सोमवार, 6 अप्रैल 2015

वह...

आदमी ने उसे घर दिया...
रहने के लिए...
रसोई दी....
खाना पकाने के लिए...
गुसलखाना दिया
नहाने के लिए....
छत दी...
केशों को सुखाने के लिए...
सोने का कमरा दिया
बिस्‍तर दिया
बच्‍चे दिए....
बिना उससे पूछे..
जि़न्‍दगी दी...
जीने के लिए....
सब कुछ
बिना उससे पूछे....
बिना यह जाने
कि
वह क्‍या चा‍‍हती है...
कैसे चाहती है...
रहना चा‍हती है...
उड़ना चाहती है...
या
सोना चाहती है....
जीना चा‍हती है..
या
मर जाना चाहती है.....।
अनुजा
31.01.14

रविवार, 5 अप्रैल 2015

वैरागी संसारी के डायरी अंश.....




जुदाई का हर निर्णय संपूर्ण और अंतिम होना चाहिए, पीछे छोड़े हुए सब स्‍मृतिचिन्‍हों को मिटा देना चाहिए, और पुलों को नष्‍ट कर देना चाहिए, किसी भ्‍ाी तरह की वापसी को असंभव बनाने के लिए।

हर पीड़ायुक्‍त निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए हमें उसे दैनिक जीवन का स्‍वाभाविक अंग बनाना होगा । तभी हम उसे भूल सकते हैं जिसे हमने खो दिया है।

वह थकान- इसके नीचे लेट जाना चाहिए, इसकी घनी छाया के नीचे जहां विरक्ति की अलमस्‍त लहर घेर लेती है...पीड़ा, इच्‍छा, उम्‍मीद का वह पत्‍ता कहां गया, क्‍या शून्‍यता से टकराकर झर गया...या वह अब भी वहीं है, निश्‍चल, शांत, आंखों से आेझल ?

एक जि़ंदगी जो बीच में कट जाती है अपने में संपूर्ण है । उसके आगे का समय उसके साथ ही मर जाता है, जैसे उम्र की रेखा- वह चाहे कितनी ही लंबी क्‍यों न हो- म़त हथेली पर मुरझाने लगती है । क्‍या रिश्‍तों के साथ भी ऐसा होता है जो बीच में टूट जाते हैं ?  हम विगत के बारे में सोचते हुए पछताते हैं कि उसे बचाया जा सकता था, बिना यह जाने कि स्‍मृतियां उसे बचा नहीं सकती़, जो बीत गया । मरे हुए रिश्‍ते पर उसी तरह रेंगने लगती हैं, जैसे शव पर च्‍यूंटियां । दो चरम बिंदुओं के बीच झूलता हुआ आदमी । क्‍या उन्‍हें  (बिंदुओं का) नाम दिया जा सकता है? दोनों के बीच जो है, वह सत्‍य नहीं पीड़ा है । वह एक अर्धसत्‍य और दूसरे अर्धसत्‍य के बीच पेंडुलम की तरह डोलता है, उन्‍हें संपूर्ण पाने के लिए, लेकिन अपने गति में- जो उसकी आदिम अवस्‍था है- हमे शा अपूर्ण रहता है ।

अब कुछ भी नहीं है, उतना भी नहीं, जिसमें अपने न होने को समर्पित किया जा सकेा जब कुछ भी नहीं रहेगा तो शून्‍यता का स्‍वच्‍छ बोध भी, जो हमेशा भीतर रहता था, हमारा साथ छोड़ देता हैा

लेकिन जब कुछ भ्‍ाी नहीं रहता, तो मैं कुछ भी हो सकता हूं- एक वृक्ष, एक पत्‍ता , एक पत्‍थर। और यह ख्‍ा़याल कि हम 'कुछ नहीं' से भी कम हो सकते है, मृत से अधिक मृत- एक गहरी सांत्‍वना देता है, जैसे बचपन में, बीमारी की रात, मां का हाथ अंधेरे में सहलाता है.....जिस दिन मैं अपने अकेलेपन का सामना कर पाउंगा- बिना किसी आशा के- ठीक तब मेरे लिए आशा होगी कि मैं अकेलेपन को जी सकूं।

-निर्मल वर्मा

रविवार, 8 मार्च 2015

ऐ लड़की.....

अर्चना, नन्दिनी, जया और उन जैसी तमाम स‍ाथियों के लिए....
जिनके जज्‍़बे और साहस को सलाम करता है अासमान...
तुम्‍हारे ही लिए मेरी साथी....


उफ... !
लड़की ने छू लिया अासमान....
अब क्‍या होगा.... !!!!!!

उफ...
ये क्‍या किया तूने ऐ लड़की...
बना ली अपनी छोटी सी दुनिया...
वैसे ही
जैसे तू चाहती थी....।

उफ....
ये क्‍या किया तूने ऐ लड़की....
तय कर लिए रास्‍ते...
अपने पांवों पर...

बिना किसी सहारे के....
पार कर लिए सागर
अकेले ही...
नाप लीं ब्रम्‍हांड की दूरिया...
चौंका दिया हमको...

तू आधी से पूरी बन गयी...
उफ....
ये क्‍या किया तूने ऐ लड़की....

छू लिया आकाश...
बन गयी चिडि़या....
उड़ चली नीले आसमान में...
भर ली पंखों में ढेर सी हवा....
नाप लिया सारा अाकाश....

उफ....
अच्‍छा किया तूने ऐ लड़की....
छू लिया अपना आकाश....
बना ली अपनी दुनिया...
रच लिया अपना संसार...
सुदूर कोने में...
नीले पहाड़ों के बीच...
जहां लहराते हैं झरने....
खिलखिलाता है मौसम....
आते हैं ज़लज़ले....
भेदते हुए हर दीवार....
जीतते हुए हर तूफ़ान...
तूने सजा ली एक छोटी सी दुनिया...

एक बड़े से काम के लिए....

सलाम है तुझे ऐ लड़की.....।

-अनुजा
08.03.2015

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

कुछ तो बताओ मुझे मेरे बारे में.....

जी चाहता है जानने को....
खोते-खोते अपने आपको...
अब
कुछ अपना आप रह ही नहीं गया है....

कुछ तुम
कुछ वह
कुछ सब
कुछ दुनिया
कुछ ग़मे रोज़गार....
कुछ प्रेम प्‍यार.. .
कुछ मौसम की मार...
समय की तक़रार...
कुछ, सब कुछ बेकार....


बस
इतना ही रह गया है....

मैं
खो गयी हूं....

कोई तो हो...
जो ढूंढ लाए मुझे....

कोई तो हो
जो मुझसे मिलाए मुझे....

कोई तो हो....
कोई तो...!!!!!!!


अनुजा

10.02.15

शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

पिता....


गर्म माथे पर रखा हुआ हाथ वो
सर्द कब हो गया कुछ पता न चला...

सब भिगोते रहे आंसुओं से ज़मीं
वो चला कब गया कुछ पता न चला...

एक मुद्दत रहा सायबां की तरह
कब हवा हो गया कुछ पता न चला...

उसकी नाराज़गी को न समझा कोई
क्‍यूं ख़फ़ा हो गया कुछ पता न चला....

उम्र भर तो कोई भी उसे न मिला
सब मिले जब उसे कुछ पता न चला...

अब ये पूछो अगर है कहां आजकल
क्‍या बताएं अभी कुछ पता न चला...

लौट आते हैं अक्‍सर मुसाफि़र सभी
वो कहां रह गया कुछ पता न चला...

उसके चेहरे का कुछ भी नहीं है कहीं
गुम किधर सब हुआ कुछ पता न चला...

अब हिदायत नहीं दे रहा है कोई 
सब धुआं क्‍यों हुआ कुछ पता न चला....

क्‍यूं थी फिक्रों से महरूम ये जि़न्‍दगी
वो चला जब गया ये पता तब चला....

- अनुजा
20.02.1997

सोमवार, 10 मार्च 2014

औरत...

अब कहो...
वो
चरित्रहीन थी...
चरित्र
को जोड़ दो देह से...
बहुत आसान है
औरत को
जोड़ देना चरित्र से...
और
चरित्र को देह से....

अनुजा
28.08.1998
भोर : 5: 00 

औरत...

सारी दुनिया को
अपनी गोद में छिपाए...
रत्‍नगर्भा के हिस्‍से में
नहीं है
कोई अपना आलोक....

अनुजा
03.05.1998

औरत..

सदियों का सफ़र तय करके
धरती अब भी है
अपने उसी बिन्‍दु पर....
जहां
ताप शाप रस के लिए
ताकना पड़ता है
उसे
आसमान का मुहं....

अनुजा
03.05.1998





आधी दुनिया...

जब पूरी दुनिया को बांटे जा रहे थे
चांद ...
सूरज...
सितारे...
पहाड़...
नदियां...
समुद्र...
दरख्‍़त...
आकाश...
रंग...
झरने...
तब भी ढूंढ रही थी आधी दुनिया
अपने अंधेरे उजाले....

अनुजा
03.05.1998


गुरुवार, 6 मार्च 2014

औरतें....

औरतें जायदाद नहीं होतीं...
कि
जितना चाहो उतना फैलें
और जब चाहो
सिमट जाएं....
कि 
उनके रखने, न रखने 
देने या लेने 
उठने-गिरने
बनने-बिगड़ने 
सहेजने या बांटने
जाने या रहने 
पर 
उनकी मर्जी का कोई वश न हो.....

औरतें कमाई नहीं जातीं....
कि 
जैसे चाहो उड़ा लो....

औरतें युद्ध नहीं होतीं
कि 
जीती जाएंगी...
कि 
उनके सपनों का कोई मतलब ही न हो....

औरतें दांव नहीं होतीं
कि 
लगा दो....
और 
भाग्‍य आजमाओ....।

औरतें 
महज़ सम्‍मान नहीं होतीं...
कि बचाने के लिए 
तत्‍पर रहें सदा आप....
उन्‍हें जीने दें ...
जीने की पूरी स्‍वतंत्रता के साथ...
उनकी अपनी अस्मिता के साथ....
उनके पूरे हक़ के साथ...
जिसमें कहीं न हों  आप...
उनके 
मालिक के तौर पर...

औरतें जायदाद नहीं हैं...


औरतें 
वन हैं...
निर्झर हैं...
आकाश हैं....
नदियां हैं...
सूरज हैं...
वृक्ष हैं...
हवा हैं...
पंछी हैं...

औरतें जीती हैं
अपने रंग के साथ...
अपनी पहचान के साथ....


औरतें जायदाद नहीं हैं...
कि 
चाहो तो ज़मीन बना लो...
या 
चाहो तो कैश करा लो...
चाहो तो सोना बना लो...
या
चाहो तो पगड़ी बना लो...

औरतें 
इंसान हैं....
जियेंगी
उनकी अपनी सोच के साथ....।

अनुजा
07.08.1998


शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

कितना अच्छा होता है


कितना अच्‍छा होता है

एक दूसरे को जाने बगैर
पास-पास होना 
और उस संगीत को सुनना 
जो धमनियों में बजता है
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं।

शब्‍दों की खोज शुरू होते ही 
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं ,
और उपके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से 
मछली की तरह फिसल जाते हैं।


हर जानकारी में बहुत गहरे
उब का एक पतला धागा छिपा होता है, 
कुछ भी ठीक से जान लेना 
ख़ुद से दुश्‍मनी ठान लेना है ।


कितना अच्‍छा होता है 
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर 
दूसरे का पा लेना।



सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना



मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

राह चलते लोग क्‍या समझें मेरी मजबूरियां.....

हमसफ़र होता कोई तो बांट लेते दूरियां
राह चलते लोग क्‍या समझें मेरी मजबूरियां।।

मुस्‍कुराते ख्‍़वाब चुनती गुनगुनाती ये नज़र
किस तरह समझे मेरी कि़स्‍मत की नामंजूरियां।।

हादसों की भीड़ है चलता हुआ ये कारवां
जि़न्‍दगी का नाम है लाचारियां मजबूरियां।।

फिर किसी ने आज छेड़ा जि़क्र-ए-मंजि़ल इस तरह
दिल के दामन से लिपटने आ गयीं हैं दूरियां।।


http://www.youtube.com/watch?v=AYP4CHVRAXE


मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

उम्‍मीद का छोर और वसंत____

छोड़ना मत तुम उम्‍मीद...
एक दिन
बादल का एक छोर पकड़कर
वासन्‍ती फूलों की महक में लिपट...
धरती गायेगी
वसन्‍त का गीत....

सब दु:ख...
सारे भय...
सब आतंक...
सारी असफलताएं ......
सारा आक्रोश

पिघलकर बह जाएगा
सूरज के सोने के साथ....

ओढ़ लेंगी सब दिशाएं
गुलाबी बादलों की चूनर....
मौसम गायेगा
रंग के गीत....

और
तुम्‍हारे सर पर होगा
एक सायबान....
पिरियाई सरसों
के बिछौने पर
आसमानी दुपट्टे
को ओढ़
सो जाना तुम अपने
प्रेम की किताब को
रखकर सिरहाने....

कोई पंछी छेड़ देगा
सुरीली लोरी की तान....
बर्फीले पहाड़ों से
आएगी एक परी....
जादू की एक छड़ी के साथ....
श्रम सीकरों का ताप सोख
आंखों में भर देगी कोई एक
मधुर स्‍वप्‍न....

हारना मत तुम....
चलते रहना....
थाम कर उम्‍मीद का छोर....

अनुजा
04.02.14


गुरुवार, 16 जनवरी 2014

स्‍वामी का अधिकार नहीं है तुम्‍हें.....

मेरी इस अस्मिता से सहम क्यों जाते हो तुम
मानव होने के मेरे उद्घोष को
पचा क्यों नहीं पाते तुम
तुम्हें पता है कि
इसके बाद वस्तु नहीं रह जाउंगी मैं
जिसे तुम इस्तेमाल करो और फेंक दो
तुम्हें पता है कि तकिया भर नहीं रह जाउंगी मैं
जिसकी छाती में मुहं छिपाकर रो लो तुम
और फिर लतिया दो
तुम्हें पता है फूल नहीं रह जाउंगी फिर मैं
कि मुझे रसशून्य करके हो जाओ रससिक्‍त तुम
और मुझे रौंद दो
तुम्हें पता है कि तुम्हारे प्रदीप्त अहं की तुष्टि का सामान भर नहीं
रह जाउंगी मैं
जिसके आंसुओं से प्रज्ज्वलित हो सके तुम्हारा दर्प।

तुम भूल गए कि मैं जननी हूं
तुम्हें  मैंने ही जन्म दिया है
मुझे अधिकार का दान देने वाले तुम कौन
याचक नहीं हैं मेरे अधिकार
असिमता सम्मान और उपस्थिति का बोध हैं
तुमने छला मुझे
मेरे ही खिलाफ मेरे लिए तुमने
लक्ष्मण रेखाएं खींचीं
और मुझे जिन्दा झोंक दिया दहकती अग्नि में
अपनी शुचिता और न्याय के नाम पर
तुमने मुझे अशुच और अपराधी साबित किया
तुमने किताबें रची
नियम बनाए
मेरी पहचान को मिटाकर अपनी सत्ता बनायी
और आज तुम
मेरे सृष्टा और नियन्ता होने के गर्व तले
मेरे होने को भी
खत्म करने पर आमादा हो.....

नहीं ये नहीं हो सकता
तुम सहचर हो सकते हो
मित्र हो सकते हो
साथी हो सकते हो
सखा हो सकते हो
आसक्‍त प्रणयी हो सकते हो
आहत प्रेमी हो सकते हो
स्वामी का अधिकार नहीं है तुम्हें...।

- अनुजा
  2007

बुधवार, 15 जनवरी 2014

इंसान हूं मैं....

मैं क्या हूं.....

सूरज की एक किरन
फूल की एक पंखुड़ी
ओस की एक बूंद
हवा में उड़ता कोई आवारा पत्ता
आंधी का एक झोंका
आग की एक लपट
या
जीवन की एक धड़कन
मुझे आज कुछ भी नहीं पता अपना
अपने आप से अनजान मैं
अपनी ही तलाश में हूं इस सफर में

मैं अग्निशिखा अमृता
अब किसी अग्निपरीक्षा के लिए नहीं हूं
मैं न काली हूं
न दुर्गा
न गौरी
न भैरवी
न मैं याज्ञसेनी हूं
न गार्गी मैत्रेयी
न कात्यायनी
मैं इंसान हूं।

-अनुजा
2007


रविवार, 12 जनवरी 2014

तुम्‍हारे लिए....

न.....।
बीते दिनों से लौटने को मत कहो.....
उनकी यादों को संजो लो....
समय ने बहुत सी सीपियां....
सीपियों में मोती
तुम्‍हारे लिये छुपा रखे हैं....
अपनी हथेलियों में.....
उन्‍हें खोजो.....
समेटने को  हथेलियां खोल दो.....।

अनुजा....
12.01.14