बुधवार, 10 अगस्त 2011

बारिश, सावन, मेंहदी और.....और.....;

बारिश, सावन, मेंहदी, गुडि़या......, सब एक साथ याद आता है। याद आते हैं वो दिन, वो काले बादलों से भरा आसमान और उस पर उड़ती हुई बगुलों की पांत ' वी' के शेप में...। घनघोर बारिश के बाद भीगी हुई छत पर भीगे बादलों और भीगी हवा से तन-मन को सहलाते हुए काले बैकग्राउन्‍ड पर सफेद बगुलों की उस पांत को देखना.....और तब तक देखते रहना......जब तक वो दिखना बंद न हो जाएं.............., आज भी उसी रोमांच और सिहरन से भर देता है जो उस वक्‍त ध्‍यानमग्‍न सा कर देता था........।
सावन गए कई बरसों में कई बार आया और गया है। कभी सूखा कभी भीगा.........। कभी इस शहर, कभी उस शहर.......बस अपनी छत की उस निश्चिन्‍तता से दूर.........., बेफिक्री से परे........., एक कोलाहल और अशान्ति के बीच सावन हर बरस आता और जाता रहा है।
पिछले तीन बरसों से उसे झांसी में पकड़ने और संभालने की कोशिश में रही हूं........।
झांसी में जब पहली बार आयी थी-2008 में तो सितम्‍बर का महीना था वह, सावन तब तक था या भादों आ चुका था, आज याद नहीं.........पर बारिश का भीगापन तब भी था हवाओं में और इसी भीगेपन ने मुझे शायद यहां बांध लिया था। झांसी की आकर्षक, रोमांचक ऐतिहासि‍कता के अतिरिक्‍त यहां के पत्‍थर, यहां की हरियाली और बारिश ने बांध लिया था मुझे। बेतवा का तट और फूली सरसों के खेतों ने पैरों में बेडि़यां डाल दी थीं........, अभी भी शायद कहीं मैं उस मोह से मुक्‍त नहीं हूं।सच यह है कि इस सबसे घिरते हुए भी मुझे गुडि़यों के इस त्‍यौहार की इतनी शिद्दत से याद नहीं आयी जितनी इस बरस आयी....।
ताज़ी हरी मेंहदी से भरे हमारे हाथ पांवों को बांधकर हमें चारपाई पर बिठा देती थीं हमारी बुआ......। नई फ्राक, नया हेयर बैंड या नए रिबन से हमारे बालों को सजा देती थीं वो। कमरे से रसोई तक जाने के लिए आंगन से गुज़रना पड़ता था पर झमाझम बरसे पानी में हमारे लिए थाली में मम्‍मी के हाथ का स्‍वाद लेकर उसकी गर्माहट को संभाले पीठ पर बूंदों की थाप संभाले वो कमरे में हमारे लिए खाना लातीं और हम तीनों बहनें आराम से उनके हाथों से खाने का मज़ा लेते।ये वो दिन होता था जब न तो पढ़ाने के लिए मास्‍टर आते थे, न डांट-मार या सजा का भय होता था।
दर्द से कराहते घुटनों पर पुराने कपड़ों के टुकड़ों को लपेटकर दादी हमारे लिए सुन्‍दर गुडि़यां बनाती थीं। उन गुडि़यों को डलिया में काले, उबाले और कल्‍हारे चनों के साथ हम चौराहे पर डालने जाते और मोहल्‍ले के भाई, चाचा उन गुडि़यों को पीटते थे।
गुडि़यों को पीटने का यह राज़ मुझे आज तक समझ में नहीं आया। हमारे घरों में इसे गुडियों का त्‍यौहार कहते थे जबकि बाकी पूरी दुनिया में इसे नागपंचमी के नाम से मनाया जाता है।
बस में वापस लौटते हुए हमारे उत्‍तर प्रदेश के रहने वाले मेरे एक सहयोगी मित्र मधुबन ने इस बरस मुझे याद दिलाया - 'अरे यार, आज हम लोगों के यहां गुडि़यों का त्‍यौहार है' तब मुझे याद आया। बस से उनके स्‍टॉप पर उतरते हुए मैंने एक धौल जमाई उन्‍हें- 'लै, हमने तो आज गुड्डे को पीट दिया। मन गई हमारी तो गुडियां।' और वे मेरी ठिठोली पर मुस्‍कराते और झेंपते हुए चले गए।
सावन के इस सुरीले और भीगे से महीने की उन रौनकों की अब बस यादें ही रह गयी हैं.......लोग भी चले गए.....गुडि़यां भी चली गयीं और वक्‍त भी....।
सावन अब एक नए रंग और सौन्दर्य में है और अनोखी त़ृप्ति के साथ। बुन्देलखण् के इस हिस्से में मैं इस बार इतनी बरखा देख रही हूं........मन मचलकर गा उठता है.....बरखा रानी जरा जम के बरसो.......................।

  • अनुजा

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