मंगलवार, 16 मई 2023

रेत समाधि के बहाने...!


पढ़ने की लगन बचपन से थी । साहित्य के क्लासिक्स पढ़े अपने पढ़ने की लगन में, बेपरवाह । प्रेमचंद को ऐसे पढ़ा जैसे बस लहर बहती है। साहित्य के भीतर छिद्रान्वेषण के लिए कभी जगह नहीं पाई । जिस किताब और लेखक ने बांधा, उसे पढ़ते गए । साहित्य की सामयिक गतिविधियों के संपर्क में जब आए तो उस दौर के लेखकों से परिचय बढ़ा । महिला लेखन के दौर में अनेक लेखिकाओं के साथ ही गीतांजलि श्री को पढ़ने की बड़ी ललक रहती थी, पर कभी ऐसा संयोग हो ही नहीं पाया कि उनकी किसी कहानी, उपन्यास या संग्रह को पढ़ पाती । बीच में काफी लंबी लाइन होती थी। इस बरस अंततः गीतांजलि श्री के लेखन से परिचय हो ही गया । जब ‘रेत समाधि’ चर्चा में आई । किसी हिंदी उपन्यास को बुकर पुरस्कार मिला । हिंदी की दुनिया में यह एक बड़ी उपलब्धि थी । हालांकि ‘रेत समाधि’ को पुरस्कार मिलने का माध्यम उसका अंग्रेज़ी अनुवाद ‘टाॅम्ब आॅफ सैंड’ बनी पर अंग्रेज़ी में ही सही, श्रेय तो मूल कृति को ही जाता है। अब एक छटपटाहट बनी कि किसी तरह इस किताब को पढ़ा जाए और अंततः वह किताब हाथ आ ही गई। 

किताब पढ़ने के बाद मन में अनेक प्रश्न उठे, अपनी भाषा और कहन के कलेवर में अद्भुत रचनात्मकता से युक्त इस उपन्यास के साथ अंग्रेजी में कैसे न्याय किया गया होगा, क्योंकि अनुवाद का अपना एक संसार होता है, और हर भाषा की अपनी सीमाएं और शैली । अब रेत समाधि की भाषा, कहन और प्रस्तुतिकरण, जो सामान्य तौर उपन्यासों के शिल्प और शैली में अत्यन्त भिन्न है, अपनी कथा और कहन में वह जितनी सामान्य, असामान्य और चमत्कारिक है क्या अंग्रेज़ी में वैसे ही प्रयोग किए गए, यथावत्? 

क्या एक भाषा से दूसरी भाषा में जाने पर चमत्कार कम हुए, कहन को हूबहू वैसा ही रख पाया गया, या अंग्रेज़ी की शैली के हिसाब से उसे बदल दिया गया ? इस जिज्ञासा ने अनूदित रचना की खोज शुरू करवाई और अंततः वह मिली । टाॅम्ब आॅफ सैंड के कुछ पन्ने गूगल के संसार में मिले, और उन कुछ पन्नों में कहन हिंदी से भिन्न है । भाषा के साथ शैली में बदलाव है। कहानी वहां सीधी और सहज चलती है, कहीं-कहीं, कुछ शब्द ध्वनियों का प्रयोग किया गया है। 

इस किताब को किसी एक भाव, समझ या राय के बिना पढ़ा, सिर्फ पढ़ा, रसहीनता और रसज्ञता के बीच झूलते हुए, पकते और आनंदित होते हुए। कथा और कहन के बीच की यह रस्साकशी अंत तक चलती रहती । यकीनन इसकी पढ़ाई पैसंेजर ट्रेन की गति से हुई, फर्क सिर्फ इतना था कि पैसेंजर ट्रेन को किसी स्टेशन से आगे बढ़ने के लिए पिछले स्टेशन से यात्रा पुनः नहीं शुरू करनी पड़ती है पर ‘रेत समाधि’ के पाठक को यह मशक्कत करनी पड़ती है, अब इसे आप इसकी कमी समझिए या खूबी, यह प्रत्येक पाठक का अपना निजी मत हो सकता है। 

साहित्य में प्रवाह और आनंद को खोजने वालों को ‘रेत समाधि’ थोड़ी उबाऊ लग सकती है पर कथा का सूत्र जैसे ही प्रवाह में आता है, यह बांध भी लेती है। कथानक के बीच में मूर्त अमूर्त और प्रतीकात्मक प्रसंग, जो वहां पर अनावश्यक से प्रतीत होते हैं, कथा के रस-रंग को खत्म करते हैं, जैसे- ‘बड़े’ बेटी के घर पेड़ के रास्ते अम्मा को देखने जाते हैं और वहां कौआ संसार की बातें बीच में आ जाती हैं। कौआ संसार समूह की यह कथा बीच में दखलंदाजी प्रतीत होती है। पाठक की ‘बड़े’ की कोशिशों और प्रतिक्रियाओं को देखने समझने की चेष्टा के बीच में यह प्रसंग पूर्णतः अप्रासंगिक और व्यवधान प्रतीत होता है। कौवे, तीतर और तितलियों के ये प्रतीक कहानी के बीच में जगह-जगह पर बिखरे पड़े हैं। कहीं पर ये बड़े अरुचिकर और अनावश्यक प्रतीत होते हैं पर कहीं कहानी में रुच जाते हैं ।

बौद्धिक साहित्य के वर्ग से आती हुई कई रचनाएं अपनी विशिष्ट शैली और विधा के कारण चर्चित रहती हैं, पसंद की जाती हैं, वे अपनी बौद्धिकता और चमत्कार में बड़ी सहज और ज़मीनी प्रतीत होती हैं, किंतु हाँ, इसके उलट ‘रेत समाधि’ में कई स्थानों पर बौद्धिकता और चमत्कार जबरदस्ती बोया गया लगता है और वो भी किसी विशेष बिंदु को रेखांकित करने की मांग पर नहीं। अन्यथा ‘रेत समाधि’ की पूरी कथा कुछ सर्गों या भागों में बड़े स्पष्ट रूप से बँटी दिखाई देती है। यह एक दुखद दुखांत कथा है जिसे गीतांजलि श्री ने बड़े खिलंदड़े अंदाज़ में आनन्दमय रोचक तरीके से इस तरह प्रस्तुत किया है कि जीवन, समाज, समय और सभ्यता के गहन गंभीर मुद्दे भी बिना किसी अवसाद के पाठक के भीतर उतरते जाते हैं, यह दूसरी बात है कि इसके लिए किताब एक से अधिक बार पढ़ना ज़रूरी है।  

कथा एक 80 बरस की वृद्ध माँ के रूपांतरण की कथा है, जो अपने पति की मृत्यु के बाद अवसाद में है। वही मुख्य किरदार है, जिसकी विरक्ति पुत्र के रिटायरमेंट के बाद के घटनाक्रम में दिखाई देती है और वहाँ से बढ़ती हुई कथा उसके खोने, मिलने और फिर बेटी के घर में रहने तक आती है। यहाँ वह अपने जीवन को अपने मन से जीती दिखाई पड़ती है। धीरे-धीरे खुलती हैं उसके भीतर की शांत पड़ चुकीं इच्छाएं, अपेक्षाएं, रुचियां, सपने और स्मृतियां । भूला बिसरा सब कुछ वह जीना शुरू कर देती है। यह दरवाज़े की ओर पीठ किए ‘नईं नईंईंईंईंईं’ कह अपने में छोटी होती जाती माँ नहीं है। यह अपने विस्तार में फैलती औरत है, जिसके भीतर स्मृतियों, कौशल और जीवन का संसार खुलता है। यहाँ प्रकट होती है रोज़ी, और रोज़ी के साथ ही उसके जीवन की एक दूसरी धारा, दूसरा रूप दिखाई पड़ता है, जो उसके बच्चों की समझ से भी बाहर है । रोज़ी का मरना और माँ बेटी का पाकिस्तान जाकर चिरौंजी देना इस आख्यान का अंतिम अध्याय है जहाँ जाकर यह बात खुलती है कि माँ और रोज़ी बँटवारे के समय एक साथ पाकिस्तान से दो बच्चियों की शक्ल में हिंदुस्तान ढकेल दी गईं। बेटी पर अब खुलता है कि रोज़ी से माँ का इतना प्रेम क्यों है। पाकिस्तान मंे अपने घर, मकान और लोगों से मिलते हुए माँ अपने पुराने प्रेमी या शौहर तक पहुँच जाती प्रतीत होती है, शुरू से दबी-ढकी कथा यहाँ आकर खुलती है कि यह विभाजन और किशोरवय में बिछुड़े अपनों की पीड़ा, और रेगिस्तान में भागती बचती दो बच्चियों के संघर्षों की सो गई स्मृतियों के दुःखों से बुने वो धागे हैं जो अब तक सुलझाए नहीं गए । कथा को इस विकास तक लाने के लिए तमाम घटनाएं, प्रसंग और प्रहसन रचे गए हैं।

जीवन इतना छोटा और संक्षिप्त नहीं है कि इसी से शुरू और खत्म हो जाए, वह अपने विकास में विस्तृत हुआ और बच्ची चंदा ‘चंद्रप्रभा देवी’ होती है, एक भरे पूरे परिवार की मुखिया जो उम्र के इस पड़ाव पर आकर छोटी होती जाती है। यह छोटे होते जाना, सिमटते जाना दरअसल अंतर में स्मृतियों के विस्तार का संकेत है, जो सामान्य सामाजिक जीवन जीने वाली परंपराओं को समझ नहीं आता है। यही स्मृतियाँ वो तितलियाँ हैं जो, उसकी छड़ी के खोलने बंद होने पर उड़ती रुकती हैं। छड़ी ही शायद वह सहारा है, जो उसे हौसला देती है, वापस यात्रा करने की। इस आदि-अंत की पूरी गाथा के बीच में पारिवारिक सदस्यों, उनके जीवन और रोज़मर्रा की घटनाओं को तरतीबवार बँधी हैं । रिटायर बेटे की तरतीबवार, और अविवाहित बेटी की बेतरतीब बोहेमियन ज़िंदगी से उनकी नागवारी की कथा। इसके बीच में गुँथे दिलचस्प संवाद, माँ के आड़े तिरछे जवाब कथा को रोचकता से बुनते हैं। एक पूरा जीवन, जिसमें कई जीवन और यादें गुंथी हैं, प्रसंग और प्रवाह के साथ उपन्यास का विकास करते हैं। किंतु पात्रों और घटनाओं की इस बुनन के मध्य अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक बिंदु भी हैं । मसलन, परिवारों में चलने वाली राजनीति, बहू का दीनता प्रदर्शन और बेटी की आलोचना । ‘बड़े’ की बहन से नाखुशी और अलगाव । मां को अपने ही पास रखने की अबोध दंभी ज़िद और बेटी के पास मां के रहने की अस्वीकार्यता, बेटी के अपनी चयनित स्वतंत्र जीवन-शैली पर मंथन करता मन, ये केवल पारिवारिक मतभेदों, असुरक्षाओं को ही नहीं दर्शाते, हमारी पूरी सामाजिक सरंचना, सोच और मनोविज्ञान को भी खोलकर सामने रख देते हैं। वहीं दूसरी तरफ समाज, परिवार में स्त्री की भूमिका, उसके स्थान और छवि के बारे में बताते हैं। स्त्री केवल साधारण तौर पर मनुष्य नहीं है, विभिन्न भूमिकाओं और चरित्रों में उसकी पहचान अलग है और उसी के अनुसार उससे व्यवहार। यहां परिवार या रिश्तों की मर्यादा भी उसे नहीं बख्शती । 

दूसरी तरफ माँ के किरदार को देखें, तो ‘बड़े’ के घर में दरवाज़े को पीठ दिखाए अपनी स्मृतियों के साथ जीती वृद्धा, बेटी के घर जाते ही एक मुक्ति का उत्सव बन जाती है। माँ के किरदार का यह रूपांतरण वह बोलता है जो कहानी में सीधे-सीधे नहीं कहा गया है, यदि पाठक सुनना चाहे तो । रोज़ी के किरदार की रचना और माँ से उसका बहनापा वास्तव में घरों में, परिवारों में, समाज में किन्नरों की एक भिन्न छवि और भूमिका को गढ़ता है, उनके स्वीकार्य को सहज करता है। कहीं एक संदेश भी है इसमें कि संघर्ष और दुःख का साथ लैंगिक भेदभाव से कमज़ोर नहीं पड़ता, बल्कि समय के साथ गहरा होता जाता है, भले ही बीच में कितनी ही लंबे फासले हों। रोज़ी की मृत्यु किन्नर समाज के अकेलेपन और चुनौतियों को दर्शाती है। ऐसे बहुत से छोटे बिंदु हैं, जो ऐसे बहुत से मुद्दों पर बात करते चलते हैं । कथा का चरम विकास माँ का बाॅर्डर पार कर पाकिस्तान जाना, खैबर में कैद होना, और कै़द में कुछ इस तरह निश्चिन्त होना, मानो उसका अपना ही घर हो। हाँ, अपना ही तो घर था, जहां से विभाजन के समय बेदखल हो देश के दूसरे हिस्से में आ गई थी, पीछे छूट गया था कितना कुछ। बेशक यह कथा काल्पनिक हो सकती है पर ये अब  भी जीवित बहुत से वृद्धों की कथा हो सकती है। विभाजन के समय की दुश्वारियां, दुःख, संघर्ष और अपनी ही मिट्टी में विदा कहना, अस्सी बरस तक का जीवन जीने वाली किसी वृद्धा के भीतर की एक कितनी गहन कौंध हो सकती है, इसे समझना, बूझना और महसूस करने-कराने में समर्थ है कथा।

हालांकि इस कथा के कहन को पहचानने की चेष्टा करती हूँ तो कहानी सुनने-सुनाने की कोई धुंधली सी याद जे़हन में रह-रहकर उभरती है, पढ़ने की नहीं । कई बार जो एक बात मन में कौंधती है कि तमाम अनावश्यक से लगते प्रसंग और प्रहसन, जो कथा के बीच में एक संदर्भ प्र्रसंग से परे चले जाते प्रतीत होते हैं, वे, और कथा की कहन, वे लोक की कहन से प्रेरित प्रतीत होते हैं । एक कहानी के भीतर गंुथी हुई है दूसरी कथा । गांव की  चैपालों पर गढ़ी और कही जाने वाली कथाएं, जो किसी मस्त कथावाचक या किसी गांव के किसी यायावर गड़रिये, जिसके पास अनगिनत घरों और लोगों की कहानियों का जमावड़ा होता है, जिसके कहने का अंदाज़ बिल्कुल जुदा होता है, ऐसा कि हर कोई कहानी सुनने को बैठ जाए, जिनमें कहानी के सिरे तमाम अप्रासंगिक प्रसंगों और प्रहसनों के बावजूद अपने प्रवाह में बहते रहते हैं, रेत समाधि की कथा-कहन उन कथाओं को कहने वालों के अंदाज से भी प्रेरित प्रतीत होती है।

कई बार ऐसा लगता है कि बचपन में किसी मेले में किसी कथा की कहन के आनंद का कोई सूत्र मन-मस्तिष्क में छूट गया, मन उसे बुनता गढ़ता रहा और किसी कल्पित और सत्य कथाओं के बीच के किसी कथानक को बुनने के समय में वही शैली और कहन रुचिकर कलात्मक तरीके से कलम में उतर आई। इस भाषा और कहन में पूरी कथा को अभिव्यक्त करने के लिए अपार धैर्य और मशक्कत की जो ज़रूरत थी, वह भी पाठक को महसूस होता है, जब वह इसे पढ़ता है जिसका बिंदु नाद कहीं भीतर सदियों तक शायद लेखिका के भीतर गुनगुनाता रहा होगा, और पढ़ने के बाद पाठक के भीतर भी गुनगुनाता रहेगा। 

यह सिर्फ मेरी कल्पना और अनुमान है, जो इस कथा को पढ़ते हुए मेरे भीतर पके हैं, और यह ही शायद इस पुस्तक की सफलता है कि पाठक के सोचने और समझने के लिए इसमें कई सूत्र हैं। इस कथा में कहन के भिन्न, अनूठे व ज़मीनी प्रयोग हैं। ये प्रयोग कहीं तो बड़े रोचक लगते हैं और कहीं कथा कहन में बाधक भी महसूस होते हैं, जब दोबारा पन्ना खोलने पर पुराने सूत्र को समझने के लिए पलट-पलटकर पीछे जाने की कवायद करनी पड़ती है। हालांकि ये प्रयोग इस पुस्तक को कहीं नवीन बनाता भी है और कहीं सामान्य पाठक के हाथ से सरका भी देता है। यह कहन और भाषा सहज और रौ में नहीं, सप्रयास लिखी गई प्रतीत होती है। 

कुल मिलाकर ‘रेत समाधि’ एक ऐसा उपन्यास है जिसे एक बार हर हाथ से गुज़रना तो चाहिए ही, कहन की कठिनता और उलझाव से भरा किंतु यह एक रुचिकर उपन्यास है। कथा का सिरा धीरे धीरे और एकदम अंत में खुलता है । जिज्ञासा अंत तक बनी रहती है कि क्या नायिका मां पाकिस्तान से सदेह सजीव वापस आ सकेगी या नहीं । पर जिस नाटकीय तरीके से उसका अंत दिखाया गया है वह भी चमत्कृत करता है। कथ्य में भी एक बात और चमत्कृत करती है, और गंभीर और तार्किक पाठक के मन में प्रश्न उठाती है, उठाएगी कि जो बेटी एक पत्रकार है और पुत्र इतना प्रभावी सरकारी अधिकारी रह चुका है वह किस तरह से मां के इस गैरज़िम्मेदाराना व्यवहार पर राज़ी हो जाता है और पीछे के दरवाज़े से इस विवादास्पद देश में जाने के लिए साथ चल पड़ता है, क्योंकि वास्तविकता में सरहदों की लाइन आॅफ कंट्रोल इस तरह पार तो नहीं की जाती, भले ही कथा तमाम सरहदों की सीमाओं से परे व्यापक होते-होते संपूर्ण संसार में फैल चुकी हो । फिर भी पैसेंजर ट्रेन की गति से पहली बार पढ़े जाने वाले इस उपन्यास में बाद में धीरे धीरे कोनों अतरों में झांकने, और उन प्रसंगों को चुभलाते रहने का आनंद देने की पर्याप्त क्षमता है। 

अनुजा

(उत्तर प्रदेश त्रैमासिकी में प्रकाशित)

शनिवार, 6 मई 2023

किताब की उम्र पिरामिड से ज़्यादा होती है- नूर ज़हीर

पिछले दिनों ‘लखनऊ एक्सप्रेशंस’ के आयोजन में नूर ज़हीर का कथा पाठ था। अपनी नई किताब अपना ख़ुदा एक औरत: My God is a women के कुछ हिस्सों का उन्होंने इस कार्यक्रम में पाठ किया। इस स्वलिखित किताब का अनुवाद नूर ने ही किया है। नूर हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषााओं में लिखती हैं।

अगले दिन बांग्ला देश के शाहबाग आंदोलन पर बात करने के लिए वो एक कार्यक्रम में शिरकत कर रही थीं! लखनऊ की नूर तीन दिनों तक अपने शहर के साथ अपने शहर वालों के साथ थीं। इस दरम्यान उनसे एक मुलाक़ात, जीवन समाज और समय के बहुत सारे पक्षों पर उनसे बातचीत का मौका मिला। यहां प्रस्तुत है उस लंबी बातचीत के संपादित अंश:  

प्रसिद्ध उर्दू लेखक, मार्क्सवादी चिंतक व इंकलाबी सज़्ज़ाद ज़हीर और रजिया ज़हीर की चार बेटियों में सबसे छोटी बेटी हैं नूर ज़हीर। शोधार्थी, नृत्यांगना, एक्टिविस्ट और लेखक...एक साथ चार भूमिकाओं को जीती हैं नूर। दस वर्ष (1979-89) अंग्रेज़ी पत्रकारिता में गुज़ारे और इस बीच नेशनल हेराल्ड, पैट्रियट और टेक।। तथा प्वाइंट काउंटर प्वाइंट में काम करती रहीं। कथक नृत्य की प्रवीण नृत्यांगना के तौर पर भारत के अनेक स्थानों के अलावा रूस, उजबेकिस्तान, क्यूबा, सिंगापुर और इंडोनेशिया में अपनी कला का प्रदर्शन किया। एक वर्ष तक टाइम्स फेलो और तीन वर्ष तक भारत सरकार के संस्कृति विभाग की सीनियर फेलो रहीं। गए ग्यारह बरस से हिमाचल प्रदेश के किन्नौर और लाहौल स्पीती ज़िलों के आदिवासियों के बीच उनकी मौखिक परंपराओं, नृत्य, संगीत और नाट्य रूपों का दस्तावेजीकरण कर रही हैं। उनकी रचनाओं में चार लंबे नाटक- नयन भरी तलैया, काहे का, पत्थर के सैनिक, मानस हिरण और चैबीस अन्य बाल नाटक हैं। बर्तोल्त बे्रख़्त  के विज़न्स आॅव दि सन जैसे नाटकों का अनुवाद भी इसमें शामिल है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के लिए शेक्सपियर के ‘टाइटस एंद्रोनिकस’ और ज्यां आनूह के ‘आर्देल’ का भी हिन्दी अनुवाद नूर ज़हीर ने किया है।

नूर का बचपन लखनऊ में गुज़रा और बहुत बेहतरीन गुज़रा अपने बचपन को याद करते हुए वो कहती हैं, ‘‘बचपन मेरा बहुत ही खुशगवार गुज़रा। अगर कोई मुझसे पूछे कि दोबारा अगर आपको बचपन मिले तो कैसा जीना चाहेंगी तो मैं कहूंगी, वैसा ही बचपन मिले जैसा मिला...! 

लखनऊ का फैला हुआ घर, ....उसमें बड़े लेखक जो घर पर आते रहते थे...सहज भाव से बैठते थे, हमारे साथ बातें करते रहते थे, और सिर्फ उर्दू के लेखक नहीं.... हमने अपने घर में मलयालम के लेखक भी देखे, फ्रेंच के भी देखे, रूसी भी आते थे, उर्दू के लोग भी रहते थे, हिन्दी भी, कश्मीर से आते थे! ये आज के दौर की चीज़ है कि उर्दू हिन्दी अलग है हिन्दी, बंगाली अलग है। उस वक्त ये था कि प्रगतिशील आंदोलन मे सभी लेखक थे और सिर्फ वो लोग लेखन की बात नहीं करते थे, पाॅलिटिक्स, महिलाओं के मुद्दे, दलितों के मुद्दे, किस चीज़ तवज्जो दी जानी चाहिए, किस चीज़ पर कम कर देनी चाहिए, क्या चीजें उठानी चाहिए, इक्नाॅमिक्स क्या है, ग्लोबलाइज़ेशन क्या है ।  आज जो हम देखते हैं कि लेखन में बहुत कम हो गया है। लेखन लोग यही कर रहे हैं कि बस मैं और मेरी ज़िन्दगी, मेरी सोचना, मेरी मोहब्बत मेरा इश्क...वो नहीं था इसलिए वो बचपन बहुत अच्छा था, बहुत खुशगवार था!’’

ये कौन सा दौर था समय के हिसाब से....?

मेरी पैदाइश सन् 58 की है और मेरी यादें 63-64 से मानी जा सकती हंै। वो एक बनती हुई दुनिया की कहानी थी। हिन्दुस्तानियत, भारतीयता वो पूरी हर बात में जिंदा थी और भारतीयता का बहुत बड़ा अंश था सेक्युलरिज़्म। बचपन में घुट्टी में डाल दिया गया था कि इंसान को इंसान की तरह परखोगे। कभी किसी मोड़ पर ये नहीं सोचोगे कि अरे इसने मेरे साथ दुव्र्यवहार इसलिए किया कि मैं मुसलमान हूं या ये तो ऐसा करेंगे ही क्योंकि ये मुसलमान हैं या ये ठाकुर हैं...इस तरीके की चीजें नहीं सोचनी हैं। और उसको लेकर बराबर लड़ाई होती रहती थी।

अभी के माहौल में जो हम ये देख रहे हैं, बहुत ज्यादा हिंसा और विभाजन और वो भी छोटे छोटे मसाइल को लेकर, और उसे फिर सांप्रदायिकता का रूप दे दिया जाता है, उसकी क्या वज़ह लगती है उन्हें?

अहम मुद्दे घटा दिए गए हैं समाज से, और इसकी कोई वजह नहीं है....ये एक सोची समझी साजिश है पूरे समाज को अपने जरूरी मुद्दों से हटा देने की। इस तरह उलझाया गया है समाज को धर्म में....., और मैं सारे धर्मों की बात कर रही हूं....। ये केवल अलगाव तक नहीं, बल्कि मैं तो ये भी देखती हूं कि छोटी छोटी पूजा और नज़र नियाज़ देने में कितना आडम्बर हो गया है आज....! पहले ये होता था कि अपने घर में छोटी सी पूजा कर ली कि त्यौहार है। और उसके बाद बाहर जाकर सबके साथ मिल कर खाया पिया....। अब उसका इतना ज्यादा आडम्बर हो गया है। 

नूर साहित्य, आंदोलन की दुनिया से जुड़ी रही हैं। 

उस दौर में जब वो बड़ी हो रही थीं तो क्या कोई लक्ष्य बनाया था जीवन का? 

हां, तब तो यह था कि वामपंथी आंदोलन से जुड़े थे तो तब तो यह लगता था कि दुनिया को बदलने में लगा देनी है पूरी ज़िन्दगी पर फिर जब और बड़े हुए तो यह लगा कि पूरे हिन्दुस्तान को तो शायद नहीं बदल सकते, लेकिन ये ज़रूर था जो चीज क़ायम रही, जो सिखाया गया था बचपन से और हमने शायद माना था कि लेखन के ज़रिये समाज को सोचना सिखाया जा सकता है और अगर सोचना सिखाया जा सकता है तो सोचते सोचते वह उन नतीजों पर ज़रूर पहुंचेगा और वह फिर अपना बदलाव खुद करना शुरू करेगा और सवाल उठाना शुरू करेगा।

तब से, उम्र के उस दौर से आज क्या फर्क पाती हैं ?

देखिए समाज को बदलने की जरूरत तो हमेशा रहेगी और समाज को बदलना एक मुस्तक़िल सिलसिला है। यू.एस.एस.आर. या लेफ्ट सोशलिस्ट ब्लाॅक के गिरने की वजह यही थी कि उन्होंने समाज को बदलना बंद कर दिया था कि जितना बदलाव हो गया है वह हमारे लिए काफी है, और इसके आगे बदलाव की जरूरत नहीं है। जबकि समाज का बदलना एक साइकिल है, वो हमेशा चलते रहना चाहिए, उसकी कोशिश हमेशा रहनी चाहिए, सवाल हमेशा समाज पर उठने चाहिए और जवाब हमेशा हासिल करने की कोशिश करते रहना चाहिए। 

जहां तक लेखन का सवाल है, तो तब लोग लेखन पर रिएक्ट करते थे, अच्छा और बुरा दोनों ही। आज मेरे ख्याल से रिएक्शन कम हुआ है और उसको भी मैं ग्लोबलाइजेशन से जोड़ूंगी...एक अंगे्रज़ियत का दौर आ गया है। मैं अपने को हिन्दी और अंगे्रजी दोनों का लेखक मानते हुए कहूंगी कि जब यह फैसला लिया था कि अब हिन्दी/देवनागरी में लिखूंगी तो यह मानते हुए लिया लिया था कि हिन्दी ज़्यादा पढ़ी जाती है लेकिन आज मैं देखती हूं कि ज्यादा तवज्जो अंग्रेजी की तरफ है जो सिर्फ मेरे लिए नहीं पूरे मुल्क के लिए चिंता का विषय है। 

लेखन जिनके बारे में और जिनके लिए किया जा रहा है, उनके पास उसे पढ़ना, लिखना सोचना, इसके लिए कोई समय नहीं है तो ऐसे में लेखन कहां पर, कितना और क्या बदलाव कर पाएगा? या फिर आपको लगता है कि एक खास समूह में बदलाव कर देगा और फिर बाकी के साथ फिर काम करने की जरूरत पड़ेगी।

दोनों ही बातें हैं। पहली बात तो यह कि मैं यह नहीं समझती कि लेखन जो है वो उसी वक़्त तक सीमित रहता है। किताब की उम्र पिरामिड से ज्यादा है। एक किताब आप लिख देते हैं तो उसका असर बहुत दूर तक जाता है और इसीलिए लिखना जो है वो सिर्फ उसी दौर तक सीमित नहीं रहता। जहां तक रही निजी फौरी बदलाव की बात तो जरूर काम करने की जरूरत है और इसमें मैं समझती हूं कि लेखक कहीं अलग नहीं है, वह समाज का ही हिस्सा है और जरूरी है कि वह समाज से ही जुड़ा रहे। आज के दौर की मुश्किल यह है कि हमने किसान के बारे में, मजदूर के बारे में, गांव में जो औरत है, जो औरत रेड लाइट एरिया में है, जो कस्बों में हैं उनके बारे में जानकारी रखनी कम कर दी है। जो ताकत प्रेमचंद की क़लम में थी वो हमारे क़लम में इसलिए कम हो गयी है क्योंकि हम ये सब जानकारियां नहीं रखते। हममें से कितने लोग जानते हैं कि कर्नाटक में जो किसान आत्महत्या कर रहे हैं वो किन वजहों से कर रहे हैं। उस कपास में ऐसा क्या है, किस तरह से फर्टिलाइजर्स पर से सब्सिडी हटाई जा रही है, किस तरह से सिंचाई के साधन नहीं हैं, किस तरह से बैंक लोन दिया जा रहा है और किस तरह से बैंक्स जो हैं, वो गुंडे पाल रहे हैं कि जाओ जाकर वसूली करो जाकर।

तो किस तरह से हमें सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्तरों को बदलना चाहिए कि समाज का कल्याण किया जा सके?

देखिए, पहले तो मुझे इन शब्दों से एतराज है कि समाज का कल्याण करना चाहते हैं। समाज में जो बदलाव है वो भीतर से आता है। ज़ेहनी और दिमाग़ी तैयारी में जरूर आप सहयोग दे सकते हैं। जो कल्याण की बात है वो ऊपर से थोपी गयी चीज़ होती है और वो कभी भी ग्रास रूट लेवल तक नहीं पहुंचती और वो स्थायी और सतत् भी नहीं होती। मुझे लगता है कि शुरू से किसान को ठगने की नीति के साथ ही बैंक्स आ रहे हैं या उसको आप ग्लोबलाइजे़शन कह लें या वेस्टर्न नीति कह लें या पूंजीवाद कह लें, वो अलग अलग नाम हैं पर उसका मुद्दा एक ही है। जो सदियों से चीजें हो रही हैं उसी का एक तरह से पैकेजिंग और कवर बदल गया है। 

हमारे यहां जो नीति बनाने वाले लोग हैं वो लोग बिक गए हैं। इस ज़मीन के जो किसान हैं, मज़दूर हैं, खेत मज़दूर हैं, फैक्ट्री वर्कर्स हैं उनके बारे में बिल्कुल नहीं सोच रहे हैं। इतना बड़ा करके सार्क जमघट बनाया गया है आठ मुल्कों का और ये पाॅपुलेशन का सबसे डेंस एरिया है सारी दुनिया में, यहां पर स्किल्ड और अनस्किल्ड वर्कर सबसे ज्यादा मौजूद है। मल्टीनेशनल्स यहां आएंगी ही, यह मान कर चलना चाहिए और हमारे जो पूंजीपति हैं वो भी फैलेंगे, बड़े होंगे। हर दूसरे साल सार्क सम्मिट होता है, हमारी सरकारें कभी ये बात नहीं करतीं कि हमारा लेबर कैसे प्रोटेक्टेड होगा! हमारे कांट्रैक्ट लेबर को क्या वेज दी जाएगी! क्यों नहीें ये आठ मुल्क बैठकर ये तय करते हैं कि नहीं भई, मिनिमम वेज तो इतना होगा, यही इंडिया में इतना है, पाकिस्तान मंे इतना हो जाएगा, नेपाल में इतना, बांग्ला देश में इतना टका हो जाएगा, अफगानिस्तान और श्री लंका में इतना हो जाएगा। क्यों नहीं हम तय करते हैं क्योंकि हमारे नीति बनाने वालों की दिलचस्पी ही नहीं है कि लेबर को प्रोटेक्ट करें। 

ये जो हमारे समय में इतनी हिंसा और यौन हिंसा बढ़ गयी है, इसकी वजहें क्या हैं, इसकी सज़ा क्या हो और इसे रोका कैसे जाए?

सज़ा तो किसी एक घटना से जुड़ी हुई होती है लेकिन समाज की सोच को बदलना मुस्तक़िल प्रक्रिया है, उस पर काम लगातार होते रहना चाहिए। जहां तक महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा का सवाल है उसमें मैं केवल रेप को नहीं गिनूंगी, उसमें मैं डोमेस्टिक वाॅयलेंस को भी गिनूंगी, मैं ट्रिपल तलाक़ को भी गिनूंगी, मैं मेहर न देना, बच्चों की मेंटीनेंस न देना, उसको भी गिनूंगी, उसमें जो तेज़ी आयी है उसकी वजह यही है कि पेट्रियार्की अपने आखिरी चरम में है। 

मुुंबई की इस लड़की को तो मेरा जी चाहता है, मैं गले लगा लूं, बहुत बहादुर लड़की है ! वो एक मिसाल है अपने आप में और एक तमाचा है पेट्रियार्की के मुहं पे कि देखो जैसा तुम समझ रहे हो कि हम मुहं छिपाते फिरेंगे, हम मुहं छिपाते नहीं फिरेंगे।

क्या वजह है कि सरकार एक पाॅलिसी बनाती है महिलाओं को लेकर ,मगर ग्राउन्ड पर जाकर वो वैसे लागू नहीं होती है ?

जाहिर है। क्योंकि वो लोग पेट्रियार्कल हंै। उनकी अपनी जो छोटी सी सत्ता है वो ग्राम प्रधान क्यों छोड़ेगा ? अब जहां पर रिजर्वेशन कर दिया गया है कि महिलाएं ग्राम प्रधान होंगी, वो शिफ्ट होता रहता है वहां पर अब एक नया नाम निकल आया है-प्रधान पति। वही आता है वही साइन करता है, बैठता है बीडीओ के आॅफिस में। बीडीओ से मैंनेे पूछा तो वह कहता है- ये तो चलता है मैडम। और ये प्रेशर नहीं मौकापरस्ती है।

इस्लाम व अन्य दूसरे धर्मों से बौद्ध धर्म की परंपराओं और विचारधाराओं में क्या फर्क पाती हैं आप?

बौद्ध धर्म ग्रन्थ मैंने जितने पढ़े हैं उससे मैं इस नतीजे पर पहुंची हूं कि बुद्धिज़्म आपको पूरी तरह आज़ाद छोड़ देता है। एक जगह पर तो बुद्धिज़्म कहता है कि आप ही बुद्ध हो। तो आपको अपना रस्ता खुद तलाश करना है जैसे बुद्ध ने किया और अंत में जब बौद्धगया में उनको ज्ञान प्राप्त हुआ उसमें उनको यह समझ में आया कि अपनी ज़िन्दगी इसी तरह से जीना है, इसके आगे कुछ नहीं है, इसके पहले कुछ नहीं है। इसी में से सब कुछ मिलता है, इसी में से सब कुछ खो जाता है। आज जो बुद्धिज़्म इतना पापुलर हुआ है, उसमें से ज्यादा वजह यही है कि वो आपको आपके ऊपर छोड़ता है। 

लेकिन हाल ही में मैंने फिर से वेद पढ़े और मैं समझती हूं काफी हद तक ऋग्वेद और युजर्वेद में भी ये आज़ादी है। वहां भी ये सवाल उठाया जाता है कि क्या कोई है जो मेरी प्रार्थना सुन रहा है या कोई है ही नहीं, मैं ख्ुाद से प्रे कर रहा/रही हूं। तो ये जो फ्रीडम है सोच का, ये वेदों में भी है। दो वेद में तो है ही। सामवेद तो ज्यादा संगीत की ओर है।  और ये फ्रीडम आपको सूफीज़्म में भी मिलेगी। जो अनल हक़ का काॅन्सेप्ट है, आई एम द ट्रुथ! तो वह यह है कि अपने अंदर आप तलाश कीजिए कि सच क्या है... अब ये आपके ऊपर है कि कितना अंदर आप जा पाते हैं।

कथक को लेकर, जो उनकी परम्पराएं थी उससे अलग जो प्रयोग किए उन्होंने, वो क्या हैं ?

दो तरीके के प्रयोग हुए। एक तो जो पारम्परिक पात्र थे, उनमें भी जो अलग चीजें थीं, मैं जिस तरह से कंसीव करती हूं कृष्ण को, वो बहुत बड़े पाॅलिटीशियन हैं, बहुत बड़े योद्धा हैं, बहुत अच्छे दोस्त हैं। मैं चाहती थी कि वो सारे इंटरप्रिटेशंस, उन कैरेक्टर्स के बारे में, मेरे डांस में आएं, और मैंने वो प्रयोग किए। 

जैसे निराला की राम की शक्ति पूजा, उसको यह माना गया कि ये तो वो राम का ट्रेडीशनल इंटरप्रिटेशन नहीं है। ये तो राम दुखी भी हैं, तड़प भी रहे हैं सीता के लिए। तो उसको लेकर मैंने जहां जहां किया, बहुत अच्छा रिस्पांस रहा, उसको बहुत पसन्द किया गया। 

दूसरी चीज़ ये कि जो नए मुद्दे हैं, आज़ादी का मुद्दा है, इंकलाब का मुद्दा है, औरत की आज़ादी का मुद्दा है, बराबरी का मुद्दा है, उस पर भी जो लिखा जा रहा है उसको भी कथक में नज़र आना ज़रूरी है। उसको भी किया है और वास्तव में अनबन जो शुरू हुई कि ये कथक नहीं है, वो इसी पर हुआ है कि आप औरत की आज़ादी को कथक में कैसे उठा सकती हैं! मेरे लिए राधा बहुत एक आज़ाद औरत है। मियां भी हैं उनके कहीं न कहीं एक पर वो न मियां की बात सुनती है न सास की, उनको इश्क़ है कहीं एक बाहर...। ये इंटरप्रिटेशंस लोग नहीं लेना चाहते, नहीं बात करना चाहते जबकि ये तो हमारे हर मंदिर में मौजूद हैं, उनकी पूजा की जा रही है। तो ये हमारे कल्चर की जो ताक़तें हैं, उसको छोड़ दे रहे हैं, क्यों छोड़ रहे हैं! आई थिंक वी शुड एक्सेप्ट गाॅड लाइक वन आॅफ अस !

अपना ख़ुदा एक औरत , इसकी मूल प्रेरणा कहां पर है और इसका संदेश क्या है ?

शुरूआत तो वहां से हुई जहां से शाहबानो का केस पढ़ना शुरू किया। मैं पेट्रियट में नौकरी कर रही थी और दानियल लतीफी के यहां जाना शुरू किया, वहां बैठना शुरू किया और उनसे बातें शुरू कीं। वहां से ये लगा कि ये औरत तो लड़ाई सच की लड़ रही है, हक़ की लड़ रही है, इसको हक़ मिलना चाहिए। फिर फैसला आया, जो कि उसके हक़ में गया और फिर उस फैसले को उल्टा गया। 

वो बहुत बड़ा सेटबैक था, मेरे अपने सोचने के लिए भी, जो मुझे लग रहा था कि डेमोक्रेसी में लगता था, सब कुछ ठीक हो जाएगा। और मैंने दानियल लतीफी को भी बहुत बुरी तरीके से टूटते हुए देखा, जो कि इतने स्ट्रांग थे, लेफ्टिस्ट थे, औरतों के लिए खड़े होने वाले थे।  जिस दिन फैसला आया हक़ में, इतने खुश थे, कह रहे थे कि अब तो तैयारी करो अब तो बड़े बड़े बदलाव होंगे इस्लामिक लाॅ में। और वही जब फैसला उलट गया तो न रोए न हंसे, बस चुप....घंटों दीवार देखते रहते थे। तो ये जो उनका टूटना था इसने भी मुतासिर किया। फिर जो सीपीआई, सीपीएम, लेफ््ट आॅरगेनाइजेशन जितनी हैं, उनमें जाकर सबसे बात की कि आप लोग क्यों नहीं इसे फैलाते गांव गांव जाकर। तो उनका जो रवैया था कि नहीं मुसलमान ही बदलेंगे, हम अगर कहंेगे तो हमें हिन्दू कहा जाएगा, उसने बहुत डिसार्टन किया, तब लगा कि इस पर और काम करना चाहिए। थोड़ा सा और रिसर्च वर्क किया। 

फिर जो रिफारमिस्ट मूवमेंट था 1940 से, शुरू तो पहले हो गया था लेकिन 1940 में वो नीचे आना, ट्रिपल डाउन होना शुरू हो गया था। तो रिफारमिस्ट मूवमेंट जिस तरह से खत्म हुआ शाहबानो के बाद, वो पूरा पढ़ा, और वहीं से लगा कि इस पर एक किताब होनी चाहिए जो उन मूवमेंट्स से भी कनेक्ट करे और शाहबानो से कैसे खत्म हुआ वो मूवमेंट, उस पर भी बात हो और आगे फिर किस तरह की तब्दीली औरत चाहती, उस पर भी औरत होने के नाते मैं बात कर सकूं।

तस्लीमा का निष्कासन और सुष्मिता का मर्डर...क्या कहेंगी इस पर....?

तस्लीमा के साथ जो भी हो रहा है वो बंगाल गवर्नमेंट ने किया हो या हिन्दुस्तान की पूरी गवर्नमेंट ने, वह बहुत ग़लत है। किसी जगह वो औरत इस मुल्क के खि़लाफ बात नहीं कर रही वो सिर्फ शरीयत के खि़लाफ बात कर रही है जिसके खि़लाफ बात करने की बहुत सख़्त ज़रूरत है। वो ओपेनली बात करती है। जब फै़ज़ को निकाल दिया गया था पाकिस्तान से, जिया उल हक़ की रिजीम में, तब हिन्दुस्तान की पांच युनिवर्सिटीज़ ने उनको जाॅब आॅफर की थी। लेकिन वही फैसिलिटी हम तसलीमा को नहीं हम लोग दे रहे। ये अपने आप में हमारा एक पेट्रियार्कल एटीट्यूड है। 

सुष्मिता का जो ख़ून है वो मुझे पूरा किस्सा समझ में नहीं आया। जिस वक़्त वो शादी करके गयीं और फिर वहां से निकल कर आयीं। उनकी वो किताब आयी- काबुलीवाला की बंगाली बीवी, उस वक्त उनके लिए मेरे दिल में बहुत सिम्पैथी थी। जब इतनी दुश्वारी, इतनी डोमेस्टिक वायलेंस से वो गुज़री थीं तो क्यों नहीं तलाक ले लिया, दोबारा क्यों वह चली गयीं। 

ये मुझे जो औरत जो खुद पशोपेश में रह जाती है और निकल नहीं पाती, इस पर मुझे थोड़ा सा गुस्सा भी आता है औरतों पे और ये लगता है कि भई आपकी ज़िन्दगी सिर्फ मियां पर तो मयस्सर नहीं है, आप तो और भी चीजें करना चाहती हैं तो आगे बढ़िए करिए। 

बचपन की कोई एक कहानी, कोई एक बात जो कभी आप नहीं भूल सकती हैं। 

बचपन की एक बात जो मुझे हमेशा याद रहती है और जिसे मैं बार बार सुनाती भी हूं और जिस पर लोग अक्सर ऐतराज करते हैं कि नहीं सुनाना चाहिए। मैं कोई दसेक साल की थी, जहां से मैं गिनती हूं कि मेरी नास्तिकता की शुरूआत हुई, वो पूरा किस्सा तो मेरे हिस्से की रौशनाई में दर्ज हैं, लेकिन वो अब्बा का एक रूबाई सुनाना था- ‘ऐ बन्दा-ए-हक़ बात को मेरी पहचान। इन्सान एक हक़ीकत है और अल्लाह गुमान।।’

तो ये जो डाउट उन्होंने उस वक्त सिखाया कि हर चीज़ पर सवाल उठाओ और यह अब्बा ने बहुत ही खूबसूरती से किया कि सबसे बड़ी हस्ती जो मानी जाती है आपकी ज़िन्दगी में, भगवान या अल्लाह, उस पर सवाल उठाओ और बाकी जो दूसरी चीजंे हैं वो छोटी चीजें हैं, उन पर फिर सवाल उठाती रहो, तो यह सिलसिला वहां से शुरू हुआ कि सवाल हर चीज़ पर उठाना है.... तो वह सिलसिला अगर मैं जारी रख सकूं तो मेरी खुशकिस्मती होगी। 

ज़िन्दगी को कैसे देखती हैं?

डिस्कवरी।

प्रकृति में क्या पसंद करती हैं ?

चिड़ियों को। सबसे ज्यादा गाती हैं वो, सबसे ज्यादा अच्छी लगती हैं।

कोई ऐसी चीज़ जो लग रही है कि अभी भी छूटी पड़ी है, करना चाहेंगी?

छूटी पड़ी हुई मगर कर नहीं पाएंगे, ये मुझे पता है। मुझे बहुत बहुत गाना गाने का शौक़ है और मैं बहुत बेसुरी हूं। 

जब बहुत परेशान होती हैं तो क्या करती हैं?

पढ़ते हैं। 

इश्क़ के बारे में कैसे सोचती हैं?

जो भावना आपको काम से अलग न करे, बल्कि जो काम को बढ़ाए और आप उस काम को पा कर उस इश्क़ की तृप्ति को महसूस करें, तो वह इश्क़ है। मेरे खयाल से मैं इस बात में रवीन्द्र नाथ ठाकुर को कोट करूंगी- Life is kept evergreen by death, I would say- Love is also kept evergreen by death. One love is die than another is born, is what keeps love alive.

बुद्धिज़्म के बाद क्या करेंगी?

मैंने अभी एक बड़ा प्रोजेक्ट खत्म किया है नेशनल इंदिरा गांधी सेंटर फाॅर आर्ट्स के साथ, वो है अर्ली उर्दू राइटिंग, इंडिया में। तो 1900 से लेकर 1950 तक का दौर कवर किया है, जो चार वाल्यूम्स में है। दो फिक्शन, एक पोएट्री और एक नाॅन फिक्शन है।

अब नेक्स्ट 14 सितम्बर को मैं जा रही हूं सेंट्रल एशिया, वहां प्रोजेक्ट यही है कि सिल्क रूट के ऊपर बुद्धिज़्म का कैसे विकास हुआ, क्या आर्ट सेंटर्स हैं। ये ट्रेड रूट ही था और मेरी पीएचडी इस पर है कि ये रूट जो डेवलप हुआ, किन किन धर्मों से इस में बदलाव आया। ‘सिल्क रूट’ यानि बनारस से शुरू होकर चाइना, तिब्बत होते हुए फिर सेंट्रल एशिया पहुंचता है और फिर रोम पहुंचता है। तो उस रूट पर, ऐसा मेरा मानना है, जो मेरी बेसिक रिसर्च है कि उस पर सबसे ज्यादा बुद्धिज़्म फैला। वहां पर सेन्टर्स बने, बुद्धिस्ट मठ बने, कल्चरल डेवलपमेंट्स हुए, जातक टेल्स पहुंची। तो वो जो मुस्लिम हो गए हैं इलाके, उनमें बुद्धिज़्म अन्दरूनी तौर पर कैसे सरवाइव कर रहा है, कैसे वो घुल मिल गया है इस्लाम के अन्दर क्योंकि उनका इस्लाम बहुत मुख़्तलिफ है। वो तालिबानी इस्लाम नहीं है। उसमें डांस भी है म्यूज़िक भी है, गाने भी हैं, नाटक भी हैं, तो वह कैसे सरवाइव किया । 

अनुजा 

(सुपर आइडिया में प्रकाशित)

उम्मीद के आखिरी छोर से आगे.........

हम सब कवि हैं/ कथाकार और आलोचक/जो अपनी गंधाती पोशाकें नहीं फेंक सकते/क्योंकि उनमें तमगे टंके हैं......हम सब भाषा के तस्कर/ मुक्तिबोध को और कितना बेचेंगे/ हम जो भाषा को / फंसे हुए अन्न के कणों की तरह/ कुरेदकर निकालते हैं दांतों से/ उसे कब निकालेंगे जिसे निगल जाते हैं / चालाकी से......! 

कुमार मुकुल के सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह ‘ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएं’ की उक्त पंक्तियां स्वयं ही सारी बातों को खोल देती है.....उनका जवाब देती है जो प्रश्न निरुत्तर से आज भी खड़े हैं। यह मुकुल का दूसरा काव्य संग्रह है। पहला काव्य संग्रह ‘परिदृश्य के भीतर’ 2000 में प्रकाशित हुआ था। 

हालांकि कुमार मुकुल अभी अल्पपरिचित कवि हैं परन्तु कविता रचना की दृष्टि से वे नए नहीं हैं। उनकी कविताएं सामान्य होते हुए भी पाठक पर असर छोड़ती हैं। संग्रह की कविताओं में गांव, घर, देस, परदेस से लेकर वैश्विक स्तर की चिंताएं दिखाई पड़ती हैं....और दृश्य भी। भाषा के सुन्दर प्रयोग हैं और ध्वनियों को पकड़ने की कोशिश। एक ओर बिहार के लोक जीवन से वाया साइबर सिटी हैदराबाद दिल्ली तक के विभिन्न विडम्बनापूर्ण दृश्य उनकी कविता के कैनवास पर बिखरे हैं। दूसरी ओर पर्यावरण की चिंताओं से लेकर चांद की बदलती पहचान भी उनकी संवेदना को कुरेदती है। ग्लोबल संस्कृति में प्रेम के बदलते स्वरूप की अभिव्यक्तियां भी हैैं और राजनीति व राजनीतिज्ञों की पर्तें खोलते हुए उसके नग्न बेशर्म रूप की गाथा भी हैं। राष्ट्रीय से अंतराष्ट्रीय राजनैतिक स्थितियों (ग्यारह सितम्बर) पर जैसी करनी वैसी भरनी की एक तटस्थ दृष्टि भी साथ साथ चलती है। 

बेशक संग्रह की सारी कविताएं अपना असर हर बार नहीं छोड़ंतीं , कुछ रेशमी पर्दों सी सरक जाती हैं और कुछ पर पन्ने भी पलट जाते हैं (जैसा कि लगभग हर किताब के साथ होता है।) किन्तु अंत और मध्य की कुछ बेहतरीन कविताएं संग्रह का वज़न बढ़ा देती हैं।

हर दौर की कविता की अपनी कुछ विशेषता होती है और मुकुल के दौर की कविताओं की शायद यही विशेषता है कि संवेदनाएं यथार्थ से जब टकराती हैं तो यथार्थ शेष बचता है और संवेदनाएं चूर चूर हो जाती हैं और कविता में भी उसी मेटीयरिलस्टिक कल्चर की नीरसता प्रतिध्वनित होती रहती है। शायद यह समय ही ऐसा है कि हरेक रचनाकार चिंताओं और क्षोभों से जूझता है और फिर उम्मीद में उठ खड़ा होता है। यह शायद उसकी विवशता है कि कोई और विकल्प नहीं है। उत्तर आधुनिक कवियांे की ज़मीन से जुड़े होने की आकुलता यहां भी है। ‘स्मृतियों में शरद’, ‘कटनी’, ‘पेड़े रामोआर के’, कुछ ऐसी ही कविताएं हैं जो महानगर में निरंतर अकेले पड़ते जा रहे आदमी की चिंता और असुरक्षा का खुलासा करती हैं। उत्तर आधुनिक रचनाकार की शायद यही नियति है। ‘इच्छाओं की कोई उम्र नहीं होती’, ‘तोताराम’, ‘परमपद पाने के निकट’, ‘गूंगे लोग’, ‘बूढ़े बच्चे’,‘उनका मन’, ‘कुदाल की जगह’,‘हर सूद’, अंतरिक्ष में विचार’ आदि ऐसी कविताएं हैं जिनमें इस दौर के यथार्थ की अभिव्यक्ति है, अनेक जीवन स्थितियां हैं, उत्तर आधुनिक समय की सुगबुगाहटें हैं। अनेक सामान्य बिम्बों में कही गयी इन बातों में कोई लकीर बहुत दूर तक जाती है।

‘संतोष ही सुख है’, देवता दुःखी हैं और ‘संत समागम’ व्यंग्य के साथ एक प्रतिरोध की अभिव्यक्ति हैं। ‘पहाड़’ एक अलग तरह के प्रभाव की कविता है। कुछ संक्षिप्त कविताएं हैं -‘धूसर बुदबुद सा’, ‘ एक निगाह’, ‘ खुशी’, ‘महानगर’, ‘दफ्तर में लड़की’, सरीखी जो बिना अटकाए जाने नहीं देतीं। 

प्रेम की श्रृंखला में लिखी लगभग सारी कविताएं शुुष्क हैं। वैश्वीकरण के दौर में प्रेम शायद दैहिक चेष्टाओं तक ही सीमित रह गया है। भावना का उत्ताप और विचारों का उन्माद कुछ भी सक्रिय नहीं होता, प्रेम कविताओं की सतह पर से गुजर जाता है, भीतर नहीं जा पाता। ये दूसरी बात है कि ‘अनुपमा’ जैसी प्रेम कविता अंत तक आते आते आंसू के रचनाकार की तरह प्रेम को पर्दे में छुपा ले जातीे है। उत्तर आधुनिक कवि का प्रेम आज भी सोलहवीं सदी में जीता है.......प्रेम का स्वतंत्र उद्घोष और उसकी अभिव्यक्ति आज भी उसके लिए बहुत मुश्किल है। 

चांद को भी कवि ने क़लम के नीचे उतारा है पर शायद चांद की असलियत का पता लग जाने के बाद उत्तर आधुनिक दौर का कवि चांद और उसकी चांदनी के सौन्दर्य के मोहपाश से मुक्त हो गया।.......और सपनों के टूटने का यही दर्द उसे चांद में कुत्ते का बिम्ब देखने को प्रेरित करता है। वक्त की बदली शख्सियत की ओर संकेत करने में पूर्णतः सफल हैं चांद श्रृंखला की कुछ कविताएं। 

वैसे तो इस दौर की कविता की पर्तें उधेड़ने में कई बार बहुत वक्त लग जाता है तब समझ में आता है कि दरअसल ये कुछ और था जो अनकहा रह गया। परन्तु कविताओं में केदारनाथ सिंह, वर्मा जी, अजय श्रीकांत, गौरीनाथ, काशीनाथ सिंह, अरूण कमल, प्रेम कुमार मणि  की उपस्थिति जिस तरह से हुई है उससे उनकी उपस्थिति का प्रयोजन समझ में नहीं आता क्योंकि यह कोई सूर सूर तुलसी ससि.......वाली बात भी नहीं उद्धृत करती है। कविता (पेेड़े रामोतार के व अन्य कविताएं) अपने राग रंग रस में बहती हुई आती है और पाठक जब तक उस असलियत में डूबता उतराता है, संस्कृति, सभ्यता व जड़ों का प्रतिनिधित्व करने वाले ये निजी संबंध अचानक बैरियर से आ जाते हैं और पाठक के उस भाव बोध को तोड़ देते हैं जो उसमें अपनी जड़ों से जुड़े रहने की अकुलाहट से पैदा हो रहा होता है। बाकी तो ये उम्मीद के आखिरी छोर से नयी उम्मीदों के शुरू होने की गाथा भर है। 

पुस्तक: ग्यारह सितम्बर व अन्य कविताएं
कवि:   कुमार मुकुल            
प्रकाशक: मेधा बुक्स  
मूल्य: 150/

(कुछ पुराने पन्नों से...)

अनुजा

छोड़ो कल की बातें......ओ हिन्दुस्तानी....!

आजकल बेकार हूं। बेकार मतलब काम नहीं है कुछ.......मतलब काम की तलाश में हूं। एज़ यूज़ुअल....हमेशा की तरह। किसी के लिए कोई नई बात नहीं है.....मेरे लिए भी नहीं। अक्सर ही ऐसा होता है।.....को कहि सके बड़ेन को, लिहाज़ा मुझमें ही कोई दोष होगा, ये भाग्यवादी बात है। व्यवस्था में गड़बड़ी है, ये क्रान्तिकारी बात है। खैर! जो भी हो मगर कुल जमा सच यह कि मैं बेकार हूं इन दिनों। 

पर बेकारी कभी बेकार नहीं होती। आप कुछ कर रहे होते हैं, यह भी सच नहीं है पर  आप कुछ नहीं कर रहे होते हैं यह भी सच नहीं है। मैं सीख और समझ रही हूं बदलावों को। कोई इसे छापेगा.......? पता नहीं! पर फिर भी लिख रही हूं। 

कोई गुस्सा है? नहीं है। कोई दुःख है ? नहीं, वो भी नहीं है। 

फिर क्या है- शून्य? नहीं, वह भी नहीं है। 

दरअसल हर बार जब बेकार होती हूं, काम की तलाश कर रही होती हूं, तो कुछ जान रही होती हूं। कुछ अपने को, कुछ जग को। पहले स्वतंत्र भारत में ‘कांव कांव’ एक काॅलम निकलता था। और भी अखबारों में निकलता था काॅलम, व्यंग्य का। जिसमें हम जैसे दुखियारे पीड़ित अपना क्षोभ निकाल लेते थे दूसरों पर हंसकर। अब अखबारों ने वह गुंजाइश भी खत्म कर दी। अखबार उत्पाद बन गए और संपादक उत्पादक। तो अब हम हो गए कच्चा माल। अगर हमसे उत्पाद अच्छा बनेगा तो हमें डाला जाएगा। कम से अच्छा बनेगा तो कम और ज्यादा से अच्छा बनेगा तो ज्यादा। मगर हमारा अनुपात तय करने का अधिकार उत्पादक को ही है। 

आज जी चाह रहा था कि हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान.....को जी भरकर कोसूं। मगर कहीं सांप्रदायिकता न फैल जाए और कोई हिन्दू ख़ुमैनी हमारा सर क़लम करने का फतवा दिए बिना ही कहीं हमारा सर न क़लम कर दें यह भी डर सता रहा है। हम तो ऐसा कुछ लिख भी नहीं रहे। जब तस्लीमा को शरण नहीं मिली तो हमारा तो भगवान ही मालिक है। 

खैर! वो जो भी हो। बात दरअसल यह है कि हर बार की बेकारी से जो शाश्वत बात समझ में आती है वो है अपना हिन्दी का जानकार होना मगर अंग्रेजी दां न होना। हर बार जब नौकरी करती हूं या नौकरी ढूंढने के काम करती हूं तो पता लगता है कि हमने तो सारा वक्त यों ही गंवा दिया है। हमें तो कुछ आता नहीं, क्योंकि हमें अंग्रेजी नहीं आती। 

हर बार हमारे हिस्से का इंक्रीमेंट अंग्रेजी वाले को मिल जाता है। काम हम करते हैं और वाहवाही उसे मिलती है जो रिपोर्ट पेश करता है। हमारा उपयोग तो हिन्दी को भुनाने भर का है। 

गए छह महीनों में कितनों से मांगा है काम। अनुवाद और दस्तावेजीकरण। मीडिया और सामाजिक विकास के क्षेत्र में। मगर हर जगह ये मुई अंग्रेजी ही रानी बनी बैठी है। सबको यह समझाते समझाते थक चुकी हूं कि भैये, तुम हिन्दुस्तान में काम कर रहे हो। और आधे से ज्यादा हिन्दुस्तान अंग्रेजी तो छोड़ो ठीक से हिन्दी भी पढ़ना नहीं जानता। तो ये जो सरकारी नीतियों के, उनकी आलोचना और व्याख्या, टीका टिप्पणी के ‘डाॅक्यूमेंट’ बनाते हो न उनका ‘दस्तावेजीकरण’ भी कर दो। भैये, जिसके लिए काम कर रहे हो उसे तो कुछ पता ही नहीं कि कहां क्या चल रहा है। भैये, जरा हिन्दी पर भी अपनी कृपादृष्टि करो। मगर हमारी दाल कहीं नहीं गलती। 

और हिन्दी के विकास के लिए बड़े बड़े सम्मेलन हो रहे हैं फाइव स्टार होटलों में पूरी निष्ठा के साथ। अब भला इनसे कोई ये पूछे कि हर नौकरी के विज्ञापन में अंग्रेजी में फ्लूएंसी क्यों मांगी जाती है? अंग्रेजी में काम करने वाली संस्थाओं और कंपनियों में अच्छे पैसे क्यों मिलते हैं? हर हिन्दी बोलने वाले को हम अंग्रेजी में क्यों डराते हैं? हिन्दी वालों के साथ उनके लिए किए गए काम की रपट हम अंग्रेजी में क्यों बनाते हैं। अंगे्रजी अखबारों से खबर टीपकर उसका हिन्दी में अनुवाद करके हम नए अखबार क्यों निकालते हैं? अखबारों के लिए हमें खबरनवीसों के बजाय अनुवादकों की जरूरत क्यों होती है?

एक बहुत बड़ा नेटवर्क (हिन्दी में इसके लिए कोई शब्द नहीं है.....या शायद कार्यजाल हो सकता है) है, हिन्दुस्तान की उन तमाम सरकारी नीतियों पर नज़र रखता है जो गरीब हिंदी जानने वाले आदमी की प्रगति और विकास के लिए बनायी गयी हैं। मगर आप उनके दफ़्तर में चले जाओ। एक भी काग़ज़ या आदमी हिंदी में नहीं मिलेगा। एक साहिब तमाम मुद्दों को लेकर पैरवी करते हैं। उनको बहुत समझाया- ‘भाईसाहब, इतना काम कर रहे हो, जिसके लिए कर रहे हो, उसे कुछ पता ही नहीं। तो ये सारा हिन्दी में करा डालो, उसका भी भला होगा और हमारा भी काम चलेगा।’ वो बोले- ‘ हां कराना तो है मगर अभी पता नहीं कि कब करा पाएंगे। जब कराएंगे तो आपसे संपर्क करेंगे।’ आज तक वो तय ही नहीं करा पाए कि काम भी कराना है हिन्दी में। 

एक साहब ने दया करके हमें बुलाया, आप हमारी रिपोर्ट बना दो और छपा दो। हमने जाकर उनका काम देखा, रपट लिखी। हिन्दी अखबार में दी। उन्होंने कहा कि हां, हम छापेंगे तो, ज़रा समय लगेगा। उधर बेचारे हमारे साथी पर पैसा देने वालों ने अंग्रेजी में धान बो दिया और लगे सीएनएन को फोन लगाने। अब बेचारी हमारी हिन्दी की क्या बिसात। अब तो हिन्दी भी हिन्दी की बात करते कतराती है। अंग्रेजी वाले हिन्दी वालों के विकास के लिए किए जाने वाले कामों की खबर को खास खबर बताते हैं और हिन्दी वाले 

शाहरूख-शोएब, सेंसेक्स-चिदंबरम, सोनिया-माया-जया-आडवानी को। समझ में नहीं आया कि मसला क्या है? पंडित जी से पूछा, कहे- बेटा, जिसके पास जो नहीं होता न वो उसी के पीछे भागता है। अंगे्रजी के पास दरिद्रता नहीं तो वह दरिद्रता से कमाता है, ऐश करता है। हिन्दी वाले के पास ऐश्वर्य नहीं तो वह उसकी बात कर जितना पाता है उसमें संतोष ढूंढने, और के लिए हाथ पांव मारने की कोशिश करता है। 

वो तो ठीक है पंडित जी मगर हम क्या करें। हम तो ‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम' 

न इधर के रहे न उधर के रहे’ वाली स्थिति में फंस गए हैं। अंग्रेजी हमारे पास है नहीं कि हम इस महंगाई का मुकाबला कर सकें और हिन्दी हमें इतनी ताकत देती नहीं कि इस महंगाई से लड़ सकें। तो हम क्या करें? अब तो दाल रोटी खाओ प्रभु के गुन गाओ भी नहीं कह सकते। दाल का भी मोल चुकाने लायक नहीं रह गए हैं। 

तो बच्चा भूखे ही रहो और प्रभु के गुन गाओ। पंडित जी सिधारे। 

(कुछ पुराने पन्नों से....)

अनुजा

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

कुछ कविताएं

दीवारें 


दीवारों के सिर्फ  कान नहीं होते....
ज़बान भी होती है....
सन्नाटे को तोड़ती है...
खुसुर पुसुर करती है...!

चौंक जाती हैं दीवारें सन्नाटे में
चूल्हा जला लेती हैं...
दाल खदबदाने लगती है...!

उसकी खदबदाहट से 
गूंजने लगता है सन्नाटा...
दीवारों की ज़बान चलने लगती है.....


बतियाने लगती हैं  वो
आपस में....
तुम्हारे मेरे मौन के बीच....


दीवारों  के सिर्फ  कान ही नही होते...
ज़बान भी होती है.....!


2. 

जीवन

जीवन जैसा है
इच्छाएं भी वैसी ही होनी चाहिए...
जीवन ऐसा
और 
इच्छाएं वैसी क्यों हों....
इतने द्वंद्व की ज़रूरत क्या थी...!

 

जीवन देना था वही...
जिसकी इच्छा देनी हो.....
इच्छा देनी थी वही....
जैसा दिया था जीवन.....
 
नमक तो नमक
पानी तो पानी.....
नमक को पानी 
और 
पानी को नमक में 
बदलने की कवायद
बेमतलब क्यों.....
होती किसी आज़ादी के लिए
तो ठीक थी....!

 

किसी के स्वरूप को 
बेवजह बदलना....
क्यों बदलना....
बलिदान नहीं....
शोषण है....!


3. 

मैं

मैं पेड़ थी...
किसी जंगल की....
मुझे आंगन क्यों दे दिया....!
 
केवल आंगन नहीं....
आंगन के भीतर कोई एक कमरा....
अंधियारा....
जहां न है 
नीलाकाश....
न बरसता है सावन....
न कुहुकता है कोई पंछी....
 
शाखें सूनी हैं....
कोई घोंसला नहीं है 
यहां मेरी किसी शाख पर....

 

यहां मेरी कोई शाख ही नहीं....
कोई छांव ही नहीं..... 

मैं लहर थी...
मुझे लपट क्यों बना दिया....!

बहाना था किसी झरने के साथ....
नदी की क्रोड़ में
जिसमें डोलती एक नाव....
लहरातीं उर्मियां....
और...
टकराकर भागती चली जातीं
शिलाओं के पार.....
निर्विरोध....
निर्बाध....
निरंतर....

बांधा क्यों कोई बांध...
मेरे सीने पर....!


अनुजा 

संडे नवजीवन में प्रकाशित