तुमने
ये कैसा सन्नाटा बोया है....
चारों तरफ
बस धुंधलाती दिशाएं हैं...
और टूटकर बिखरते फूल...
तुमने ये कैसा सन्नाटा खींचा है...
कि
कैनवास की रेत पर रुकता ही नहीं
कोई रंग...
तुमने ये कैसा सन्नाटा बोला है...
सन्नाटा...!
जिसमें गूँजता है बस
खामोशी का एक लम्हा
और
चुप्पी का एक मौसम...!
कितनी भारी है ये खामोशी
उन आँधियों से....
जब
टूटती थीं शिलाएँ...
और
भागते थे दरिया...
बस अपनी ही रौ में...
दौड़ती थीं लहरें....
पाँवों को छूने
और छूकर लौट जाने के लिए...
रेत के लहराते सपनों पर
रचा है तुमने
ये कैसा सन्नाटा...!
यहाँ न सितारे हैं....
न चाँद....
न निरभ्र आकाश...
न बादलों का ओर छोर छूते...
चहचहाते पंछी...
बस एक चमकीली नीलिमा
के साये तले
बिखरी हुई उजड़ी सी हरीतिमा के आगोश में...
छीजता है एक गहरा सन्नाटा...!
सन्नाटा...!
(फुटपाथ पर रोती, खामोश होती उस स्त्री की याद में, जिसका पति पिछले दिनों लाॅक डाउन के बाद परिवार को घर ले जाते हुए रास्ते में मर गया और नन्हें बच्चे बस उसका मुहँ देखते बैठे रह गए ।)
अनुजा
कविता विहान में प्रकाशित
सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया
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