गुरुवार, 18 अगस्त 2011

भमीरी

हम सब भाग रहे थे
रिफ्यूजी थे
मां ने जितने ज़ेवर थे, सब पहन लिये थे
बांध लिये थे....
छोटी मुझसे.....छ: सालों की
दूध पिला के, खूब खिलाके, एक साथ लिया था
मैंने अपनी एक ''भमीरी'' और इक ''लाटू''
पाजामे में उड़स लिया था
रात की रात हम गांव छोड़कर भाग रहे थे
रिफ्यूजी थे......

आग धुएं और चीख़ पुकार के जंगल से गुज़रे थे सारे
हम सब के सब घोर धुएं में भाग रहे थे
हाथ्‍ा किसी आंधी की आंते फाड़ रहे थे
आंखें अपने जबड़े खोले भौंक रही थीं
मां ने दौड़ते दौड़ते खू़न की क़ै कर दी थी!
जाने कब छोटी का मुझसे छूटा हाथ
वहीं उसी दिन फेंक आया था अपना बचपन....
लेकिन मैंने सरहद के सन्‍नाटों के सहराओं में अक्‍सर देखा है
एक ''भमीरी'' अब भी नाचा करती है
और इक '' लाटू'' अब भी घूमा करता है......!"

गुलज़ार

गुलज़ार..वो पहली मुलाक़ात....वो यादें....

आज गुलज़ार का जन्‍मदिन है.....। हर तरफ उनके प्रशंसकों की बधाइयां हैं।
मुझे याद आ रही है उनसे वो पहली मुलाक़ात......।
ये स्‍वतंत्र भारत के दिन थे....।
तारीख़ आज याद नहीं, पर पुखराज उन दिनों बड़ी चर्चा में थी और मैंनें एक प्रति खरीदकर अपनी एक दोस्‍त के जन्‍मदिन पर उसे भेंट की थी।
गुलज़ार से मैं मिलने जा रही हूं, और साथ्‍ा में जगजीत सिंह भी आए हैं, ये सुनकर उसने एक आह सी भरी थी- हाय रे, हम भी मिलते।
चलो, मैंने कहा। पर वे जाने को तो राज़ी नहीं हुईं, हां मुझे पुखराज पकड़ाई-' इस पर जगजीत सिंह और गुलज़ार के ऑटोग्राफ ले आना।'
मैं और प्रतिभा एक साथ गए थे.....मुझे याद है.....।
पुखराज पर उनके ऑटोग्राफ लिए.....
किसकी है ये तुम्‍हारी... उन्‍होंने पूछा था...
नहीं, मेरी दोस्‍त की है..... मैंने उसे उसके जन्‍मदिन पर दी थी....
पर मुझे नहीं मिली उसके बाद....स्‍टॉक में ख़त्‍म हो गयी थी....।
मैंने सबको दी और मुझे ही नहीं मिली....मैंने शिकायत सी की थी....।
नया प्रिंट आने वाला है..... उन्‍होंने आश्‍वासन दिया।
आज मेरे पास पुखराज है मगर उस कवर पेज के साथ नहीं जो मुझे बेहद पसंद है... किताब और क़लम का....
मुझे शायद सब चाहिए होता है...... पर सब तो हमेशा, हर किसी को नहीं मिलता न...।
जितना मिल जाए उतना ही हमारा हिस्‍सा होता है...।

गुलज़ार नाराज़ थे मीडिया से.....हम उनकी रचनाधर्मिता के प्रशंसकों की तरह उनसे मिलने गए थे.....।
झक सफेद कपड़े पहने वो बैठे थे कमरे में। हमने आने की अनुमति मांगी तो बड़ी सहज और धीमी आवाज़ में उन्‍होंने हमें बुला लिया। हमें उन्‍हें बताना पड़ा कि हम मीडिया से नहीं हैं।
गुलज़ार प्रतिभा के हीरो हैं...... यह नवीन जी ने बताया था मुझे....। नवीन जोशी उन दिनों हमारे संपादक थे।
हम गुलज़ार से मिलने उनके कमरे में गए....प्रतिभा तो उनके आशीर्वाद का हाथ सर पर आते ही भाव विभोर हो रो पड़ी और मेरी समझ में नहीं आया कि उनसे क्‍या सवाल पूछूं या क्‍या बात करूं.....
आप कैसे लिखते हैं.... बस इतना पूछ के रह गयी......।
जो किसी न किसी रूप में आपको हमेशा अभिभूत करता रहा हो...... उसको अपने सामने पाकर आप ख़ुद कैसे गूंगे से हो जाते हैं........... और यह भी एक दिलचस्‍प अनुभव है.......संवेदनशील लोगों की प्रतिक्रियाओं का......।
जो मुझे छू गया :
गुलज़ार से मिलना जैसे साक्षात् कविता से मिलना है.... वे न सिर्फ एक खूबसूरत प्रभावशाली गीतकार, कलाकार, निर्देशक और लेखक हैं बल्कि उनसे मिलकर कोई भी यक़ीन के साथ्‍ा यह कह सकता है कि वे एक बेहतर इंसान भी हैं।
उनकी फिल्‍में अगर देखी जाएं ज्‍यादातर.....आंधी हो या किताब..... या म‍ाचिस या बरसों पहले आयी वो एक खूबसूरत फिल्‍म- खुश्‍बू ।
मिट्टी की महक हर फिल्‍म में बरकरार रही। मुझे आज तक नहीं भूली वो फिल्‍म।
खुश्‍बू के नायक थे जीतेन्‍द्र। लेकिन उनका गेटअप ऐसा था कि बहुत दिनों तक मैं यह समझती रही कि गुलज़ार ही अपनी फिल्‍म खुश्‍बू के हीरो थे। युवा गुलज़ार का झक सफेद कुर्ता पायजामा और चश्‍मे का गेटअप खुश्‍बू के नायक ने क्‍या अपनाया कि वह बिल्‍कुल गुलज़ार का लुक सा लगा।
मैंने काफी बचपन में वह फिल्‍म देखी थी और मैं बहुत दिनों तक यह नहीं जानती थी कि गुलज़ार हीरो नहीं कवि और गीतकार हैं....। खुश्‍बू की खुश्‍बू आज भी मेरे मन को महकाती रहती है। किनारा, लेकिन और रूदाली भी ऐसी ही फिल्‍में हैं जो मैं कभी भी नहीं भूल सकती...।
किनारा के भी एक दृश्‍य में जीतेन्‍द्र ने गुलज़ार का सा चश्‍मा लगाकर उनका लुक लिया था.... और उनका वह गीत... नाम गुम जाएगा...चेहरा ये बदल जाएगा....मेरी आवाज़ ही पहचान है....गर याद रहे.....। सचमुच अपनी पूरी ताज़गी के साथ्‍ा यह गीत एक कालजयी गीत है।
आज भी आंख मूंदकर बिना कुछ सोचे समझे गुलज़ार की फिल्‍म देखने बैठ जाती हूं.....। कितनी बार भी देख लूं कोई भी फिल्‍म.... आप कभी बोर नहीं हो सकते.... सामयिकता और ताज़गी कभी गुलज़ार की फिल्‍मों से कभी ख़त्‍म नहीं होती.....।
गुलज़ार की सभी रचनाएं कालजयी और सादगी से भरपूर हैं... यदि यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी...।
गुलज़ार की नज्‍़में हों, गीत हों या फिल्‍में........ दर्द इतना ज्‍़यादा है कि चाहे कितना भी रिसे ख़त्‍म नहीं होता।
उन्‍होंने कहा ही है-
ये शायर भी अजीब चीज़ है
कितना भी कहे ख़त्‍म ही नहीं होता..... कुछ ऐसी ही कैफियत है उन पंक्तियों की......, शब्‍द इस वक्‍त मुझे ठीक से याद नहीं हैं.....।
ये हैं गुलज़ार....भले ही याद न रहें मगर एहसास रहते हैं।

अनुजा

सोमवार, 15 अगस्त 2011

हरसिंगार

हर सुबह देखती हूँ
ज़मीन पर बिखरे हरसिंगार........

और
सोचती हूं
सुख इतना क्षणिक क्‍यों होता है
……?
खूबसूरत सुबहों का ये बिछोह
……!
और कोई नहीं,

कि रूक कर देखे या पूछे
……
अपनी शाख से बिछुड़कर कैसा लगता है तुम्‍हें
.....?
अद्भुत
है……
लाल सूरज और सफेद चांद का ये साथ
…….
उगते सूरज ढलते चांद का ये खुशनुमा साथ
मिलना और बिछुड़ना एक साथ
नए सफ़र के लिए…..
मगर ये है……!यही है हरसिंगार……!
रात भर जो रहता है किसी शाख का मेहमान…..!
और
हर सुबह बिछुड़ जाता है….!
हर नन्‍हा फूल अकेला…..
अपने आप में, सबके साथ होकर भी……
आईने के सौ टुकड़े करके हमने देखे हैं की तरह……!
मत उदास हो….!
लौट जाओ जीवन की हरारत में..... हमारी रात की सुबह अभी नहीं हुई है ....!हमें तो चलना है पिछली सुबह की याद के साथ......!तुम्‍हारी आंच मुझ तक आती है .....और तुम्हारी बारिश भी भिगोती है मुझे....!मगर हम सब अपनी जगह पर जमे बोनसाई हैं....अपनी दहलीजों में क़ैद.....!
हमारे सिर्फ शब्‍द पहुंचते हैं कानों तक .....
और शायद कभी ख़ामोशी भी......!आंखों तक उंगलियां नहीं जा पातीं.......!
कभी ख़ामोशी को बहते और बोलते हुए सुनो....!
वहां है कुछ...तुम्‍हारे लिए.....
जीवन की तरह.......
बरगद की तरह........
ओस की ठंडक की तरह ....
अपनेपन की तरह......
लौट जाओ जीवन की गर्माहट में.......
सब हैं वहां तुम्‍हारे लिए.....
जिनकी ज़रूरत है तुमको.....!
अनुजा

ओ आकाश......

तुम्‍हारे लिए
सहेजे मैंने हर बार.....
कुछ चुने हुए शब्‍द
मन की दुखती हुई तहों से निकालकर
रूई के गालों से.......
तुम्‍हें हर बार याद किया
अपने अकेलेपन......
और
दुख की सरसराहटों के बीच
स्‍त्री मुक्ति के हर संघर्ष से परे
तुमको देखा सिर्फ प्रेम के लिए
प्रेम......
जिससे उपजती है करूणा......
पर उसी करूणा ने
बांध दिया मेरा मन
फिर एक बार तुम्‍हारे साथ.......
और
जैसा कि तुमने हमेशा किया
रौंद दिया अपने संवेदनशून्‍य कदमों से........
मेरे प्रेम को.......
मेरी करूणा को.......
अब भी गूंज रही है
मेरे दुख में तुम्‍हारी उल्‍लास से भरी हुई हंसी
जिसमें कहीं आहट भी नहीं है कदमों के तले
चरमराते सूखे पत्‍तों से मेरे प्रेम की......
जिसमें कहीं नहीं वो कुछ भी
जो था.......
जो धड़कने लगा था.....
बहने लगा था......
बसने लगा था.......
मैं फिर हूं श्‍मशान में......
चिता की लपटों के बीच.......!

मैं फिर कह रही हूं
ओ आकाश!
क्षमा करो मुझे
मेरे प्रेम के लिए.......!

अनुजा


रविवार, 14 अगस्त 2011

चांद पुखराज का रात पश्‍मीने की

इक सबब मरने का, इक तलब जीने की
चांद पुखराज का रात पश्मीने की।

आज चांद बहुत सुन्‍दर है। पूरे आकाश में अकेला घूमता फिर रहा है...। सितारों की तो झलक तक नहीं है। बादल हालांकि बरस चुके हैं मगर फिर भी ढीठ से आसमान को घेरे हैं।
अभी कुछ देर पहले नमिता भाभी की रातरानी की महक से गुज़री हूं और अब तक सराबोर हूं।
पूरी छत पर चांदनी और उसके बीच में बह बहकर आती रात रानी की महक का आभास....।
ये केवल लेख का नशा नहीं हो सकता........ पक्‍का कहीं आस पास रातरानी इतरा रही होगी........।
बाहर छत पर बहुत सुन्‍दर है। बादलों ने आवारा चांद को फिर अपने आगोश में ले लिया है और उसे घेरे घेरे आगे बढ़ते जा रहे हैं ढीठ से.......। चांद चुपचाप उनके लम्‍स को महसूस कर रहा है...... और अपनी ठंडक को उस भीगेपन से सराबोर करके बिखराता चला जा रहा है।
बादलों से घिरी चांदनी रात का यह खामोश ठंडा सन्‍नाटा.......और भोर की धुंधली चमक में बहती हवा की ठंडक का ताज़ा झोंका..... दोनों ही मुझे हमेशा बांधते हैं.......मगर दोनों ही मुझसे बहुत दूर हैं.........।
अज्ञेय के उपन्‍यास नदी के द्वीप में भुवन का एक डायलॉग मेरे भीतर हमेशा बहता है, जो वह चांदनी को निहारती हुई रेखा से कहता है- 'पगली, चांदनी है। सब न पी सकोगी।'

सुबह सवा आठ बजे दफ्तर की बस को पकड़ने और कैंटीन के खाने से बचने के लिए सुबह सुबह खाना बनाने की जिम्‍मेदारी ने मेरी ये भोर और रात की ठंड को फांकने का सुख छीन लिया है।
जाते हुए हर रोज़ में कोशिश होती है कि अपनी इस खुशी को, इस तसल्‍ली को वापस ले लूं....... छीन लूं वक्‍त से...... पर मशीन में फंसे धागे सी घड़ी की सुइयों में फंसे समय वाली इस जि़न्‍दगी से उसे वापस लाना मुश्किल ही होता जा रहा है......।
नींद मुसलसल पीछे ही पड़ी रहती है और टिप् टिप् बूंदों सा मन में कुछ बहता रहता है सारे दिन........
शायद नींद का कोई अनछुआ सा झोंका.....जो चांद की नरमाई और ठंडी हवाओं की सिहरन से महरूम कर देता है।

15.08.11
आज भी सचमुच चांद बाहर अपने पूरे शबाब पर है....।
चांदनी रात और ठंडी हवा...। बाहर गयी थी नल बंद करने कि चांद ने बाहं पकड़ ली और सरगोशी की- अन्‍दर क्‍या कर रही हो, बाहर आओ न....।
आज ये चांद तन्‍हा है पर यही चांद कभी कभी तन्‍हाई का अकेला साथी होता है।
मेरे कमरे के बाहर की छत काफी बड़ी है। छत पर एक बगिया भी है....। पिछले दिनों जबसे माली बदला है छत और बगिया सुन्‍दर लगने लगी है।
जब से मैं अकेली रहती हूं, यह चांद ही है जो साथ देता रहा है.....। चाहे एकाग्रता का अभ्‍यास करना हो या एकान्‍त से बाहर आना हो, सिर्फ चांद ही अपना साथी रहा है।
दिल्‍ली शहर के बाद इस छोटे से शहर में रहने का यह तो फायदा हुआ ही है। कम से कम चांद सितारों से थोड़ी दोस्‍ती निभ जाती है। बड़े शहरों से तो ये रात और इस रात की छुअन दोनों ही महरूम हैं।

अनुजा