मंगलवार, 16 मई 2023

रेत समाधि के बहाने...!


पढ़ने की लगन बचपन से थी । साहित्य के क्लासिक्स पढ़े अपने पढ़ने की लगन में, बेपरवाह । प्रेमचंद को ऐसे पढ़ा जैसे बस लहर बहती है। साहित्य के भीतर छिद्रान्वेषण के लिए कभी जगह नहीं पाई । जिस किताब और लेखक ने बांधा, उसे पढ़ते गए । साहित्य की सामयिक गतिविधियों के संपर्क में जब आए तो उस दौर के लेखकों से परिचय बढ़ा । महिला लेखन के दौर में अनेक लेखिकाओं के साथ ही गीतांजलि श्री को पढ़ने की बड़ी ललक रहती थी, पर कभी ऐसा संयोग हो ही नहीं पाया कि उनकी किसी कहानी, उपन्यास या संग्रह को पढ़ पाती । बीच में काफी लंबी लाइन होती थी। इस बरस अंततः गीतांजलि श्री के लेखन से परिचय हो ही गया । जब ‘रेत समाधि’ चर्चा में आई । किसी हिंदी उपन्यास को बुकर पुरस्कार मिला । हिंदी की दुनिया में यह एक बड़ी उपलब्धि थी । हालांकि ‘रेत समाधि’ को पुरस्कार मिलने का माध्यम उसका अंग्रेज़ी अनुवाद ‘टाॅम्ब आॅफ सैंड’ बनी पर अंग्रेज़ी में ही सही, श्रेय तो मूल कृति को ही जाता है। अब एक छटपटाहट बनी कि किसी तरह इस किताब को पढ़ा जाए और अंततः वह किताब हाथ आ ही गई। 

किताब पढ़ने के बाद मन में अनेक प्रश्न उठे, अपनी भाषा और कहन के कलेवर में अद्भुत रचनात्मकता से युक्त इस उपन्यास के साथ अंग्रेजी में कैसे न्याय किया गया होगा, क्योंकि अनुवाद का अपना एक संसार होता है, और हर भाषा की अपनी सीमाएं और शैली । अब रेत समाधि की भाषा, कहन और प्रस्तुतिकरण, जो सामान्य तौर उपन्यासों के शिल्प और शैली में अत्यन्त भिन्न है, अपनी कथा और कहन में वह जितनी सामान्य, असामान्य और चमत्कारिक है क्या अंग्रेज़ी में वैसे ही प्रयोग किए गए, यथावत्? 

क्या एक भाषा से दूसरी भाषा में जाने पर चमत्कार कम हुए, कहन को हूबहू वैसा ही रख पाया गया, या अंग्रेज़ी की शैली के हिसाब से उसे बदल दिया गया ? इस जिज्ञासा ने अनूदित रचना की खोज शुरू करवाई और अंततः वह मिली । टाॅम्ब आॅफ सैंड के कुछ पन्ने गूगल के संसार में मिले, और उन कुछ पन्नों में कहन हिंदी से भिन्न है । भाषा के साथ शैली में बदलाव है। कहानी वहां सीधी और सहज चलती है, कहीं-कहीं, कुछ शब्द ध्वनियों का प्रयोग किया गया है। 

इस किताब को किसी एक भाव, समझ या राय के बिना पढ़ा, सिर्फ पढ़ा, रसहीनता और रसज्ञता के बीच झूलते हुए, पकते और आनंदित होते हुए। कथा और कहन के बीच की यह रस्साकशी अंत तक चलती रहती । यकीनन इसकी पढ़ाई पैसंेजर ट्रेन की गति से हुई, फर्क सिर्फ इतना था कि पैसेंजर ट्रेन को किसी स्टेशन से आगे बढ़ने के लिए पिछले स्टेशन से यात्रा पुनः नहीं शुरू करनी पड़ती है पर ‘रेत समाधि’ के पाठक को यह मशक्कत करनी पड़ती है, अब इसे आप इसकी कमी समझिए या खूबी, यह प्रत्येक पाठक का अपना निजी मत हो सकता है। 

साहित्य में प्रवाह और आनंद को खोजने वालों को ‘रेत समाधि’ थोड़ी उबाऊ लग सकती है पर कथा का सूत्र जैसे ही प्रवाह में आता है, यह बांध भी लेती है। कथानक के बीच में मूर्त अमूर्त और प्रतीकात्मक प्रसंग, जो वहां पर अनावश्यक से प्रतीत होते हैं, कथा के रस-रंग को खत्म करते हैं, जैसे- ‘बड़े’ बेटी के घर पेड़ के रास्ते अम्मा को देखने जाते हैं और वहां कौआ संसार की बातें बीच में आ जाती हैं। कौआ संसार समूह की यह कथा बीच में दखलंदाजी प्रतीत होती है। पाठक की ‘बड़े’ की कोशिशों और प्रतिक्रियाओं को देखने समझने की चेष्टा के बीच में यह प्रसंग पूर्णतः अप्रासंगिक और व्यवधान प्रतीत होता है। कौवे, तीतर और तितलियों के ये प्रतीक कहानी के बीच में जगह-जगह पर बिखरे पड़े हैं। कहीं पर ये बड़े अरुचिकर और अनावश्यक प्रतीत होते हैं पर कहीं कहानी में रुच जाते हैं ।

बौद्धिक साहित्य के वर्ग से आती हुई कई रचनाएं अपनी विशिष्ट शैली और विधा के कारण चर्चित रहती हैं, पसंद की जाती हैं, वे अपनी बौद्धिकता और चमत्कार में बड़ी सहज और ज़मीनी प्रतीत होती हैं, किंतु हाँ, इसके उलट ‘रेत समाधि’ में कई स्थानों पर बौद्धिकता और चमत्कार जबरदस्ती बोया गया लगता है और वो भी किसी विशेष बिंदु को रेखांकित करने की मांग पर नहीं। अन्यथा ‘रेत समाधि’ की पूरी कथा कुछ सर्गों या भागों में बड़े स्पष्ट रूप से बँटी दिखाई देती है। यह एक दुखद दुखांत कथा है जिसे गीतांजलि श्री ने बड़े खिलंदड़े अंदाज़ में आनन्दमय रोचक तरीके से इस तरह प्रस्तुत किया है कि जीवन, समाज, समय और सभ्यता के गहन गंभीर मुद्दे भी बिना किसी अवसाद के पाठक के भीतर उतरते जाते हैं, यह दूसरी बात है कि इसके लिए किताब एक से अधिक बार पढ़ना ज़रूरी है।  

कथा एक 80 बरस की वृद्ध माँ के रूपांतरण की कथा है, जो अपने पति की मृत्यु के बाद अवसाद में है। वही मुख्य किरदार है, जिसकी विरक्ति पुत्र के रिटायरमेंट के बाद के घटनाक्रम में दिखाई देती है और वहाँ से बढ़ती हुई कथा उसके खोने, मिलने और फिर बेटी के घर में रहने तक आती है। यहाँ वह अपने जीवन को अपने मन से जीती दिखाई पड़ती है। धीरे-धीरे खुलती हैं उसके भीतर की शांत पड़ चुकीं इच्छाएं, अपेक्षाएं, रुचियां, सपने और स्मृतियां । भूला बिसरा सब कुछ वह जीना शुरू कर देती है। यह दरवाज़े की ओर पीठ किए ‘नईं नईंईंईंईंईं’ कह अपने में छोटी होती जाती माँ नहीं है। यह अपने विस्तार में फैलती औरत है, जिसके भीतर स्मृतियों, कौशल और जीवन का संसार खुलता है। यहाँ प्रकट होती है रोज़ी, और रोज़ी के साथ ही उसके जीवन की एक दूसरी धारा, दूसरा रूप दिखाई पड़ता है, जो उसके बच्चों की समझ से भी बाहर है । रोज़ी का मरना और माँ बेटी का पाकिस्तान जाकर चिरौंजी देना इस आख्यान का अंतिम अध्याय है जहाँ जाकर यह बात खुलती है कि माँ और रोज़ी बँटवारे के समय एक साथ पाकिस्तान से दो बच्चियों की शक्ल में हिंदुस्तान ढकेल दी गईं। बेटी पर अब खुलता है कि रोज़ी से माँ का इतना प्रेम क्यों है। पाकिस्तान मंे अपने घर, मकान और लोगों से मिलते हुए माँ अपने पुराने प्रेमी या शौहर तक पहुँच जाती प्रतीत होती है, शुरू से दबी-ढकी कथा यहाँ आकर खुलती है कि यह विभाजन और किशोरवय में बिछुड़े अपनों की पीड़ा, और रेगिस्तान में भागती बचती दो बच्चियों के संघर्षों की सो गई स्मृतियों के दुःखों से बुने वो धागे हैं जो अब तक सुलझाए नहीं गए । कथा को इस विकास तक लाने के लिए तमाम घटनाएं, प्रसंग और प्रहसन रचे गए हैं।

जीवन इतना छोटा और संक्षिप्त नहीं है कि इसी से शुरू और खत्म हो जाए, वह अपने विकास में विस्तृत हुआ और बच्ची चंदा ‘चंद्रप्रभा देवी’ होती है, एक भरे पूरे परिवार की मुखिया जो उम्र के इस पड़ाव पर आकर छोटी होती जाती है। यह छोटे होते जाना, सिमटते जाना दरअसल अंतर में स्मृतियों के विस्तार का संकेत है, जो सामान्य सामाजिक जीवन जीने वाली परंपराओं को समझ नहीं आता है। यही स्मृतियाँ वो तितलियाँ हैं जो, उसकी छड़ी के खोलने बंद होने पर उड़ती रुकती हैं। छड़ी ही शायद वह सहारा है, जो उसे हौसला देती है, वापस यात्रा करने की। इस आदि-अंत की पूरी गाथा के बीच में पारिवारिक सदस्यों, उनके जीवन और रोज़मर्रा की घटनाओं को तरतीबवार बँधी हैं । रिटायर बेटे की तरतीबवार, और अविवाहित बेटी की बेतरतीब बोहेमियन ज़िंदगी से उनकी नागवारी की कथा। इसके बीच में गुँथे दिलचस्प संवाद, माँ के आड़े तिरछे जवाब कथा को रोचकता से बुनते हैं। एक पूरा जीवन, जिसमें कई जीवन और यादें गुंथी हैं, प्रसंग और प्रवाह के साथ उपन्यास का विकास करते हैं। किंतु पात्रों और घटनाओं की इस बुनन के मध्य अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक बिंदु भी हैं । मसलन, परिवारों में चलने वाली राजनीति, बहू का दीनता प्रदर्शन और बेटी की आलोचना । ‘बड़े’ की बहन से नाखुशी और अलगाव । मां को अपने ही पास रखने की अबोध दंभी ज़िद और बेटी के पास मां के रहने की अस्वीकार्यता, बेटी के अपनी चयनित स्वतंत्र जीवन-शैली पर मंथन करता मन, ये केवल पारिवारिक मतभेदों, असुरक्षाओं को ही नहीं दर्शाते, हमारी पूरी सामाजिक सरंचना, सोच और मनोविज्ञान को भी खोलकर सामने रख देते हैं। वहीं दूसरी तरफ समाज, परिवार में स्त्री की भूमिका, उसके स्थान और छवि के बारे में बताते हैं। स्त्री केवल साधारण तौर पर मनुष्य नहीं है, विभिन्न भूमिकाओं और चरित्रों में उसकी पहचान अलग है और उसी के अनुसार उससे व्यवहार। यहां परिवार या रिश्तों की मर्यादा भी उसे नहीं बख्शती । 

दूसरी तरफ माँ के किरदार को देखें, तो ‘बड़े’ के घर में दरवाज़े को पीठ दिखाए अपनी स्मृतियों के साथ जीती वृद्धा, बेटी के घर जाते ही एक मुक्ति का उत्सव बन जाती है। माँ के किरदार का यह रूपांतरण वह बोलता है जो कहानी में सीधे-सीधे नहीं कहा गया है, यदि पाठक सुनना चाहे तो । रोज़ी के किरदार की रचना और माँ से उसका बहनापा वास्तव में घरों में, परिवारों में, समाज में किन्नरों की एक भिन्न छवि और भूमिका को गढ़ता है, उनके स्वीकार्य को सहज करता है। कहीं एक संदेश भी है इसमें कि संघर्ष और दुःख का साथ लैंगिक भेदभाव से कमज़ोर नहीं पड़ता, बल्कि समय के साथ गहरा होता जाता है, भले ही बीच में कितनी ही लंबे फासले हों। रोज़ी की मृत्यु किन्नर समाज के अकेलेपन और चुनौतियों को दर्शाती है। ऐसे बहुत से छोटे बिंदु हैं, जो ऐसे बहुत से मुद्दों पर बात करते चलते हैं । कथा का चरम विकास माँ का बाॅर्डर पार कर पाकिस्तान जाना, खैबर में कैद होना, और कै़द में कुछ इस तरह निश्चिन्त होना, मानो उसका अपना ही घर हो। हाँ, अपना ही तो घर था, जहां से विभाजन के समय बेदखल हो देश के दूसरे हिस्से में आ गई थी, पीछे छूट गया था कितना कुछ। बेशक यह कथा काल्पनिक हो सकती है पर ये अब  भी जीवित बहुत से वृद्धों की कथा हो सकती है। विभाजन के समय की दुश्वारियां, दुःख, संघर्ष और अपनी ही मिट्टी में विदा कहना, अस्सी बरस तक का जीवन जीने वाली किसी वृद्धा के भीतर की एक कितनी गहन कौंध हो सकती है, इसे समझना, बूझना और महसूस करने-कराने में समर्थ है कथा।

हालांकि इस कथा के कहन को पहचानने की चेष्टा करती हूँ तो कहानी सुनने-सुनाने की कोई धुंधली सी याद जे़हन में रह-रहकर उभरती है, पढ़ने की नहीं । कई बार जो एक बात मन में कौंधती है कि तमाम अनावश्यक से लगते प्रसंग और प्रहसन, जो कथा के बीच में एक संदर्भ प्र्रसंग से परे चले जाते प्रतीत होते हैं, वे, और कथा की कहन, वे लोक की कहन से प्रेरित प्रतीत होते हैं । एक कहानी के भीतर गंुथी हुई है दूसरी कथा । गांव की  चैपालों पर गढ़ी और कही जाने वाली कथाएं, जो किसी मस्त कथावाचक या किसी गांव के किसी यायावर गड़रिये, जिसके पास अनगिनत घरों और लोगों की कहानियों का जमावड़ा होता है, जिसके कहने का अंदाज़ बिल्कुल जुदा होता है, ऐसा कि हर कोई कहानी सुनने को बैठ जाए, जिनमें कहानी के सिरे तमाम अप्रासंगिक प्रसंगों और प्रहसनों के बावजूद अपने प्रवाह में बहते रहते हैं, रेत समाधि की कथा-कहन उन कथाओं को कहने वालों के अंदाज से भी प्रेरित प्रतीत होती है।

कई बार ऐसा लगता है कि बचपन में किसी मेले में किसी कथा की कहन के आनंद का कोई सूत्र मन-मस्तिष्क में छूट गया, मन उसे बुनता गढ़ता रहा और किसी कल्पित और सत्य कथाओं के बीच के किसी कथानक को बुनने के समय में वही शैली और कहन रुचिकर कलात्मक तरीके से कलम में उतर आई। इस भाषा और कहन में पूरी कथा को अभिव्यक्त करने के लिए अपार धैर्य और मशक्कत की जो ज़रूरत थी, वह भी पाठक को महसूस होता है, जब वह इसे पढ़ता है जिसका बिंदु नाद कहीं भीतर सदियों तक शायद लेखिका के भीतर गुनगुनाता रहा होगा, और पढ़ने के बाद पाठक के भीतर भी गुनगुनाता रहेगा। 

यह सिर्फ मेरी कल्पना और अनुमान है, जो इस कथा को पढ़ते हुए मेरे भीतर पके हैं, और यह ही शायद इस पुस्तक की सफलता है कि पाठक के सोचने और समझने के लिए इसमें कई सूत्र हैं। इस कथा में कहन के भिन्न, अनूठे व ज़मीनी प्रयोग हैं। ये प्रयोग कहीं तो बड़े रोचक लगते हैं और कहीं कथा कहन में बाधक भी महसूस होते हैं, जब दोबारा पन्ना खोलने पर पुराने सूत्र को समझने के लिए पलट-पलटकर पीछे जाने की कवायद करनी पड़ती है। हालांकि ये प्रयोग इस पुस्तक को कहीं नवीन बनाता भी है और कहीं सामान्य पाठक के हाथ से सरका भी देता है। यह कहन और भाषा सहज और रौ में नहीं, सप्रयास लिखी गई प्रतीत होती है। 

कुल मिलाकर ‘रेत समाधि’ एक ऐसा उपन्यास है जिसे एक बार हर हाथ से गुज़रना तो चाहिए ही, कहन की कठिनता और उलझाव से भरा किंतु यह एक रुचिकर उपन्यास है। कथा का सिरा धीरे धीरे और एकदम अंत में खुलता है । जिज्ञासा अंत तक बनी रहती है कि क्या नायिका मां पाकिस्तान से सदेह सजीव वापस आ सकेगी या नहीं । पर जिस नाटकीय तरीके से उसका अंत दिखाया गया है वह भी चमत्कृत करता है। कथ्य में भी एक बात और चमत्कृत करती है, और गंभीर और तार्किक पाठक के मन में प्रश्न उठाती है, उठाएगी कि जो बेटी एक पत्रकार है और पुत्र इतना प्रभावी सरकारी अधिकारी रह चुका है वह किस तरह से मां के इस गैरज़िम्मेदाराना व्यवहार पर राज़ी हो जाता है और पीछे के दरवाज़े से इस विवादास्पद देश में जाने के लिए साथ चल पड़ता है, क्योंकि वास्तविकता में सरहदों की लाइन आॅफ कंट्रोल इस तरह पार तो नहीं की जाती, भले ही कथा तमाम सरहदों की सीमाओं से परे व्यापक होते-होते संपूर्ण संसार में फैल चुकी हो । फिर भी पैसेंजर ट्रेन की गति से पहली बार पढ़े जाने वाले इस उपन्यास में बाद में धीरे धीरे कोनों अतरों में झांकने, और उन प्रसंगों को चुभलाते रहने का आनंद देने की पर्याप्त क्षमता है। 

अनुजा

(उत्तर प्रदेश त्रैमासिकी में प्रकाशित)

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