सोमवार, 22 जुलाई 2013
मंगलवार, 16 जुलाई 2013
कौन हूं मैं........
किसी के लिए दीदी हूं....
किसी के लिए दोस्त हूं....
अपनों के लिए प्यार हूं....
दुखिया के लिए आवाज़....
दुखिया के लिए आवाज़....
दुनिया के लिए संवेदना भी हूं.....
जिज्ञासा भी....
सवाल भी....
किसी के लिए बेबाकी हूं...
किसी के लिए संयम....
तुम्हारे लिए प्रेम हूं....
उसके लिए याद....
तुम्हारे लिए प्रेम हूं....
उसके लिए याद....
अपने अपने रंग हैं और अपनी अपनी नज़र....
जि़न्दगी के लिए राही हूं....
अलमस्त....हरफनमौला...
अपने लिए......
जूझने और बार-बार उठ खड़े होने की ताकत....
अनुभव और सबक के साथ....।
तुम तय करो अपना.....
अपना उल्लास...
या
अभिशाप....
दरिया की कोई मौज....
बादल का एक टुकड़ा....
बारिश की एक बूंद
....
हवा का एक आवारा झोंका....
रास्ते का एक पत्थर.....
या
पत्थर का एक रेशमी टुकड़ा....
या
पत्थर का एक रेशमी टुकड़ा....
ओ आकाश
तुम्हारी सरगोशियां क्या कहती हैं......
हवाओं
खामोशी के कान में फूंका है तुमने
कौन सा मंत्र.....
क्या बताया है मेरा पता.....
धूप
तुम ही कहो
चुप न रहो
कि
जान सकूं मैं.....
कि
कौन हूं मैं
कि
समझ आए अपना एक और रंग.....
धूप-छांही....
मोरपंखी....
राख-राख वैराग्य....
या फिर....
जो भी है जिसकी नज़र।
अपनी तलाश में हूं......
मैं
अग्निगर्भा अमृता....।
अनुजा
16.07.13
सोमवार, 15 जुलाई 2013
अभिषेक की कलम से...
मस्तमौला घूमन्तू विद्रोही.....ये अभिषेक........हमारे मित्र हैं...जनपथ पर बिचरते हुए उनकी अत्यन्त संवेदनशील नई कविताएं अभी-अभी पढ़ीं......ये वही अभिषेक है जिसे मैं जानती हूं......बेहतर....इस दृश्य से परे की संवेदना कोअग्निगर्भा पर लाने का लोभ संवरण न कर पाए......।
पिता पर
तीन कविताएं
1
पिता
तुम क्यों चले गए समय से पहले
मैं आज अपने गोल कंधों पर नहीं संभाल पा रहा
पहाड़ सा दुख
मां का
जिसमें कुछ दुख अपने भी हैं
पिता
तुम जानते हो तुम्हारा होना कितना जरूरी था आज
जब घेरते हैं खामोशियों के प्रेत चारों ओर से
एक अजब चुप्पी
निगलती जाती है शब्दों को
और किशोर वय के अपराध जैसा
बोध पैठता जाता है दिमाग के तहखानों में
जब जाड़े की धूप से होती है चिढ़
और ठंड जमा देती है
हर उस चीज को जिसमें जीवन को बचा ले जाने की है ताकत
पिता
तुम जान लो तो बेहतर होगा
नहीं कर सकता मैं आत्मघात भी
डर है एक मन में
कि जैसे घिसटता आया तुम्हारा दुख मां के आंचल में लिपटा आज तक
मेरा दुख भी कहीं न सालता रहे उनको
जिन्हें मैंने अब तक संबोधित भी नहीं किया।
पिता
तुम्हें आना ही होगा, लेकिन ठहरो
वैसे नहीं,जैसे तुम आए थे मां के जीवन में तीस बरस पहले
भेस बदल कर आओ
समय बदल चुका है बहुत
और मां के मन में है कड़ुवाहट भी बहुत
खोजो कोई विधि,लगाओ जुगत
और घुस जाओ मां के कमरे में बिलकुल एक आत्मा के जैसे
इसका पता सिर्फ तुम्हें हो या मुझे।
2
मैं नहीं जानता
मांओं के पति,उनके प्रेमी भी होते हैं या नहीं
न भी हों तो क्या
एक कंधा तो है कम से कम मांओं के पास
बेटों का दिया दुख भुलाने के लिए
मेरी मां के पास वह भी नहीं
मुझे लगता है
विधवा मांओं को प्रेम कर ही लेना चाहिए
उम्र के किसी भी पड़ाव पर
मां को अकेले देख
अपने प्रेम पर होता है अपराध बोध
होता तो होगा उसे भी रश्क मुझसे
मां
तुम क्यों नहीं कर लेती प्रेम
और इस तरह मुझे भी मुक्त
उस भार सेजो मेरे प्रेम को खाए जा रहा है।
3
पिता का होना
मेरे लिए उतना जरूरी नहीं
जितना मां के लिए था
पिता होते,तो मां
मां होती
अभी तो वह है मास्टरनी आधी
आधी मां
और मैं जब देखो तब
शोक मनाता हूं उस पिता का
जिसे मैंने देखा तक नहीं
सोचो
फिर मां का क्या हाल होगा
मैंने तो पैदा होने के बाद से नहीं पूछा आज तक
पिता के बारे में उससे
कि कहीं न फूट जाएं फफोले
अनायास।
अब लगता है
मुझे करनी ही चाहिए थी बात इस बारे में
हम दोनों ही बचते-बचाते
पिता से आज तकएक-दूसरे से अनजान
दरअसल आ गए हैं उनके करीब इतना
कि मेरे दुख और मां के दुख
एक से हो गए हैं
दिक्कत है कि बस मैं ऐसा समझता हूं
और वह क्या समझती है, मुझे नहीं पता।
अभिषेक श्रीवास्तव
साभार : जनपथ से
गुरुवार, 4 अक्टूबर 2012
आज की सुबह....
सुनहरी सुबह.....
सिंदूरी पूरब....
चांदी सा पच्छिम.....
डूबते हुए भी चमकते
सुनहरी सुबह.....
सिंदूरी पूरब....
चांदी सा पच्छिम.....
डूबते हुए भी चमकते
हुलसते...
मुस्कराते चांद की सुबह.....
आसमानी आंचल पर
सिंदूरी रेखाओं के बीच
झिलमिलाते सितारों की टिमटिमाती रौशनियां....
सिंदूरी प्राची
सपनीले धनक के पच्छिम..
और
दो दिशाओं के बीच.....
दो पंछी
एक मैं.....
उम्मीदों की सुबह
और गर्वीले चमकीले अंत के साथ....।
अनुजा
02.10.12
मुस्कराते चांद की सुबह.....
आसमानी आंचल पर
सिंदूरी रेखाओं के बीच
झिलमिलाते सितारों की टिमटिमाती रौशनियां....
सिंदूरी प्राची
सपनीले धनक के पच्छिम..
और
दो दिशाओं के बीच.....
दो पंछी
एक मैं.....
उम्मीदों की सुबह
और गर्वीले चमकीले अंत के साथ....।
अनुजा
02.10.12
पांचवां रास्ता....।
मुक्ति की एक सख़्त सुबह
पराधीनता की पीड़ा से भरे
कोमल बिछौने से ज्यादा सुख़द है...
सुन्दर है....
मैं छू पाती हूं
सुनहरी सुबह की रक्तिम लकीरें...
डूबते चमकीले चांद की लुनाई...
कतार दर कतार ओढ़नी सी उड़ती
पराधीनता की पीड़ा से भरे
कोमल बिछौने से ज्यादा सुख़द है...
सुन्दर है....
मैं छू पाती हूं
सुनहरी सुबह की रक्तिम लकीरें...
डूबते चमकीले चांद की लुनाई...
कतार दर कतार ओढ़नी सी उड़ती
परिन्दों की पांतें....
नए रास्तों को तलाशने का उत्साह और उजास....
भर पाती हूं लंबी गहरी सांसें
संभाल पाती हूं प्राणों में प्राण वायु....।
क्या हुआ....
जो शुरू होगा
चुनौतियों का नया सफ़र....
बांज के नीचे बहते सोते
का ठंडा जल अब होगा
मेरा अंजुरियों में......
लगता होगा उन्हें
कि
चुक गया मेरा आसमान...
पर
मेरे हाथ में है.....
चांद का पश्मीना....
धूप की चादर....
हवाओं की ओढ़नी......
पेड़ों की सरगोशियां....
पंछियों की छुन छुन की
रेशमी गुनगुनाहट....
मुक्ति का उत्सव है......
संघर्ष.....
संघर्ष देता है प्रेरणा.....
चौराहे पर बनाने के लिए कोई एक पांचवा रास्ता.....।
अनुजा
02.10.12
नए रास्तों को तलाशने का उत्साह और उजास....
भर पाती हूं लंबी गहरी सांसें
संभाल पाती हूं प्राणों में प्राण वायु....।
क्या हुआ....
जो शुरू होगा
चुनौतियों का नया सफ़र....
बांज के नीचे बहते सोते
का ठंडा जल अब होगा
मेरा अंजुरियों में......
लगता होगा उन्हें
कि
चुक गया मेरा आसमान...
पर
मेरे हाथ में है.....
चांद का पश्मीना....
धूप की चादर....
हवाओं की ओढ़नी......
पेड़ों की सरगोशियां....
पंछियों की छुन छुन की
रेशमी गुनगुनाहट....
मुक्ति का उत्सव है......
संघर्ष.....
संघर्ष देता है प्रेरणा.....
चौराहे पर बनाने के लिए कोई एक पांचवा रास्ता.....।
अनुजा
02.10.12
सदस्यता लें
संदेश (Atom)