सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

कई बार बच्चों को समझाते हुए ऐसा लगा, ऐसा महसूस हुआ कि अमुक बात मेरे ही भीतर प्रतिध्वनित हो रही है...मेरे ही अपने किन्हीं कठिन क्षणों का सांत्वना पत्र है...जैसे कि यह बात मैं बच्चों से नहीं खु़द से कहना चाहती हूं कि जीवन कभी एक सीधी राह या सरल रेखा भर नहीं है....वह ज़िगज़ैग चलता है, आड़े तिरछे रास्तों पर चलता है और कई बार दौड़ता भी है....उससे हताश नहीं होना है....उसको महसूस करना है....जीना है....सीखना है...और यात्रा पर आगे बढ़ जाना है....! 

कितनी बार...कितनी बार ऐसा होता है कि जो बात समझने के लिए आप किसी अन्य प्रबुद्ध व्यक्ति की शरण में जाते हैं....वही आप खुद कह रहे होते हैं....उस क्षण लगता है कि यह बात आप दूसरों से नहीं, अपने आप से कह रहे हैं....खु़द को समझा रहे हैं....! आह ! जीवन कितनी बार, कितनी तरह से आपको समझाता है...मगर कई बार धैर्य का सिरा आपके हाथ से खींच लेता है....तब आपको भी किसी कृष्ण की ज़रूरत पड़ती है....! शायद सबमें एक कृष्ण है....अलग-अलग अवसरों पर वह भीतर और बाहर प्रकट होता है....!

11.01.2025

अनुजा


व्यष्टि से समष्टि....

पता नहीं ऐसा क्यों है कि अधिकांश लोग निजी, सामाजिक, रचनात्मक इत्यादि के फर्क में उलझे रहते हैं। या तो वे जानते नहीं या जानते हैं, मानते नहीं, अथवा जानकारी केवल दूसरों के लिए होती है। रचना कोई भी हो, उसका आधार बिन्दु कोई व्यक्तिगत अनुभव ही होता है। अपने साथ घटी कोई बात, या किसी और के साथ घटी कोई बात, जिसके साक्षी हम भी होते हैं, उस क्षण में, और वो हमारे अनुभव में शामिल हो जाता है। उस पर हमारी संवेदनाएं, प्रतिक्रियाएँ, या विचार उसे हमारा निजी बना देता है...और इसी निज से शुरू होती है कोई समष्टि की यात्रा, कोई कहानी। पर यह मेरा अद्भुत अनुभव है कि लोग अपनी रचना में से अपने इस निज को किसी और को दिखाना नहीं चाहते। इसे कोई विशिष्ट और नितांत अपना बना कर किसी कोने में छिपा देना चाहते हैं। जबकि ठीक उसी क्षण दुनिया के दूसरे कई कोनों में कोई वैसा ही अनुभव दूसरे कई लोगों के साथ घट रहा होता है। फिर कोई भी अनुभव निजी, या अनोखा कैसे हुआ? 

अनुजा

05.04,2024

गुरुवार, 19 अक्टूबर 2023

छेड़कर वीणा ये किसने.....

छेड़कर वीणा ये किसने 
मृत्यु का है गीत गाया ?
सप्त-सुर के बीच किसने
आठवाँ सुर यह लगाया

फूल का दामन झटककर 
ज़िन्दगी कल पास आयी
लाख चाहा, मन न भीगे
आँख लेकिन डबडबायी 

और छलिया एक भँवरा, 
पी गया सारा मधुर रस
दो दिनों की एक दुनिया
दो पलों में ही गँवायी ।

मुस्कुराहट के चमन के 
कौन ये पतझार लाया ?

आग सी यूँ लग गयी है
जल रहा धू-धू गगन तक
नफ़रतों की आँधियों में 
उड़ गया सबका सपन तक 

एक बगिया थी कि जिसमें 
फूल हर रंग के लगे थे
पर घृणा के यज्ञ में इस 
हो गया जीवन हवन तक

सृजन की इस मधुर बेला 
में है क्यूँ संहार आया ?

इन घृणा की आँधियों का 
कौन   ज़िम्मेदार   होगा
प्रश्न है इतना मगर क्या 
शीघ्र ही हल हो सकेगा ?

व्यर्थ का संहार करके 
फूल का हर घर जला के
क्या बचे श्मशान में फिर 
राज्य कोई कर सकेगा ? 

दिग्दिगन्तों से उठे इस 
प्रश्न ने उत्तर मँगाया ।

मौन, लेकिन मौन केवल 
सब निरुत्तर आज हर पल
कुर्सियों की नीति में इस 
आज खोया घर का सम्बल

कौन दे उत्तर कि जब 
उत्तर छुपा सबने दिया है
जागने वाले को   क्या 
कोई जगायेगा  भला  कल 

कान सबने बंद करके 
शोर है दुगना मचाया ।।

प्रश्न का उत्तर नहीं इस 
और कल पूछेगा कोई 
क्यों भगतसिंह की ज़मीं 
इस सरज़मीं से कहाँ खोयी 

किसलिए फिर एकता के 
प्रश्न से है मुहँ चुराया ?

बन्द कर दो, बन्द कर दो
आज ये संहार सारा 
जो बना सकते नहीं तुम 
क्यों उसे तुमने मिटाया ?

मिल गया सारा सहज क्या
इसलिए आक्रोश है यह 
क्यों नहीं बलिदान का वह 
अमर गायन तुम्हें आया ?

यदि तुम्हें आ जाए वह तो 
पओगे जीवन मधुर रस 
जो नहीं संहार के मन्थन 
में तुमने कभी पाया । 
27.11.1988
अनुजा

बुधवार, 18 अक्टूबर 2023

स्वप्न-सत्य.....!


     स्वप्न तो जितना मधुर है    
     सत्य उतना ही कठिन है !

स्वप्न में तो साथ तुम हो
और फागुन भीगता है
    सत्य लेकिन है यही कि 
    मन अकेला रीतता है ।

स्वप्न तो है पुष्पमय 
      पर सत्य काँटों से भरा है
   स्वप्न है यदि चाँदनी तो
       सत्य सूूरज की तपन है ।

    स्वप्न तो यह कह रहा है
   दीप आशा के जलाओ
    सत्य का लेकिन झकोरा 
    कह रहा मत मन लगाओ ।
             
  स्वप्न यदि मधुमासमय तो
सत्य आँसू से भरा है।
    स्वप्न शीतल छाँह यदि तो
   सत्य मेघों की अगन है!
   
  स्वप्न तो मधुरिम मिलन पर
सत्य बिछुड़न से भरा है
  स्वप्न केवल प्राप्ति लेकिन
सत्य आँखों से झरा है। 
        
 स्वप्न लय, सुर, ताल है तो
 सत्य शापित अप्सरा है।
    स्वप्न दीपक आस का यदि
      सत्य तो तम की किरन है !

 स्वप्न कहता है- मिलेगा
  वो जिसे तुम चाहते हो,
 सत्य हँसता है- मिटोगे
  यदि उसे तुम माँगते हो। 
        
  स्वप्न कहता है- क्षणिक ही 
  पर खुशी से आज जी लो,
सत्य कहता है- मगर ये 
      अब सुनो- तुम आँख भर लो।
      
    जो मिला अब तक, तुम्हारा
था, तभी तुम छीन पाए
       अब न कुछ भी हाथ आएगा
  मेरी यह बात सुन लो !
       स्वप्न क्या टूटी अधूरी कल्पना है
                 सत्य क्या है, स्वप्न का अंतिम चरण है।

    19.09.1995
    अनुजा

   (उत्तर प्रदेश पत्रिका में प्रकाशित )

सोमवार, 18 सितंबर 2023

मैं आँसू का गीति काव्य....

मैं आँसू का गीति काव्य, मुसकान तुम्हारी है साथी
मैं नदी धार सी शान्त सजल, तुम निर्झर की चंचल धारा !

मेरा पथ कितना एकाकी औ’ फिर विषाद से नाता है
लेकिन तव उर को धूप नहीं चन्दा का आँचल भाता है
कैसे फिर अपना मिलन भला संभव होगा इस आँगन में
बदली मेरे पथ की साथी, ऋतुराज तुम्हें पर भाता है!

तुमने कर विजयी कुरुक्षेत्र, जीवन का नव-पथ खोज लिया
मेरा जीवन रण-स्थल में फिरता असफल हारा-हारा !

मैं चाह रही तुमसे मिलना, तुम पथ परिवर्तित करते हो
मैं अश्रुधार में डूब रही, तुम हँसी बाँटते फिरते हो 
तुम आँगन में आकर मेरे, चाहे अठखेली कर जाओ 
लेकिन मम उर में बसने से जाने क्यों इतना डरते हो ?

जीवन-आँगन में धूप छाँव तो संग-संग चलती रहती है
पर मेरे जीवन का प्रभात मैंने यामिनि पर है वारा !

मैंने हैं तुमको भाव दिए, अपने शब्दों में बाँधा है
मैंने जीवन का हर दुःख-सुख, तुम पर ही अपना साधा है
पर तुमने मम उर तोड़ दिया, तुमने मुझसे मुहँ मोड़ लिया
मैंने तो दीप जलाया है, उस लौ में तुमको बाँधा है!

इस एक शिखा का अग्निदाह, तुमको चाहे पत्थर कर दे
लेकिन मैं भी इस पत्थर से पा जाऊँगी शीतल धारा !

 11.01.1985

अनुजा