सोमवार, 15 अगस्त 2011

ओ आकाश......

तुम्‍हारे लिए
सहेजे मैंने हर बार.....
कुछ चुने हुए शब्‍द
मन की दुखती हुई तहों से निकालकर
रूई के गालों से.......
तुम्‍हें हर बार याद किया
अपने अकेलेपन......
और
दुख की सरसराहटों के बीच
स्‍त्री मुक्ति के हर संघर्ष से परे
तुमको देखा सिर्फ प्रेम के लिए
प्रेम......
जिससे उपजती है करूणा......
पर उसी करूणा ने
बांध दिया मेरा मन
फिर एक बार तुम्‍हारे साथ.......
और
जैसा कि तुमने हमेशा किया
रौंद दिया अपने संवेदनशून्‍य कदमों से........
मेरे प्रेम को.......
मेरी करूणा को.......
अब भी गूंज रही है
मेरे दुख में तुम्‍हारी उल्‍लास से भरी हुई हंसी
जिसमें कहीं आहट भी नहीं है कदमों के तले
चरमराते सूखे पत्‍तों से मेरे प्रेम की......
जिसमें कहीं नहीं वो कुछ भी
जो था.......
जो धड़कने लगा था.....
बहने लगा था......
बसने लगा था.......
मैं फिर हूं श्‍मशान में......
चिता की लपटों के बीच.......!

मैं फिर कह रही हूं
ओ आकाश!
क्षमा करो मुझे
मेरे प्रेम के लिए.......!

अनुजा


रविवार, 14 अगस्त 2011

चांद पुखराज का रात पश्‍मीने की

इक सबब मरने का, इक तलब जीने की
चांद पुखराज का रात पश्मीने की।

आज चांद बहुत सुन्‍दर है। पूरे आकाश में अकेला घूमता फिर रहा है...। सितारों की तो झलक तक नहीं है। बादल हालांकि बरस चुके हैं मगर फिर भी ढीठ से आसमान को घेरे हैं।
अभी कुछ देर पहले नमिता भाभी की रातरानी की महक से गुज़री हूं और अब तक सराबोर हूं।
पूरी छत पर चांदनी और उसके बीच में बह बहकर आती रात रानी की महक का आभास....।
ये केवल लेख का नशा नहीं हो सकता........ पक्‍का कहीं आस पास रातरानी इतरा रही होगी........।
बाहर छत पर बहुत सुन्‍दर है। बादलों ने आवारा चांद को फिर अपने आगोश में ले लिया है और उसे घेरे घेरे आगे बढ़ते जा रहे हैं ढीठ से.......। चांद चुपचाप उनके लम्‍स को महसूस कर रहा है...... और अपनी ठंडक को उस भीगेपन से सराबोर करके बिखराता चला जा रहा है।
बादलों से घिरी चांदनी रात का यह खामोश ठंडा सन्‍नाटा.......और भोर की धुंधली चमक में बहती हवा की ठंडक का ताज़ा झोंका..... दोनों ही मुझे हमेशा बांधते हैं.......मगर दोनों ही मुझसे बहुत दूर हैं.........।
अज्ञेय के उपन्‍यास नदी के द्वीप में भुवन का एक डायलॉग मेरे भीतर हमेशा बहता है, जो वह चांदनी को निहारती हुई रेखा से कहता है- 'पगली, चांदनी है। सब न पी सकोगी।'

सुबह सवा आठ बजे दफ्तर की बस को पकड़ने और कैंटीन के खाने से बचने के लिए सुबह सुबह खाना बनाने की जिम्‍मेदारी ने मेरी ये भोर और रात की ठंड को फांकने का सुख छीन लिया है।
जाते हुए हर रोज़ में कोशिश होती है कि अपनी इस खुशी को, इस तसल्‍ली को वापस ले लूं....... छीन लूं वक्‍त से...... पर मशीन में फंसे धागे सी घड़ी की सुइयों में फंसे समय वाली इस जि़न्‍दगी से उसे वापस लाना मुश्किल ही होता जा रहा है......।
नींद मुसलसल पीछे ही पड़ी रहती है और टिप् टिप् बूंदों सा मन में कुछ बहता रहता है सारे दिन........
शायद नींद का कोई अनछुआ सा झोंका.....जो चांद की नरमाई और ठंडी हवाओं की सिहरन से महरूम कर देता है।

15.08.11
आज भी सचमुच चांद बाहर अपने पूरे शबाब पर है....।
चांदनी रात और ठंडी हवा...। बाहर गयी थी नल बंद करने कि चांद ने बाहं पकड़ ली और सरगोशी की- अन्‍दर क्‍या कर रही हो, बाहर आओ न....।
आज ये चांद तन्‍हा है पर यही चांद कभी कभी तन्‍हाई का अकेला साथी होता है।
मेरे कमरे के बाहर की छत काफी बड़ी है। छत पर एक बगिया भी है....। पिछले दिनों जबसे माली बदला है छत और बगिया सुन्‍दर लगने लगी है।
जब से मैं अकेली रहती हूं, यह चांद ही है जो साथ देता रहा है.....। चाहे एकाग्रता का अभ्‍यास करना हो या एकान्‍त से बाहर आना हो, सिर्फ चांद ही अपना साथी रहा है।
दिल्‍ली शहर के बाद इस छोटे से शहर में रहने का यह तो फायदा हुआ ही है। कम से कम चांद सितारों से थोड़ी दोस्‍ती निभ जाती है। बड़े शहरों से तो ये रात और इस रात की छुअन दोनों ही महरूम हैं।

अनुजा

शनिवार, 13 अगस्त 2011

वापस लौटने की कोशिश.........;

इन दिनों बहुत जोर शोर से अपनी सारी ताकत से इस कोशिश में हूं कि वापस लौट जाऊं! नौकरी बदलना इसका एक तरीका हो सकता है पर अपनी दुनिया में वापस लौटना एक दूसरा रास्‍ता।
अपनी किताबें, अपनी कहानियां, अपनी कविताएं,अपने सपने, अपना प्रेम......सब कुछ की ओर वापस लौटना चाहती हूं...........अब उसके साथ जीना चाहती हूं..........।गए कई बरसों से इस सबसे मुहं फेर लिया था...........डर लगता था हर कदम बढ़ाते हुए........ न जाने कब, कौन सी गाज गिर पड़े, न जाने , किस क्रूर सच से सामना हो जाए.........ऐसा सच जिसे झेल पाने की ताकत शायद हमारे भीतर न हो।
गए कई बरस अपनी सारी आत्मिक, मानसिक और भावनात्‍मक ताकत को जैसे परखने के बरस थे......... । सिलसिला आज भी थमा नहीं है........ बस उसका रूप शायद थोड़ा बदल गया है........।
पहले प्रतिभा......।
प्रतिभा से मिलकर एकबारगी हतप्रभ सी रह गयी हूं...........। हालांकि उसकी क़लम की तेज़ी कहीं मुझे वापस खींच कर ला रही है.........। उसके खुद लिख-लिख जाने ने मुझे झिंझोड़ दिया है......। मुझे मेरी रिक्‍तता का एहसास करा दिया है.......। मैंने गए कई बरसों में क्‍या खो दिया........और किस चाह में.......मुझे लगातार पिछले बहुत लंबे समय से एहसास हो रहा है..........। भाषा, भाव, विचार........ सबने मुझसे दामन बचा लिया है.........।
प्रतिभा से मिलकर मुझे एक सदमा सा लगा........मेरी तमाम फिक्रों में उसकी फिक्र भी बड़ी शिद्दत से जुड़ गयी........। जी चाहता है, उसे कहीं ऐसी जगह छुपा दूं जिससे दुख का एक भी क़तरा उसके पास से न गुजर सके......... पर ऐसा तो होता नहीं है ना........। जीवन पाया है तो सब कुछ जीना पड़ता है.........अपना भी और दूसरों का भी...........।
........... लो अंधेरा उतर आया। कमरे की सब खिडकियां अभी तक बंद थीं। बाजार जाना था। सब कुछ भूल गयी......, सब छूट गया........। प्‍लान से केवल मैनेजरी हो सकती है........., जिया नहीं जा सकता.........। प्रतिभा सुन ले ना तो हंसेगी..........- आप भी बस ऐसी ही हैं........और बस उसका वही सदाबहार वाक्‍य- यह भी सही है। मैं कहूंगी - ठीक है भई,जो अच्‍छा लगे वो करो।
पर सारी दुनिया तो हमारी तरह नहीं सोचती ना। अब रात में 11 बजे बाज़ार जाने का मन करे तो इस अनजाने, अकेले, छोटे से सोते हुए शहर में किसी दुकान के खुले होने की उम्‍मीद तो नहीं होगी ना। और यह तय है कि अब जाया नहीं जा सकता।
प्रतिभा के ब्‍लॉग में रिल्‍के और मरीना के कुछ पत्रों का अनुवाद पढ़ा, इधर बहुत लंबे समय के बाद उससे मुलाकात भी हुई।
बहुत दिन बाद रिल्‍के को भी पढ़ा........। सुबह-सुबह अन्‍दर कमरे में जाकर अल्‍मारी पर नजर दौड़ाई- रिल्‍के लायी हूं या घर में ही छोड़ आयी।
नहीं, लायी हूं। किसी वक्‍त फुरसत में पढूंगी। फुरसत.... जो शायद इन तीन दिनों की छुट्टी के बाद मुश्किल से मिलेगी। नज़र का नंबर कितने दिन से आगे चला गया है, टालती रहती हूं डॉक्‍टर के पास जाने को। डॉक्‍टर के तो नाम से ही अब उलझन होने लगती है। पर जाना तो पड़ेगा अगर पढ़ना है तो......... ये नंबर कंप्‍यूटर पर तो ठीक काम करता है पर पढ़ने में खासी दिक्‍कत देता है।
तीन किताबें लाइन में हैं और 'अहा जि़न्‍दगी' के दो अंक साथ साथ चल रहे हैं। किताबें कुछ पन्‍नों के बाद बंद हो जाती हैं और फिर जाने कितने दिनों बाद उन्‍हें मनाने का मौका मिलता है।
नींद ऐसी कि मुसलसल पीछे पड़ी रहती है। ज़रा सा मौका मिला नहीं कि आंखों को धर दबोचा। ज़रा भी रहम की फितरत नहीं इसकी....।
आजकल दिन चमकीले, धुंधले और रूमानी हो गए हैं.......... पर मन है कि जागता ही नहीं........., कितनी कोशिश करूं, वो रंग लौटकर ही नहीं आता..........।
आईने पर गर्द जम गयी है.........। न जाने कब साफ होगी............।
जी चाहता है किसी भीतर से बाहर तक झिंझोड़ देने वाले एक लम्‍स को......... भीतर तक महमहा देने वाली एक खुश्‍बू को............ और शायद कहीं बहुत शिद्दत से बेपरवाह और बेफिक्र वक्‍त को..............शायद प्रेम को...........।
मगर सब तरफ खामोश है सब कुछ.............. उदास सा है सब कुछ..........।
ये उदासी जाती क्‍यों नहीं........
दरअसल तलाश उसकी है जो है ही नहीं यहां कहीं किसी जगह........ किसी लम्‍हे में....... या किसी मोड़ पर............ बस सब तरफ असीम शान्ति है पर यह शान्ति उजास से भरी क्‍यों नहीं है......... इसमें उदासी सी क्‍यों है........... ।
न अगले पल का पता है........... न अगले मौसम का...............। बस यूं ही चलते जाना है.............बेपरवाह..... थके हुए कदमों के साथ..........।
कभी कभी शक होता है क्‍या सचमुच मैं लौट सकूंगी ...............?
अनुजा

बुधवार, 10 अगस्त 2011

बारिश, सावन, मेंहदी और.....और.....;

बारिश, सावन, मेंहदी, गुडि़या......, सब एक साथ याद आता है। याद आते हैं वो दिन, वो काले बादलों से भरा आसमान और उस पर उड़ती हुई बगुलों की पांत ' वी' के शेप में...। घनघोर बारिश के बाद भीगी हुई छत पर भीगे बादलों और भीगी हवा से तन-मन को सहलाते हुए काले बैकग्राउन्‍ड पर सफेद बगुलों की उस पांत को देखना.....और तब तक देखते रहना......जब तक वो दिखना बंद न हो जाएं.............., आज भी उसी रोमांच और सिहरन से भर देता है जो उस वक्‍त ध्‍यानमग्‍न सा कर देता था........।
सावन गए कई बरसों में कई बार आया और गया है। कभी सूखा कभी भीगा.........। कभी इस शहर, कभी उस शहर.......बस अपनी छत की उस निश्चिन्‍तता से दूर.........., बेफिक्री से परे........., एक कोलाहल और अशान्ति के बीच सावन हर बरस आता और जाता रहा है।
पिछले तीन बरसों से उसे झांसी में पकड़ने और संभालने की कोशिश में रही हूं........।
झांसी में जब पहली बार आयी थी-2008 में तो सितम्‍बर का महीना था वह, सावन तब तक था या भादों आ चुका था, आज याद नहीं.........पर बारिश का भीगापन तब भी था हवाओं में और इसी भीगेपन ने मुझे शायद यहां बांध लिया था। झांसी की आकर्षक, रोमांचक ऐतिहासि‍कता के अतिरिक्‍त यहां के पत्‍थर, यहां की हरियाली और बारिश ने बांध लिया था मुझे। बेतवा का तट और फूली सरसों के खेतों ने पैरों में बेडि़यां डाल दी थीं........, अभी भी शायद कहीं मैं उस मोह से मुक्‍त नहीं हूं।सच यह है कि इस सबसे घिरते हुए भी मुझे गुडि़यों के इस त्‍यौहार की इतनी शिद्दत से याद नहीं आयी जितनी इस बरस आयी....।
ताज़ी हरी मेंहदी से भरे हमारे हाथ पांवों को बांधकर हमें चारपाई पर बिठा देती थीं हमारी बुआ......। नई फ्राक, नया हेयर बैंड या नए रिबन से हमारे बालों को सजा देती थीं वो। कमरे से रसोई तक जाने के लिए आंगन से गुज़रना पड़ता था पर झमाझम बरसे पानी में हमारे लिए थाली में मम्‍मी के हाथ का स्‍वाद लेकर उसकी गर्माहट को संभाले पीठ पर बूंदों की थाप संभाले वो कमरे में हमारे लिए खाना लातीं और हम तीनों बहनें आराम से उनके हाथों से खाने का मज़ा लेते।ये वो दिन होता था जब न तो पढ़ाने के लिए मास्‍टर आते थे, न डांट-मार या सजा का भय होता था।
दर्द से कराहते घुटनों पर पुराने कपड़ों के टुकड़ों को लपेटकर दादी हमारे लिए सुन्‍दर गुडि़यां बनाती थीं। उन गुडि़यों को डलिया में काले, उबाले और कल्‍हारे चनों के साथ हम चौराहे पर डालने जाते और मोहल्‍ले के भाई, चाचा उन गुडि़यों को पीटते थे।
गुडि़यों को पीटने का यह राज़ मुझे आज तक समझ में नहीं आया। हमारे घरों में इसे गुडियों का त्‍यौहार कहते थे जबकि बाकी पूरी दुनिया में इसे नागपंचमी के नाम से मनाया जाता है।
बस में वापस लौटते हुए हमारे उत्‍तर प्रदेश के रहने वाले मेरे एक सहयोगी मित्र मधुबन ने इस बरस मुझे याद दिलाया - 'अरे यार, आज हम लोगों के यहां गुडि़यों का त्‍यौहार है' तब मुझे याद आया। बस से उनके स्‍टॉप पर उतरते हुए मैंने एक धौल जमाई उन्‍हें- 'लै, हमने तो आज गुड्डे को पीट दिया। मन गई हमारी तो गुडियां।' और वे मेरी ठिठोली पर मुस्‍कराते और झेंपते हुए चले गए।
सावन के इस सुरीले और भीगे से महीने की उन रौनकों की अब बस यादें ही रह गयी हैं.......लोग भी चले गए.....गुडि़यां भी चली गयीं और वक्‍त भी....।
सावन अब एक नए रंग और सौन्दर्य में है और अनोखी त़ृप्ति के साथ। बुन्देलखण् के इस हिस्से में मैं इस बार इतनी बरखा देख रही हूं........मन मचलकर गा उठता है.....बरखा रानी जरा जम के बरसो.......................।

  • अनुजा

सोमवार, 8 अगस्त 2011

वापस लौटने की एक कोशिश.............

आज तीन सालों की मेहनत से बनाए गए, संवारे और संभाले गए साथियों में से एक ने रिज़ाइन कर दिया........।

ये सवाल इसका नहीं कि कोई गया, क्‍यों गया, क्‍या होगा शो का या कार्यक्रम का या रेडियो का........... ।

ये सवाल इसका है कि हमारी आस्‍थाएं कितनी और किसके प्रति हैं.............।
गए कुछ सालों में मैं गैर सरकारी संस्‍थाओं की दुनिया से जुड़ी रही हूं.......शायद आगे भी जुड़े रहना होगा........।
आज के दौर में भूखे पेट क्रान्ति जो नहीं होती.......... ।
कई बार मन में सवाल उठा कि आखिर इन संस्‍थाओं के लिए पैसा जुटाने की जद्दोजहद में लगे लोगों ने इन्‍हें बनाया क्‍यों........
कुछ से सवाल भी किया........ जवाब में एक ही सच सामने आया.......किसी दूसरे के दुख की करूणा से जन्‍मा नहीं था ये समाज सेवा का भाव..........
कुछ तो विशुद्ध काम के लिए खुले थे....... कुछ अपनी तकलीफ की प्रतिक्रिया में....... वही व्‍यष्टि से समष्टि की कहानी.........
मगर आज वे एक सेवा क्षेत्र मात्र बनकर रह गए हैं............

आजकल जिस संस्‍था में हूं उसके कांसेप्‍ट से काफी प्रभावित हूं मगर व्‍यवस्‍था से निराश और आहत हूं........
अब यह किसी आम बिजनेस की तरह है जिसके फैल जाने के बाद मालिक अपने ड्राइवर को भी नहीं पहचानता।
अब यह सफर कुछ मुश्किल लग रहा है............


प्रेम से, दुख से, विषाद से दूर आकर इस रेगिस्‍तान में जैसे खो सी गयी हूं.........।
गए बरसों में अपनी सारी प्रिय चीजों और लोगों से मुहं मोड़ लिया था........
रेगिस्‍तान में जीने का मन था........शुतुरमुर्ग की तरह रे‍त में मुहं छुपाकर सोचा.....कुछ है ही नहीं........।
चिन्‍तकों की दुनिया में बाहर बाहर घूमी और अर्थ की रूखी दुनिया में अपनी शांति ढूंढी.........
मगर वह कहीं नहीं मिली............।
जो अपने ही भीतर है, उसे न जाने कहां कहां खोजते हुए मैं भागती फिरती रही अपने आप से..........अपने साये से..........।
पर कुछ भी नहीं बदला.........।
सब कुछ वैसा ही है।
.......... और मैं कोशिश कर रही हूं कि मैं अपनी दुनिया में वापस लौटूं........।

मेरी दुनिया........।

मुझे खुद पर आश्‍चर्य होता है........।
कहां है मेरी दुनिया......, क्‍या किया इतना जीवन........., कुछ भी समझ नहीं आता........., किसी सवाल का जवाब नहीं मिलता.........., और सब तरफ से अनुत्‍तरित सी छायाएं डोलती हुई मुझ तक बढ़ती आती हैं...........।

मैंने ऐसे सफर के बारे में तो कल्‍पना नहीं की थी......... । फिर ये क्‍या और क्‍यों हो रहा है........
क्‍या मैं सचमुच लौट सकूंगी उस जगह......... जिसे मैं अपनी दुनिया कह सकूं..........

अग्निगर्भा को कभी दुनिया भर की औरतों की बात करने वाले मंच के रूप में रचा था...........
आज ये सिर्फ मेरा मंच है........... मेरी डायरी.......... मेरा पन्‍ना.............।
यहां मैं अपनी बात करूंगी और अपने नज़रिये से............।
जीवन की, काम की दिशा की, दशा की, समय की, वसंत की पतझर की..........।
हालांकि मुझे यहां से जाना ही होगा...........
मगर मैं यहां एक गर्मी और बिताना चाहती हूं..........
पलाश और अमलतास की रौनक के उन कुछ पलों को अपने में भर लेना चाहती हूं.......... जिनके बीच में रहते हुए भी मैं कभी उनके बीच ठहर नहीं पाई.........।
पर वो रंग और उन रंगों का अक्‍स आज भी मेरे भीतर वैसे ही जिंदा है...........

वो कहानी फिर कभी.........
आज इतना ही........।
अनुजा