रविवार, 18 दिसंबर 2011

गहरी काली रातों में...ग़ज़ल

वक्‍़त का ये कुसूर है यारों
मुझको भी अब सुरूर है यारों ।

मैं ही उस पर फिदा नहीं हूं बस
वो भी कुछ कुछ ज़रूर है यारों।

यूं ख़ताओं को माफ़ उसने किया
तख्‍़त पर बेक़ुसूर है यारों ।

उसका बिस्‍तर बिछाओ आंख लगे
वो बहुत थक के चूर है यारों ।

मैं समझता था कट गया है सफ़र
घर मगर अब भी दूर है यारों ।

जबकि शीशों पे बाल आए हैं
तुमको किस पर ग़ुरूर है यारों।

जानता है समझ रहा है सब
वो नशे में ज़रूर है यारों

अनुजा
30.11.1996

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