रविवार, 18 दिसंबर 2011

गहरी काली रातों में...ग़ज़ल

वक्‍़त का ये कुसूर है यारों
मुझको भी अब सुरूर है यारों ।

मैं ही उस पर फिदा नहीं हूं बस
वो भी कुछ कुछ ज़रूर है यारों।

यूं ख़ताओं को माफ़ उसने किया
तख्‍़त पर बेक़ुसूर है यारों ।

उसका बिस्‍तर बिछाओ आंख लगे
वो बहुत थक के चूर है यारों ।

मैं समझता था कट गया है सफ़र
घर मगर अब भी दूर है यारों ।

जबकि शीशों पे बाल आए हैं
तुमको किस पर ग़ुरूर है यारों।

जानता है समझ रहा है सब
वो नशे में ज़रूर है यारों

अनुजा
30.11.1996

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

तुम्‍हारे जाने के बाद.....

उस छत पर
जिसके एक कमरे में
रहा करते थे तुम...
अब धूप
सूनेपन के साथ
करती है चहलकदमी ...
एकदम गुमसुम और खामोश
रहती है वो छत....
सर्दी की गुनगुनी दोपहरों....
गर्मी की सुरमई धुंधलाती शामों में
बारिश की गुनगुनाती
छप्‍पकछैय्या के बीच भी
कोई आहट... कोई उमंग....
कोई पुकार....
नहीं आती उसमें से....।

न खामोश सूखते कपड़ों में
कोई रंग छलकता है तुम्‍हारा....
न चटाई पर सजी महफिलों में
दिखाई पड़ती है कोई थाली तुम्‍हारी
मुंडेर पर रखा लैपटॉप....
न नेटवर्क से जद्दोजहद करता डाटाकार्ड..
न 'का बा ?' के साथ
मोबाइल कान पर लगाए
मां की रूआंसी आवाज़ पर.....
उदास होते मन की
धुंधलाती लहरियां
अब खड़काती हैं मेरी सांकल....।

तुम्‍हारे जाने के बाद
धुंधलाई सुरमई शाम में
अब बंद रहता है मेरे कमरे का द्वार
किसी भी आहट के लिए.....।

अनुजा
17.12.11


शनिवार, 19 नवंबर 2011

तुम और मैं

एक मौन.....मेरे तुम्हारे बीच....एक डोर
मेरे तुम्हारे बीच में....

सफर
तुम्‍हारे साथ
तुम्‍हारे बिन.....


छीजती खामोशी ...
दरकती दीवार....
तुम और मैं .....
बस तुम और मैं....
अपने साथ.....।


अनुजा
19.11.11

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

उसके बाद


जिनको दीमक चाट चुकी है क्‍यों पलटूं अब वो तस्‍वीरें ।
जिनका कोई ख्‍़वाब नहीं है लाऊं कहां से वो ताबीरें।।

लाल दुपट्टा नीला कुर्ता मोती वाली लंबी माला।
उसके जाते ही लोगों ने बांटी उसकी सब जागीरें।।

जो थे उसको जान से प्‍यारे जिन पर नाम लिखा था उसका ।
उनके काम न आयीं कुछ तो फेंकी सारी वो तहरीरें।।

अब तो कोई कै़द नहीं है अब आज़ाद फि़जां में घूमो
खुद अपने हाथों से उसने तोड़ी थीं सारी जंजीरें।।

अब कैसे चुप हो बैठा है जाने क्‍या मौसम आया है ।
खामोशी में ही डूबी हैं उसकी सारी वो तकरीरें।।

अनुजा
1997

सोमवार, 14 नवंबर 2011

अशआर

मुहाफि़ज़ आ रहे हैं, रास्‍ते वीरान हो जाएं
कुछ इस्‍तक़बाल के उनके सरो-सामान हो जाएं।।

वो आशिक़ हैं हमारे ही औ पर्दा भी हमीं से है
ये हसरत है कि अब घर बे दर-ओ-दीवार हो जाएँ।।




दोस्‍तों से यही बस गिला रह गया
अजनबी सा कोई आश्‍ना रह गया।।

सब बिछुड़ते गए ख्‍़वाहिशों की तरह
राह में हमसफर रास्‍ता रह गया।।




अनुजा