

उसके चेहरे का कुछ भी नहीं है कहीं
गुम किधर सब हुआ कुछ पता न चला...

अब हिदायत नहीं दे रहा है कोई 
सब धुआं क्‍यों हुआ कुछ पता न चला....

क्‍यूं थी फिक्रों से महरूम ये जि़न्‍दगी
वो चला जब गया ये पता तब चला....

- अनुजा
20.02.1997

सोमवार, 10 मार्च 2014

औरत...

अब कहो...
वो
चरित्रहीन थी...
चरित्र
को जोड़ दो देह से...
बहुत आसान है
औरत को
जोड़ देना चरित्र से...
और
चरित्र को देह से....

अनुजा
28.08.1998
भोर : 5: 00 

औरत...

सारी दुनिया को
अपनी गोद में छिपाए...
रत्‍नगर्भा के हिस्‍से में
नहीं है
कोई अपना आलोक....

अनुजा
03.05.1998

औरत..

सदियों का सफ़र तय करके
धरती अब भी है
अपने उसी बिन्‍दु पर....
जहां
ताप शाप रस के लिए
ताकना पड़ता है
उसे
आसमान का मुहं....

अनुजा
03.05.1998





आधी दुनिया...

जब पूरी दुनिया को बांटे जा रहे थे
चांद ...
सूरज...
सितारे...
पहाड़...
नदियां...
समुद्र...
दरख्‍़त...
आकाश...
रंग...
झरने...
तब भी ढूंढ रही थी आधी दुनिया
अपने अंधेरे उजाले....

अनुजा
03.05.1998


गुरुवार, 6 मार्च 2014

औरतें....

औरतें जायदाद नहीं होतीं...
कि
जितना चाहो उतना फैलें
और जब चाहो
सिमट जाएं....
कि 
उनके रखने, न रखने 
देने या लेने 
उठने-गिरने
बनने-बिगड़ने 
सहेजने या बांटने
जाने या रहने 
पर 
उनकी मर्जी का कोई वश न हो.....

औरतें कमाई नहीं जातीं....
कि 
जैसे चाहो उड़ा लो....

औरतें युद्ध नहीं होतीं
कि 
जीती जाएंगी...
कि 
उनके सपनों का कोई मतलब ही न हो....

औरतें दांव नहीं होतीं
कि 
लगा दो....
और 
भाग्‍य आजमाओ....।

औरतें 
महज़ सम्‍मान नहीं होतीं...
कि बचाने के लिए 
तत्‍पर रहें सदा आप....
उन्‍हें जीने दें ...
जीने की पूरी स्‍वतंत्रता के साथ...
उनकी अपनी अस्मिता के साथ....
उनके पूरे हक़ के साथ...
जिसमें कहीं न हों  आप...
उनके 
मालिक के तौर पर...

औरतें जायदाद नहीं हैं...


औरतें 
वन हैं...
निर्झर हैं...
आकाश हैं....
नदियां हैं...
सूरज हैं...
वृक्ष हैं...
हवा हैं...
पंछी हैं...

औरतें जीती हैं
अपने रंग के साथ...
अपनी पहचान के साथ....


औरतें जायदाद नहीं हैं...
कि 
चाहो तो ज़मीन बना लो...
या 
चाहो तो कैश करा लो...
चाहो तो सोना बना लो...
या
चाहो तो पगड़ी बना लो...

औरतें 
इंसान हैं....
जियेंगी
उनकी अपनी सोच के साथ....।

अनुजा
07.08.1998


शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

कितना अच्छा होता है


कितना अच्‍छा होता है

एक दूसरे को जाने बगैर
पास-पास होना 
और उस संगीत को सुनना 
जो धमनियों में बजता है
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं।

शब्‍दों की खोज शुरू होते ही 
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं ,
और उपके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से 
मछली की तरह फिसल जाते हैं।


हर जानकारी में बहुत गहरे
उब का एक पतला धागा छिपा होता है, 
कुछ भी ठीक से जान लेना 
ख़ुद से दुश्‍मनी ठान लेना है ।


कितना अच्‍छा होता है 
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर 
दूसरे का पा लेना।



सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना



मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

राह चलते लोग क्‍या समझें मेरी मजबूरियां.....

हमसफ़र होता कोई तो बांट लेते दूरियां
राह चलते लोग क्‍या समझें मेरी मजबूरियां।।

मुस्‍कुराते ख्‍़वाब चुनती गुनगुनाती ये नज़र
किस तरह समझे मेरी कि़स्‍मत की नामंजूरियां।।

हादसों की भीड़ है चलता हुआ ये कारवां
जि़न्‍दगी का नाम है लाचारियां मजबूरियां।।

फिर किसी ने आज छेड़ा जि़क्र-ए-मंजि़ल इस तरह
दिल के दामन से लिपटने आ गयीं हैं दूरियां।।


http://www.youtube.com/watch?v=AYP4CHVRAXE


मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

उम्‍मीद का छोर और वसंत____

छोड़ना मत तुम उम्‍मीद...
एक दिन
बादल का एक छोर पकड़कर
वासन्‍ती फूलों की महक में लिपट...
धरती गायेगी
वसन्‍त का गीत....

सब दु:ख...
सारे भय...
सब आतंक...
सारी असफलताएं ......
सारा आक्रोश

पिघलकर बह जाएगा
सूरज के सोने के साथ....

ओढ़ लेंगी सब दिशाएं
गुलाबी बादलों की चूनर....
मौसम गायेगा
रंग के गीत....

और
तुम्‍हारे सर पर होगा
एक सायबान....
पिरियाई सरसों
के बिछौने पर
आसमानी दुपट्टे
को ओढ़
सो जाना तुम अपने
प्रेम की किताब को
रखकर सिरहाने....

कोई पंछी छेड़ देगा
सुरीली लोरी की तान....
बर्फीले पहाड़ों से
आएगी एक परी....
जादू की एक छड़ी के साथ....
श्रम सीकरों का ताप सोख
आंखों में भर देगी कोई एक
मधुर स्‍वप्‍न....

हारना मत तुम....
चलते रहना....
थाम कर उम्‍मीद का छोर....

अनुजा
04.02.14


गुरुवार, 16 जनवरी 2014

स्‍वामी का अधिकार नहीं है तुम्‍हें.....

मेरी इस अस्मिता से सहम क्यों जाते हो तुम
मानव होने के मेरे उद्घोष को
पचा क्यों नहीं पाते तुम
तुम्हें पता है कि
इसके बाद वस्तु नहीं रह जाउंगी मैं
जिसे तुम इस्तेमाल करो और फेंक दो
तुम्हें पता है कि तकिया भर नहीं रह जाउंगी मैं
जिसकी छाती में मुहं छिपाकर रो लो तुम
और फिर लतिया दो
तुम्हें पता है फूल नहीं रह जाउंगी फिर मैं
कि मुझे रसशून्य करके हो जाओ रससिक्‍त तुम
और मुझे रौंद दो
तुम्हें पता है कि तुम्हारे प्रदीप्त अहं की तुष्टि का सामान भर नहीं
रह जाउंगी मैं
जिसके आंसुओं से प्रज्ज्वलित हो सके तुम्हारा दर्प।

तुम भूल गए कि मैं जननी हूं
तुम्हें  मैंने ही जन्म दिया है
मुझे अधिकार का दान देने वाले तुम कौन
याचक नहीं हैं मेरे अधिकार
असिमता सम्मान और उपस्थिति का बोध हैं
तुमने छला मुझे
मेरे ही खिलाफ मेरे लिए तुमने
लक्ष्मण रेखाएं खींचीं
और मुझे जिन्दा झोंक दिया दहकती अग्नि में
अपनी शुचिता और न्याय के नाम पर
तुमने मुझे अशुच और अपराधी साबित किया
तुमने किताबें रची
नियम बनाए
मेरी पहचान को मिटाकर अपनी सत्ता बनायी
और आज तुम
मेरे सृष्टा और नियन्ता होने के गर्व तले
मेरे होने को भी
खत्म करने पर आमादा हो.....

नहीं ये नहीं हो सकता
तुम सहचर हो सकते हो
मित्र हो सकते हो
साथी हो सकते हो
सखा हो सकते हो
आसक्‍त प्रणयी हो सकते हो
आहत प्रेमी हो सकते हो
स्वामी का अधिकार नहीं है तुम्हें...।

- अनुजा
  2007

बुधवार, 15 जनवरी 2014

इंसान हूं मैं....

मैं क्या हूं.....

सूरज की एक किरन
फूल की एक पंखुड़ी
ओस की एक बूंद
हवा में उड़ता कोई आवारा पत्ता
आंधी का एक झोंका
आग की एक लपट
या
जीवन की एक धड़कन
मुझे आज कुछ भी नहीं पता अपना
अपने आप से अनजान मैं
अपनी ही तलाश में हूं इस सफर में

मैं अग्निशिखा अमृता
अब किसी अग्निपरीक्षा के लिए नहीं हूं
मैं न काली हूं
न दुर्गा
न गौरी
न भैरवी
न मैं याज्ञसेनी हूं
न गार्गी मैत्रेयी
न कात्यायनी
मैं इंसान हूं।

-अनुजा
2007


रविवार, 12 जनवरी 2014

तुम्‍हारे लिए....

न.....।
बीते दिनों से लौटने को मत कहो.....
उनकी यादों को संजो लो....
समय ने बहुत सी सीपियां....
सीपियों में मोती
तुम्‍हारे लिये छुपा रखे हैं....
अपनी हथेलियों में.....
उन्‍हें खोजो.....
समेटने को  हथेलियां खोल दो.....।

अनुजा....
12.01.14

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

जब राजेन्‍द्र यादव नहीं होंगे तो....पुरानी बात...अब राजेन्‍द्र यादव नहीं हैं तो....

कुछ बरस पहले......शायद 2005-06 की बात है.... उन दिनों मैं दिल्‍ली में थी, कथाकार विजय के साथ ऐसे ही चर्चा चल रही थी। चर्चा में कहीं राजेन्‍द्र यादव की चर्चा भी आयी...'सारा आकाश' से लेकर 'हासिल' तक की उनकी यात्रा, गाहे ब गाहे उनकी बेलाग टिप्‍पणियां, उनकी मान्‍यताएं, साहित्‍य की राजनीति और साहित्‍य के मठाधीशों पर बात बढ़ती ही गयी। काफी जगहों पर उनकी असहमति थी राजेन्‍द्र जी से...। लखनऊ में कथाक्रम के कई आयोजनों के दौरान उनसे मिलने का मौका भी मिला पर  बातचीत कभी संभव नहीं हुई। ये वो शख्‍स था जो हर जगह मौजूद रहता था....बिना वहां उपस्थित हुए....। ये वो शख्‍़स था जिसकी क़लम की हिमाक़तें हंस की प्रतियों को अग्नि दाह पर मजबूर करती थीं। ये वो शख्‍़स था जो सबसे बुरा था मगर सबसे आत्‍मीय....ये शख्‍़स जब नहीं होगा तो क्‍या होगा....बस इस एक सवाल से इस लेख की शुरूआत हुई थी...पूरा नहीं हो पाया था क्‍योंकि कभी ये कल्‍पना 'तो' के आगे नहीं बढ़ सकी......। लेख को लिखकर विजय जी को दिखाया....वो हंसे और बोले-हंस में भेज दो, राजेन्‍द्र जी खूब हंसेंगे और छाप भी देंगे...। पर कुछ आलस्‍य, कुछ बंजारे जीवन के यथार्थ संघर्ष और कुछ इसे कभी पूरा कर पाने की इच्‍छा में यह अधूरा लेख पड़ा ही रह गया और आज राजेन्‍द्र जी ने अपनी यात्रा ही समाप्‍त कर दी.....। इस बोलते चुप्‍पे उपस्थित अनुपस्थित शख्‍़स की कमी हमेशा रहेगी साहित्‍य में....

यहां प्रस्‍तुत है वही अधूरा पन्‍ना....अपनी खदबदाती भावनाओं और विचारों के साथ.....

'जब राजेन्द्र यादव नहीं होंगे तो क्या होगा? साहित्य जगत में सन्नाटा हो जाएगा।
किसी हद तक तो यह सही ही है क्योंकि राजेन्द्र यादव ही वो व्यकित हैं  जो निरंतर विवादों को खड़ा करते रहते हैं और हमें सोचने को मजबूर करते रहते हैं।

मैं राजेन्द्र जी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानती। उनके संपादक, लेखक, वक्ता और साहित्यकार के तौर पर ही मेरा परिचय होता रहा है। विवादों को खड़ा कर उनके प्रहार झेलने वाले इस शख़्स के बिना साहित्य संसार कितना सूना होगा इसकी कल्पना मुझे आज सिहरा रही है। हालांकि हमारे एक मित्र कहते हैं -'ठीक है जाने दीजिए इन बूढ़े ठूढों को, ये जाएंगे नहीं तो जगह कैसे खाली होगी और हम कहां बैठेंगे ? पर राजेन्द्र यादव के बिना इस साहित्य की दुनिया की कल्पना मुझे सिहरा देती है। दरअसल 70 की उम्र में तो साहित्यकार जवान होता है और ऐसी भरी जवानी में उसे सब कुछ छोड़कर जाना पड़े तो क्या होगा उसका और पीछे वालों का।
काशी का अस्सी के अंश हों या रामशरण जोशी की आत्मकथा! 'मुड़ मुड़ के देखता हूं के बहाने उनकी अपनी पड़ताल हो या उस पर 'प्रति जीवन के प्रहार  अथवा 'तोते की जान में उनकी खूबियों का बखान! राजेन्द्र यादव भीतर से बाहर तक लोगों की विचार चेतना को आलोड़ित करते रहते हैं। आलोचना हो या प्रशंसा.....ताड़ना हो या प्रताड़ना....या उनके लेखन साक्षात्कारों वक्तव्यों को केंद्र बना कर गढ़ी गर्इ गालियां....सबको खुले हृदय व एक प्रफुल्ल हंसी के साथ स्वीकार लेने वाला यह अध्येता पिता... गुरू या साहित्य का मठाधीश या माफिया, जो भी हो...जो भी कहे कोर्इ ....बांहें फैलाए अपने उदार आंगन में सबको सहर्ष स्वीकार करता है।

लखनऊ में आयोजित कथाक्रम हो या दिल्ली की कोर्इ गोष्‍ठी, मुददे या विषय को अगर सिरे से भटकाना हो तो राजेन्द्र यादव को याद कर लीजिए... लेकिन हां अगर किसी बात पर बेबाक बहस करनी हो और वह दलित या स्त्री विमर्श से जुड़ा हुआ कोर्इ मुददा हो तो भी आप उन्हें बेझिझक याद कर सकते हैं। उन दिनों मैं लखनऊ में थी। कथाक्रम के दौरान उन्हें हमेशा दूर से खामोश खड़े होकर देखा....बहुत बार चाहा कि उनका साक्षात्कार करूं... उनसे बात करूं....किंतु हर बार यह प्रखर पुरुष (समस्त उक्त विशेषणों के साथ ) मेरी खामोशी के कुहासे के सामने से चुपचाप निकल गया, दूसरों से बातें करते हुए.... कभी भी मेरे भीतर न यह साहस  उपजा न इतनी तीव्र इच्छा हुर्इ कि जो अन्तत: उनसे मुलाकात को बाध्य करती। यह चाहना कहीं न कहीं स्त्री मुक्ति के प्रति उनके विचारों के कारण शायद मुझे कहीं रोकती रही। हां, उनके विषय में मन्नू जी से खूब खूब चर्चा हुर्इ। उन्होंने हमेशा कहा कि जाओ, राजेन्द्र से जरूर मिलो वे नए लोगों को बहुत प्रोत्साहित करते हैं।पर क्या था.....जिसने मुझे हमेशा उनके पास जाने से मुझे रोका और क्या था जिसने आज मुझे यह लिखने को विवश किया ।
 मीडिया में और सक्रिय साहित्य चर्चाओं का एक अंग बनने के हमारे वे शुरूआती दिन थे। राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह दो बेहद बदनाम, साहित्य के माफिया गुटों की तरह हमसे परिचित हुए। उनकी विद्वत्‍ता  पर चर्चा कम सुनी, सुना तो यह सुना कि वे कितने घुटे हुए हैं। यह सारी बातें कभी रचनात्मक और सकारात्मक धरातल पर सुनी ही नहीं । कभी सोचा ही नहीं कि कि किसी मंच से जिसे दिन में गाली दी जाती है शाम को उसी के साथ दारू पार्टी चलती है। नए नए पंछी हम, हमें पता ही नहीं था कि ऐसा भी होता है। इस दुनिया में कोर्इ पूरी तरह शत्रु या मित्र नहीं होता। गाली के आवरण के पीछे एक बड़ी गहरी यारी होती है। वैचारिक मतभेद और दुश्‍मनी का अंतर यहां ही समझ में आया। राजेन्द्र यादव को लेकर भी कुछ ऐसी ही मान्यताएं प्रचलित कर दी गयीं थीं। सब तरफ से बरसात ही होती थी उन पर।

'सारा आकाश से ' हासिल तक की उनकी साहित्य यात्रा ने मुझे हतप्रभ किया, वहीं 'होना सोना एक दुश्‍मन के साथ और 'मुड़ मुड़ के देखता हूं के कारण उन्हें लेकर मेरे भीतर सदैव एक द्वन्द्व  ही जीता रहा। मैंने कभी उनसे बात नहीं की परन्तु उनके बारे में चर्चा की। वैचारिक स्तर पर कहीं गहरे बहुत असहमत होते हुए भी मैं उनसे कर्इ स्तरों पर पूर्णत: सहमत रही।

आज जब विजय जी से बात करते हुए मैंने उनसे विरोध को मुखरित किया तो उनके इस प्रश्‍न में मुझे भीतर से हिला दिया- जब राजेन्‍द्र जी नहीं होंगे तो साहित्‍य संसार कैसा होगा अनुजा....सन्‍नाटा हो जाएगा साहित्‍य में...।  वैसे लिख तो बहुत से लोग रहे हैं परन्तु साहित्य में हलचल कौन करता है। हंस के स्तर को लेकर गालियां देनी हों, उनकी प्रशंसा करनी हो या हंस की प्रतियां जलानी हो......राजेन्द्र यादव हमेशा दूसरों में ऊर्जा भरते हैं विरोध की। और विरोध की इस चिंगारी को इस कठिन समय में जगाए और जिलाए रखना बहुत ज़रूरी है।

स्त्री प्रश्‍न को लेकर अनेक बिन्दुओं पर मेरा उनसे विरोध रहा है और मौके बे मौके इस बात को मैंने विभिन्‍न जगहों पर रखा भी....इतना कि कुछ लोग मुझसे नाराज़ हो गए और कुछ जो शुभ चिंतक थे चिंतित हो गए....मुझे समझाया  कि मैं ये क्‍या कर रही हूं...मुझे साहित्‍य में अपनी जगह बनानी है या नहीं...मैं राजेन्‍द्र यादव के खि़लाफ़ लिख रही हूं..... लेकिन राजेन्‍द्र जी की क़लम की धार थी जो असहमतियां पैदा करती थी और मेरी क़लम को धार देती थी विरोध की.... पर विरोधी भी हमारे लिए इतना प्रिय, अपना और ज़रूरी होता है यह एहसास मुझे आज सुबह ही हुआ। राजेन्द्र यादव की सक्रियता, उनका दखल, उनकी जिंदादिली है जो शायद उन्हें सबसे बांधती है और यह उनका व्यकितत्व ही है जो विरोधियों को भी इतना प्रिय होता है।
 
और अब आज.....

और आज की सुबह...सुबह-सुबह एक उदासी का झोंका लेकर आयी....फेस बुक से पता चला- साहित्‍य संसार सूना हो गया। राजेन्‍द्र यादव चले गए......। हमेशा की तरह उनके विरोधी और पक्षधर...आज सब फिर एक जगह पर जुटेंगे...उन्‍हें अंतिम विदाई देने के लिए....उनके मौन की टंकार को सुनने के लिए.....उनसे असहमत होते हुए भी सहमत होने के लिए.....।

एक धक्‍का सा लगा है....एक बार मिल न पाने की मजबूरी या असमर्थता, जो भी कहें आज बेहद परेशान कर रही है। ये कभी अनुमान नहीं था कि जिस एक शख्‍़स से मिलने से खुद मेरे भीतर कोई रोकता था मुझे और जिससे मिलने की इतनी प्रबल इच्‍छा थी, वह इस तरह चला जाएगा कि कभी अपने आप से जीत उससे मिल पाने की उम्‍मीद भी ख़त्‍म हो जाएगी....।

आज जब वह चले गए हैं .....‍उन पर बहसों, विचार गोष्ठियों, चर्चाओं का सिलसिला शुरू हो जाएगा....। इस सन्‍नाटे को तोड़ने की कोशिश होगी...कई लोग और निकलकर आएंगे और उनकी तरह दिखने की कोशिश करेंगे पर अपनी संपूर्ण राजनैतिक, सामाजिक, सांस्‍कृतिक वैचारिक चेतना के साथ राजेन्‍द्र यादव अकेले ही रहेंगे....। फेस बुक पर अपडेट जारी हैं , प्रतिक्रियाएं, संवेदनाएं श्रद्धांजलियां जारी हैं, साहित्‍य समूहों में भी उनकी अंतिम विदा के पहले और बाद शुरू हो जाएगा....। हाईजैक करने के ख़तरे और ख़तरों पर चेतावनियां
शुरू हो गयी हैं और चलती रहेंगी...पर हंस में उस वैचारिक आलोड़न का दौर क्‍या अब भी जारी रहेगा जो उसकी प्रतियां जलाने पर मजबूर करता था....

उनसे बहुत बातों पर असहमति थी मगर फिर भी उनके सिर्फ उनके संपादकीय के लिए....उनके लिखे को पढ़ उनसे नाराज़ होने के लिए हम हंस ख़रीदते थे.....बेहद कंगाली के दिनों में भी...और उन्‍हें संजो कर भी रखते थे कि इनमें बहुत कुछ है जो अपने जैसा है....।


क्‍या टिप्‍पणियों वक्‍तव्‍यों का वो दौर भी जारी रह सकेगा जो श्रोताओं और पाठकों को तिलमिला देता था....। कहते हैं जि़न्‍दगी कहीं ख़त्‍म नहीं होगी...दुनिया कहीं ख़त्‍म नहीं होती मगर हां कुछ जगहें हमेशा शून्‍य रह जाती हैं.....आज...उनके जाने के बाद विजय जी की ये बात सच लग रही है कि साहित्‍य में एक बड़ा शून्‍य आ जाएगा....वो आ गया सा लगता है.... और ये तो शुरूआत है।

उनकी स्‍मृति को प्रणाम.....।

अनुजा

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

तलाश.....

सूखे पत्तों की खरकन के बीच
तलाश
एक कोंपल की...
एक चिनगी की...
एक नर्म कली की...
एक बूंद ओस की...
चुटकी भर आस की...
एक गुलमोहरी सपने की...
अंजुरी भर चांदनी की...
कुछ ज़्यादा तो नहीं ना !
जीवन सा
सपने सा
या फिर
टूटती उम्मीद सा...!

अनुजा
08.07.07

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

पांचवा रास्‍ता..

समय बदलता है तो
बदल जाता है बहुत कुछ.....

ख़्याल उगते हैं तो
रच जाती है एक दुनिया.....।

यादों पर जमी हुई धूल की परतें साफ होने लगी हैं...
गिरहें खुलने लगी हैं......

नज़र आने लगी है एक पगडंडी सी
जो ले जाएगी उस मोड़ तक.....

जहां से शुरू होगा
कोई एक पांचवां रास्ता......।

अनुजा
02.09.13

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

हथेलियों में....


जब कुछ नहीं होता
तो बहुत कुछ होता है
हथेलियों में.....

ख्‍वाहिशें....
सपने....
उम्‍मीदें....
आसरे....
यक़ीन...                   

मेरा-तुम्‍हारा....

यादें....
तुम और मैं....

एक कप चाय
के बीच
बहती गुफ्तगुएं.....
लंबी यात्राएं.....

बादलों के बीच खोते रास्‍ते.....
एक रूमानी निश्चिन्‍तता.....

हवाओं के झोंके....
सूखे पत्‍तों से भरे रास्‍ते...

नीला शामियाना....
सुर्ख़ पीला सफेद बल्‍ब
उजियाली सुबहें
सर्द सफेद रातें....
सन्‍नाटे जंगल....
पैरों की थाप....

टहनी पर अटकी कलियां
दानों पर गिरती चिडि़या....

एक खामोशी.....
कुल आवाज़ें.....

जि़न्‍दगी से बात
सारी उजास....
उदासी की शाम...
आवारगी की रात.....
भोर की बात.....
मौजों के साहिल....
शफ्फाक झरने....
एक मौज
एक साहिल.....
एक चांद और ढेर से सितारे.....

बहुत कुछ होता है...
जब कुछ नहीं होता
ह‍थेलियों में.....।
अनुजा
14.09.13
फोटो:आर.सुन्‍दर(c)

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

चालीस के पार....



जि़न्दगी
जब पार कर जाती है 40 वसन्त....

एक सही सलामत
आजीविका का
नहीं होता कोर्इ स्थायी आधार.....
ना ही
कोर्इ सहारा....

ढूंढे नहीं मिलता कुछ भी....
हर
दरवाज़े से बैरंग लिफ़ाफ़े सा
लौटा लाती है उम्र....

साथी
मर जाता है
अपने साथ आने से पहले ही
शहर की किसी दौड़ती सड़क के सन्नाटे में....
दफ़्न रहता है लावारिस सा
शहर के किसी ख़ामोश मुर्दाघर में......

गुलाबों की पंखुरियां झर जाती हैं
नीम के कसैले पत्तों सी
कड़वी हो जाती है समझ....
चिता की लपटों के बीच
झुलस जाता है हर सपना...
सुलगते हुए एहसास
तब्दील हो जाते हैं ठंडी राख में.....
लहराती हुर्इ मुटिठयां
झूल जाती हैं मृत बांह सी...

सपने तब कितने अलग हो जाते हैं सारी दुनिया से....

नर्इ कोंपलों
और
पोढ़ी पत्तियों का कोर्इ मेल नहीं होता....!

04.03.05
अनुजा

सन्‍नाटा....

फोटो: आर.सुन्‍दर (C)
तुमने
ये कैसा सन्नाटा बोया है.......
चारों तरफ
बस धुंधलाती दिशाएं हैं
और टूटकर बिखरते फूल.....
तुमने ये कैसा सन्नाटा खींचा है.....
कि कैनवास की रेत पर रुकता ही नहीं कोर्इ रंग......
तुमने ये कैसा सन्नाटा बोला है.......
सन्नाटा...!
जिसमें गूंजता है बस
खामोशी का एक लम्हा
और
चुप्पी का एक मौसम.......!

कितनी भारी है ये खामोशी
उन आंधियों से.....
जब
टूटती थीं शिलाएं......
और
भागते थे दरिया......
बस अपनी ही रौ में.....
दौड़ती थीं लहरें
पांवों को छूने
और छूकर लौट जाने के लिए......
रेत के लहराते सपनों पर
रचा है तुमने
ये कैसा सन्नाटा........!

यहां न सितारे हैं.....
न चांद...
न निरभ्र आकाश.....
ना बादलों का ओर छोर छूते
चहचहाते पंछी.....
बस एक चमकीली नीलिमा
के साये तले
बिखरी हुर्इ उजड़ी सी हरीतिमा के आगोश में......

छीजता है एक गहरा सन्नाटा........!


अनुजा
23.04.07

सांप्रदायिकता, राजनीति और हम....


हमने जब सफ़र शुरू किया था.....
गहरे दोस्त थे.........

आज
मैं तुम्हारे लिए एक हिन्दू भर कैसे रह गयी......
तुम आज दोस्ती के चोले को छोड़
केवल
मुसलमान कैसे रह गयीं........?

अपनी जि़दों और ज़दों के कटघरे में कै़द हो
तुमने ना सिर्फ मेरे भगवान को छोड़ा
बल्कि
अपने ख़ुदा को भी मुझसे जुदा कर दिया.....
जिसे
मैंने पुकारा हर बार उसी शिद्दत से अपने भगवान के साथ....
जिससे
मांगी हर बार तुमने दुआ
मेरे ही लिए......

तुमने  आज उस ख़ुदा का भी बंटवारा कर दिया.......

तुम आज उनके पाले में कैसे हो
जो
मुझे तुम्हें बांटकर अपनी सत्ता की सीमाओं को और बड़ा करना चाहते हैं......

तुम,
जो उनकी गलतियों से क्षुब्ध और भयभीत हो.....
आज उनकी गलतियों को दोहरा रही हो.....
यानि कि वो अपने मकसद में कामयाब रहे.....
और हम
नाकामयाब मोहब्बत के दर्द के साथ तन्हा हो गए........!

हमें तो यह लड़ार्इ फिर से लड़नी पड़ेगी....
किसी नर्इ रणनीति के साथ......
क्योंकि
अब यह लड़ार्इ केवल दुश्‍मनों से नहीं है
उन दोस्तों से भी है
जो
आज हमारे दुश्‍मनों के साथ खड़े हैं......!

10.05.07
अनुजा