पता नहीं ऐसा क्यों है कि अधिकांश लोग निजी, सामाजिक, रचनात्मक इत्यादि के फर्क में उलझे रहते हैं। या तो वे जानते नहीं या जानते हैं, मानते नहीं, अथवा जानकारी केवल दूसरों के लिए होती है। रचना कोई भी हो, उसका आधार बिन्दु कोई व्यक्तिगत अनुभव ही होता है। अपने साथ घटी कोई बात, या किसी और के साथ घटी कोई बात, जिसके साक्षी हम भी होते हैं, उस क्षण में, और वो हमारे अनुभव में शामिल हो जाता है। उस पर हमारी संवेदनाएं, प्रतिक्रियाएँ, या विचार उसे हमारा निजी बना देता है...और इसी निज से शुरू होती है कोई समष्टि की यात्रा, कोई कहानी। पर यह मेरा अद्भुत अनुभव है कि लोग अपनी रचना में से अपने इस निज को किसी और को दिखाना नहीं चाहते। इसे कोई विशिष्ट और नितांत अपना बना कर किसी कोने में छिपा देना चाहते हैं। जबकि ठीक उसी क्षण दुनिया के दूसरे कई कोनों में कोई वैसा ही अनुभव दूसरे कई लोगों के साथ घट रहा होता है। फिर कोई भी अनुभव निजी, या अनोखा कैसे हुआ?
अनुजा
05.04,2024
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