कि
जितना चाहो उतना फैलें
और जब चाहो
सिमट जाएं....
कि
उनके रखने, न रखने
देने या लेने
उठने-गिरने
बनने-बिगड़ने
सहेजने या बांटने
जाने या रहने
पर
उनकी मर्जी का कोई वश न हो.....
औरतें कमाई नहीं जातीं....
कि
जैसे चाहो उड़ा लो....
औरतें युद्ध नहीं होतीं
कि
जीती जाएंगी...
कि
उनके सपनों का कोई मतलब ही न हो....
औरतें दांव नहीं होतीं
कि
लगा दो....
और
भाग्य आजमाओ....।
औरतें
महज़ सम्मान नहीं होतीं...
कि बचाने के लिए
तत्पर रहें सदा आप....
उन्हें जीने दें ...
जीने की पूरी स्वतंत्रता के साथ...
उनकी अपनी अस्मिता के साथ....
उनके पूरे हक़ के साथ...
जिसमें कहीं न हों आप...
उनके
मालिक के तौर पर...
औरतें जायदाद नहीं हैं...
औरतें
वन हैं...
निर्झर हैं...
आकाश हैं....
नदियां हैं...
सूरज हैं...
वृक्ष हैं...
हवा हैं...
पंछी हैं...
औरतें जीती हैं
अपने रंग के साथ...
अपनी पहचान के साथ....
औरतें जायदाद नहीं हैं...
कि
चाहो तो ज़मीन बना लो...
या
चाहो तो कैश करा लो...
चाहो तो सोना बना लो...
या
चाहो तो पगड़ी बना लो...
औरतें
इंसान हैं....
जियेंगी
उनकी अपनी सोच के साथ....।
अनुजा
07.08.1998