इन दिनों बहुत जोर शोर से अपनी सारी ताकत से इस कोशिश में हूं कि वापस लौट जाऊं! नौकरी बदलना इसका एक तरीका हो सकता है पर अपनी दुनिया में वापस लौटना एक दूसरा रास्ता।
अपनी किताबें, अपनी कहानियां, अपनी कविताएं,अपने सपने, अपना प्रेम......सब कुछ की ओर वापस लौटना चाहती हूं...........अब उसके साथ जीना चाहती हूं..........।गए कई बरसों से इस सबसे मुहं फेर लिया था...........डर लगता था हर कदम बढ़ाते हुए........ न जाने कब, कौन सी गाज गिर पड़े, न जाने , किस क्रूर सच से सामना हो जाए.........ऐसा सच जिसे झेल पाने की ताकत शायद हमारे भीतर न हो।
गए कई बरस अपनी सारी आत्मिक, मानसिक और भावनात्मक ताकत को जैसे परखने के बरस थे......... । सिलसिला आज भी थमा नहीं है........ बस उसका रूप शायद थोड़ा बदल गया है........।
पहले प्रतिभा......।
प्रतिभा से मिलकर एकबारगी हतप्रभ सी रह गयी हूं...........। हालांकि उसकी क़लम की तेज़ी कहीं मुझे वापस खींच कर ला रही है.........। उसके खुद लिख-लिख जाने ने मुझे झिंझोड़ दिया है......। मुझे मेरी रिक्तता का एहसास करा दिया है.......। मैंने गए कई बरसों में क्या खो दिया........और किस चाह में.......मुझे लगातार पिछले बहुत लंबे समय से एहसास हो रहा है..........। भाषा, भाव, विचार........ सबने मुझसे दामन बचा लिया है.........।
प्रतिभा से मिलकर मुझे एक सदमा सा लगा........मेरी तमाम फिक्रों में उसकी फिक्र भी बड़ी शिद्दत से जुड़ गयी........। जी चाहता है, उसे कहीं ऐसी जगह छुपा दूं जिससे दुख का एक भी क़तरा उसके पास से न गुजर सके......... पर ऐसा तो होता नहीं है ना........। जीवन पाया है तो सब कुछ जीना पड़ता है.........अपना भी और दूसरों का भी...........।
........... लो अंधेरा उतर आया। कमरे की सब खिडकियां अभी तक बंद थीं। बाजार जाना था। सब कुछ भूल गयी......, सब छूट गया........। प्लान से केवल मैनेजरी हो सकती है........., जिया नहीं जा सकता.........। प्रतिभा सुन ले ना तो हंसेगी..........- आप भी बस ऐसी ही हैं........और बस उसका वही सदाबहार वाक्य- यह भी सही है। मैं कहूंगी - ठीक है भई,जो अच्छा लगे वो करो।
पर सारी दुनिया तो हमारी तरह नहीं सोचती ना। अब रात में 11 बजे बाज़ार जाने का मन करे तो इस अनजाने, अकेले, छोटे से सोते हुए शहर में किसी दुकान के खुले होने की उम्मीद तो नहीं होगी ना। और यह तय है कि अब जाया नहीं जा सकता।
प्रतिभा के ब्लॉग में रिल्के और मरीना के कुछ पत्रों का अनुवाद पढ़ा, इधर बहुत लंबे समय के बाद उससे मुलाकात भी हुई।
बहुत दिन बाद रिल्के को भी पढ़ा........। सुबह-सुबह अन्दर कमरे में जाकर अल्मारी पर नजर दौड़ाई- रिल्के लायी हूं या घर में ही छोड़ आयी।
नहीं, लायी हूं। किसी वक्त फुरसत में पढूंगी। फुरसत.... जो शायद इन तीन दिनों की छुट्टी के बाद मुश्किल से मिलेगी। नज़र का नंबर कितने दिन से आगे चला गया है, टालती रहती हूं डॉक्टर के पास जाने को। डॉक्टर के तो नाम से ही अब उलझन होने लगती है। पर जाना तो पड़ेगा अगर पढ़ना है तो......... ये नंबर कंप्यूटर पर तो ठीक काम करता है पर पढ़ने में खासी दिक्कत देता है।
तीन किताबें लाइन में हैं और 'अहा जि़न्दगी' के दो अंक साथ साथ चल रहे हैं। किताबें कुछ पन्नों के बाद बंद हो जाती हैं और फिर जाने कितने दिनों बाद उन्हें मनाने का मौका मिलता है।
नींद ऐसी कि मुसलसल पीछे पड़ी रहती है। ज़रा सा मौका मिला नहीं कि आंखों को धर दबोचा। ज़रा भी रहम की फितरत नहीं इसकी....।
आजकल दिन चमकीले, धुंधले और रूमानी हो गए हैं.......... पर मन है कि जागता ही नहीं........., कितनी कोशिश करूं, वो रंग लौटकर ही नहीं आता..........।
आईने पर गर्द जम गयी है.........। न जाने कब साफ होगी............।
जी चाहता है किसी भीतर से बाहर तक झिंझोड़ देने वाले एक लम्स को......... भीतर तक महमहा देने वाली एक खुश्बू को............ और शायद कहीं बहुत शिद्दत से बेपरवाह और बेफिक्र वक्त को..............शायद प्रेम को...........।
मगर सब तरफ खामोश है सब कुछ.............. उदास सा है सब कुछ..........।
ये उदासी जाती क्यों नहीं........
दरअसल तलाश उसकी है जो है ही नहीं यहां कहीं किसी जगह........ किसी लम्हे में....... या किसी मोड़ पर............ बस सब तरफ असीम शान्ति है पर यह शान्ति उजास से भरी क्यों नहीं है......... इसमें उदासी सी क्यों है........... ।
न अगले पल का पता है........... न अगले मौसम का...............। बस यूं ही चलते जाना है.............बेपरवाह..... थके हुए कदमों के साथ..........।
कभी कभी शक होता है क्या सचमुच मैं लौट सकूंगी ...............?
अनुजा
मेरी डायरी मेरा पन्ना..चल खुसरो घर आपने लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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शनिवार, 13 अगस्त 2011
सोमवार, 8 अगस्त 2011
वापस लौटने की एक कोशिश.............
आज तीन सालों की मेहनत से बनाए गए, संवारे और संभाले गए साथियों में से एक ने रिज़ाइन कर दिया........।
ये सवाल इसका नहीं कि कोई गया, क्यों गया, क्या होगा शो का या कार्यक्रम का या रेडियो का........... ।
ये सवाल इसका है कि हमारी आस्थाएं कितनी और किसके प्रति हैं.............।
गए कुछ सालों में मैं गैर सरकारी संस्थाओं की दुनिया से जुड़ी रही हूं.......शायद आगे भी जुड़े रहना होगा........।
आज के दौर में भूखे पेट क्रान्ति जो नहीं होती.......... ।
कई बार मन में सवाल उठा कि आखिर इन संस्थाओं के लिए पैसा जुटाने की जद्दोजहद में लगे लोगों ने इन्हें बनाया क्यों........
कुछ से सवाल भी किया........ जवाब में एक ही सच सामने आया.......किसी दूसरे के दुख की करूणा से जन्मा नहीं था ये समाज सेवा का भाव..........
कुछ तो विशुद्ध काम के लिए खुले थे....... कुछ अपनी तकलीफ की प्रतिक्रिया में....... वही व्यष्टि से समष्टि की कहानी.........
मगर आज वे एक सेवा क्षेत्र मात्र बनकर रह गए हैं............
आजकल जिस संस्था में हूं उसके कांसेप्ट से काफी प्रभावित हूं मगर व्यवस्था से निराश और आहत हूं........
अब यह किसी आम बिजनेस की तरह है जिसके फैल जाने के बाद मालिक अपने ड्राइवर को भी नहीं पहचानता।
अब यह सफर कुछ मुश्किल लग रहा है............
प्रेम से, दुख से, विषाद से दूर आकर इस रेगिस्तान में जैसे खो सी गयी हूं.........।
गए बरसों में अपनी सारी प्रिय चीजों और लोगों से मुहं मोड़ लिया था........
रेगिस्तान में जीने का मन था........शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुहं छुपाकर सोचा.....कुछ है ही नहीं........।
चिन्तकों की दुनिया में बाहर बाहर घूमी और अर्थ की रूखी दुनिया में अपनी शांति ढूंढी.........
मगर वह कहीं नहीं मिली............।
जो अपने ही भीतर है, उसे न जाने कहां कहां खोजते हुए मैं भागती फिरती रही अपने आप से..........अपने साये से..........।
पर कुछ भी नहीं बदला.........।
सब कुछ वैसा ही है।
.......... और मैं कोशिश कर रही हूं कि मैं अपनी दुनिया में वापस लौटूं........।
मेरी दुनिया........।
मुझे खुद पर आश्चर्य होता है........।
कहां है मेरी दुनिया......, क्या किया इतना जीवन........., कुछ भी समझ नहीं आता........., किसी सवाल का जवाब नहीं मिलता.........., और सब तरफ से अनुत्तरित सी छायाएं डोलती हुई मुझ तक बढ़ती आती हैं...........।
मैंने ऐसे सफर के बारे में तो कल्पना नहीं की थी......... । फिर ये क्या और क्यों हो रहा है........
क्या मैं सचमुच लौट सकूंगी उस जगह......... जिसे मैं अपनी दुनिया कह सकूं..........
अग्निगर्भा को कभी दुनिया भर की औरतों की बात करने वाले मंच के रूप में रचा था...........
आज ये सिर्फ मेरा मंच है........... मेरी डायरी.......... मेरा पन्ना.............।
यहां मैं अपनी बात करूंगी और अपने नज़रिये से............।
जीवन की, काम की दिशा की, दशा की, समय की, वसंत की पतझर की..........।
हालांकि मुझे यहां से जाना ही होगा...........
मगर मैं यहां एक गर्मी और बिताना चाहती हूं..........
पलाश और अमलतास की रौनक के उन कुछ पलों को अपने में भर लेना चाहती हूं.......... जिनके बीच में रहते हुए भी मैं कभी उनके बीच ठहर नहीं पाई.........।
पर वो रंग और उन रंगों का अक्स आज भी मेरे भीतर वैसे ही जिंदा है...........
वो कहानी फिर कभी.........
आज इतना ही........।
अनुजा
ये सवाल इसका नहीं कि कोई गया, क्यों गया, क्या होगा शो का या कार्यक्रम का या रेडियो का........... ।
ये सवाल इसका है कि हमारी आस्थाएं कितनी और किसके प्रति हैं.............।
गए कुछ सालों में मैं गैर सरकारी संस्थाओं की दुनिया से जुड़ी रही हूं.......शायद आगे भी जुड़े रहना होगा........।
आज के दौर में भूखे पेट क्रान्ति जो नहीं होती.......... ।
कई बार मन में सवाल उठा कि आखिर इन संस्थाओं के लिए पैसा जुटाने की जद्दोजहद में लगे लोगों ने इन्हें बनाया क्यों........
कुछ से सवाल भी किया........ जवाब में एक ही सच सामने आया.......किसी दूसरे के दुख की करूणा से जन्मा नहीं था ये समाज सेवा का भाव..........
कुछ तो विशुद्ध काम के लिए खुले थे....... कुछ अपनी तकलीफ की प्रतिक्रिया में....... वही व्यष्टि से समष्टि की कहानी.........
मगर आज वे एक सेवा क्षेत्र मात्र बनकर रह गए हैं............
आजकल जिस संस्था में हूं उसके कांसेप्ट से काफी प्रभावित हूं मगर व्यवस्था से निराश और आहत हूं........
अब यह किसी आम बिजनेस की तरह है जिसके फैल जाने के बाद मालिक अपने ड्राइवर को भी नहीं पहचानता।
अब यह सफर कुछ मुश्किल लग रहा है............
प्रेम से, दुख से, विषाद से दूर आकर इस रेगिस्तान में जैसे खो सी गयी हूं.........।
गए बरसों में अपनी सारी प्रिय चीजों और लोगों से मुहं मोड़ लिया था........
रेगिस्तान में जीने का मन था........शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुहं छुपाकर सोचा.....कुछ है ही नहीं........।
चिन्तकों की दुनिया में बाहर बाहर घूमी और अर्थ की रूखी दुनिया में अपनी शांति ढूंढी.........
मगर वह कहीं नहीं मिली............।
जो अपने ही भीतर है, उसे न जाने कहां कहां खोजते हुए मैं भागती फिरती रही अपने आप से..........अपने साये से..........।
पर कुछ भी नहीं बदला.........।
सब कुछ वैसा ही है।
.......... और मैं कोशिश कर रही हूं कि मैं अपनी दुनिया में वापस लौटूं........।
मेरी दुनिया........।
मुझे खुद पर आश्चर्य होता है........।
कहां है मेरी दुनिया......, क्या किया इतना जीवन........., कुछ भी समझ नहीं आता........., किसी सवाल का जवाब नहीं मिलता.........., और सब तरफ से अनुत्तरित सी छायाएं डोलती हुई मुझ तक बढ़ती आती हैं...........।
मैंने ऐसे सफर के बारे में तो कल्पना नहीं की थी......... । फिर ये क्या और क्यों हो रहा है........
क्या मैं सचमुच लौट सकूंगी उस जगह......... जिसे मैं अपनी दुनिया कह सकूं..........
अग्निगर्भा को कभी दुनिया भर की औरतों की बात करने वाले मंच के रूप में रचा था...........
आज ये सिर्फ मेरा मंच है........... मेरी डायरी.......... मेरा पन्ना.............।
यहां मैं अपनी बात करूंगी और अपने नज़रिये से............।
जीवन की, काम की दिशा की, दशा की, समय की, वसंत की पतझर की..........।
हालांकि मुझे यहां से जाना ही होगा...........
मगर मैं यहां एक गर्मी और बिताना चाहती हूं..........
पलाश और अमलतास की रौनक के उन कुछ पलों को अपने में भर लेना चाहती हूं.......... जिनके बीच में रहते हुए भी मैं कभी उनके बीच ठहर नहीं पाई.........।
पर वो रंग और उन रंगों का अक्स आज भी मेरे भीतर वैसे ही जिंदा है...........
वो कहानी फिर कभी.........
आज इतना ही........।
अनुजा
रविवार, 7 अगस्त 2011
दूसरी पाती.........
आज फिर लौटने की कोशिश है वापस....
2007 में यह ब्लाग शुरू किया था इस सपने के साथ कि यह एक मंच बनेगा जहां स्त्रियों पर बात हो सकेगी।स्त्रियों का मंच होगा, स्त्रियों की बातों का, उनकी संवेदनाओं का, सपनों और आसमानी पंखों का मंच होगा।
यह वह जगह होगी जहां वो बात कर सकेंगी अपनी, दुनिया की, सौन्दर्य की, प्रेम की, दुख की, सुख की, सपनों की, आहत मन की, और भी न जाने क्या क्या.......। वो सब जिसे कहने के लिए कोई और जगह नहीं है वो कहने के लिए एक जगह होगी।
यह केवल स्त्रियों की दुनिया नहीं है, यहां वो सब आ सकते हैं जो अपनी बात करना चाहते हैं, संवेदनाओं की बात करना चाहते हैं, प्रेम की बात करना चाहते हैं, बंधन और मुक्ति की, उड़ान और थकन की, क्रान्ति और शान्ति की बात करना चाहते हैं।
पर सब कुछ बदल गया। गए तीन बरसों में बंद हो गया यह रास्ता और बदल गयी ये दुनिया........।
ब्लाग की दुनिया बदल गयी और शायद मेरी भी......।
मेरा वक्त चुरा लिया एक नई उम्मीद ने..........।
और ब्लाग की दुनिया में सब अकेले होकर सबके बीच में आए, सबसे सब बांटा और सबके साथी बन गए......।
सबके अपने अपने मंच बन गए.........।
प्रिंट की दुनिया में जगह कम हुई,बाज़ार ने घेर ली रचनाकारों, क्रान्तिकारों, लेखकों, पत्रकारों की जगह और वे सब सिमट आए इस दुनिया में..............।
अच्छा है..........।
मुझसे भी छूट गया यह। मुझे जीने के लिए एक जिंदा ज़मीन मिल गयी थी.................।
मैं आ गयी ज़मीन पर क्रान्ति की एक नई उम्मीद का छोर पकड़कर.......।
दुनिया थी सामुदायिक रेडियो की..........।
बात थी गांव देहात की............।
उस आम आदमी की....... जो बड़े बड़े अखबारों और चैनलों से गायब होता जा रहा है। जिसके दर्द, जिसकी दुनिया और जिसके राग के लिए कोई जगह नहीं है इस चमकती धमकती दुनिया में..............।
मैं खु श थी इस नई शुरूआत से..............।
कहां मैं ब्लाग की बात सोच रही थी, कहां उनके बीच में जाने और सीधे उनसे दर्द, दुख, अभाव, राग, द्वेष, सुख और कला सबसे सीधे बात हो सकेगी।
कुछ हद तक यह सपना सच भी हुआ.........।
जुनून को एक शक्ल मिली।
वो, जो साथ नहीं आते थे............साथ आने लगे............। सपनों को पंख लगने लगे...........सुकून की एक सांस मैंने भी भरी................ जीवन का एक बहुत पुराना सपना सच हुआ............। ऐसे ही तो काम करना चाहा था...........।
कभी मन भटकता भी था कि सारा कुछ तो वैसा नहीं हो रहा जैसा सोचा था..................।
भीतर से मां सा कोई हाथ मन को थपकी देता था...............-'कोई बात नहीं, दुनिया एक दिन में नहीं बनी तो तुम कैसे सोचती हो कि एक दिन में सब बदल जाएगा। सब कुछ धीरे-धीरे होगा...........।'
'एकला चलो रे' का जो आह्वान मुझे हमेशा चलने को प्रेरित करता था, उसी ने हाथ पकड़कर मुझे फिर संबंल दिया..........आगे चलने का..........। विपरीत परिस्थतियों में.............गहन निराशा से भरे लोगों को आशा के उजास में ले आने का संघर्ष करते और नई आंखों में सपनों के दीपक जलाने की कोशिश के साथ अब तक चलती आरही हूं............।
मगर जैसे एक व्यक्ति की गद्दारी पूरे आंदोलन को, सारी क्रान्ति को असफल कर देती है, सारे लड़ाकुओं को फांसी की राह पर ले आती है.............कुछ वैसा ही हो रहा है यहां भी आज..............।
बावजूद इसके कि इस सारे सपने को जीने और इसके साथ आगे बढ़ने के सुख का एहसास ही अनोखा है............कई बार लगता है कि गलत प्रयास, गलत जगह किया गया, गलत लोगों के साथ किया गया, गलत उद्देश्य से किया गया।
सच यह है कि क्रान्ति का सपना सिर्फ मेरा था.........। उन लोगों का नहीं जिन्होंने इसे शुरू किया........... जो इसमें साथ आए.................। उनके उद्देश्य अलग थे और सपने भी.................।
लिहाज़ा मैं चाह कर भी इसे उस तरह से आगे नहीं ले जा सकती, जैसे इसको जाना चाहिए और जैसे यह एक अपना असर छोड़ सकती है।
क्रान्ति भूखे आदमी को तो अपने साथ ला सकती है मगर हारे हुए आदमी की निराशा के साथ आगे कभी नहीं बढ़ सकती है...........यही क्रान्ति का सच भी है और शायद दुर्भाग्य भी.............।
शायद इसीलिए मेरा क्रान्ति का यह सपना चोटिल हो रहा है।
शायद नौकरी और क्रान्ति कभी एक साथ नहीं हो सकते।
यह पहल जो दूसरे की थी...........इसके साथ मैं अपना सपना कैसे जी सकती हूं.............।
यह शायद क्रान्ति का सही रास्ता नहीं था...........।
क्रान्ति कभी दूसरे के कंधों पर बैठकर नहीं की जाती..........।
क्रान्ति की तो अपनी धुन होती, अपनी राह और अपनी दुनिया............. ।
उसके अपने तरीके होते हैं........... और अपने नियम..........।
उसमें लोग स्वेच्छा से जुड़ते हैं............... और जानते हैं कि इस रास्ते पर मृत्यु से भी कहीं मुलाकात हो सकती है...........।
मगर यहां तो कुछ भी नहीं है..............।
यहां तो बस अपेक्षाएं हैं............... और वो भी सिर्फ अपने लिए.............।
यहां की हवा अब जहरीली और खुदगर्ज होने लगी है...........। यहां सब तरफ षडयंत्रों का भय भर गया है..........।
लगता है सब कुछ डूब रहा है और बचाने के लिए पतवार लेने का अधिकार भी हमारा नहीं...........।
यह क्रान्ति हमारी नहीं................ क्योंकि इसके नियम दूसरे बना रहे हैं और निर्णय भी दूसरों के हाथ में हैं.............।
यह हमारी दुनिया नहीं.............।
कोशिश है कि इस षडयंत्रकारी दुनिया से मैं वापस लौट सकूं...............।
शायद किसी दूसरे मोड़ पर वह क्रान्ति मेरा बाट जोहती मिल जाए...........।
या शायद यह दौर ही न हो क्रान्ति का..............।
शायद मैं इस दौर से कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगा बैठी हूं........... ।
शायद मैं कहीं गलत हूं..........गलत अपेक्षाएं और गलत कोशिश कर रही हूं............ ।
क्योंकि आज मुझे फिर तलाश है एक नौकरी की............... ।
एक ऐसी नौकरी............जिसमें आजीविका तो हो मगर क्रान्ति का कोई सपना न हो............।
और मैं अपने पैरों को ज़मीन पर रखा हुआ महसूस करूं............. और मन को सुखी.............।
यहां कोई उम्मीद न हो...............।
सच तो यह है कि रचनात्मकता की भी शायद एक सीमा होती है............।
क्योंकि घूम फिर कर सब फिर वहीं आते हैं..............बल्कि आ रहे हैं जहां से शुरूआत हुई थी.............दूसरों की नकल कर रहे हैं नई जगहों पर और उन्हें नया प्रयोग बता कर पेश कर रहे हैं और अपनी रचनात्मकता पर गर्व कर रहे हैं...........अपनी पीठ ठोंक रहे हैं.........।
इसमें मेरी क्रान्ति कहां है..............।
अनुजा
2007 में यह ब्लाग शुरू किया था इस सपने के साथ कि यह एक मंच बनेगा जहां स्त्रियों पर बात हो सकेगी।स्त्रियों का मंच होगा, स्त्रियों की बातों का, उनकी संवेदनाओं का, सपनों और आसमानी पंखों का मंच होगा।
यह वह जगह होगी जहां वो बात कर सकेंगी अपनी, दुनिया की, सौन्दर्य की, प्रेम की, दुख की, सुख की, सपनों की, आहत मन की, और भी न जाने क्या क्या.......। वो सब जिसे कहने के लिए कोई और जगह नहीं है वो कहने के लिए एक जगह होगी।
यह केवल स्त्रियों की दुनिया नहीं है, यहां वो सब आ सकते हैं जो अपनी बात करना चाहते हैं, संवेदनाओं की बात करना चाहते हैं, प्रेम की बात करना चाहते हैं, बंधन और मुक्ति की, उड़ान और थकन की, क्रान्ति और शान्ति की बात करना चाहते हैं।
पर सब कुछ बदल गया। गए तीन बरसों में बंद हो गया यह रास्ता और बदल गयी ये दुनिया........।
ब्लाग की दुनिया बदल गयी और शायद मेरी भी......।
मेरा वक्त चुरा लिया एक नई उम्मीद ने..........।
और ब्लाग की दुनिया में सब अकेले होकर सबके बीच में आए, सबसे सब बांटा और सबके साथी बन गए......।
सबके अपने अपने मंच बन गए.........।
प्रिंट की दुनिया में जगह कम हुई,बाज़ार ने घेर ली रचनाकारों, क्रान्तिकारों, लेखकों, पत्रकारों की जगह और वे सब सिमट आए इस दुनिया में..............।
अच्छा है..........।
मुझसे भी छूट गया यह। मुझे जीने के लिए एक जिंदा ज़मीन मिल गयी थी.................।
मैं आ गयी ज़मीन पर क्रान्ति की एक नई उम्मीद का छोर पकड़कर.......।
दुनिया थी सामुदायिक रेडियो की..........।
बात थी गांव देहात की............।
उस आम आदमी की....... जो बड़े बड़े अखबारों और चैनलों से गायब होता जा रहा है। जिसके दर्द, जिसकी दुनिया और जिसके राग के लिए कोई जगह नहीं है इस चमकती धमकती दुनिया में..............।
मैं खु श थी इस नई शुरूआत से..............।
कहां मैं ब्लाग की बात सोच रही थी, कहां उनके बीच में जाने और सीधे उनसे दर्द, दुख, अभाव, राग, द्वेष, सुख और कला सबसे सीधे बात हो सकेगी।
कुछ हद तक यह सपना सच भी हुआ.........।
जुनून को एक शक्ल मिली।
वो, जो साथ नहीं आते थे............साथ आने लगे............। सपनों को पंख लगने लगे...........सुकून की एक सांस मैंने भी भरी................ जीवन का एक बहुत पुराना सपना सच हुआ............। ऐसे ही तो काम करना चाहा था...........।
कभी मन भटकता भी था कि सारा कुछ तो वैसा नहीं हो रहा जैसा सोचा था..................।
भीतर से मां सा कोई हाथ मन को थपकी देता था...............-'कोई बात नहीं, दुनिया एक दिन में नहीं बनी तो तुम कैसे सोचती हो कि एक दिन में सब बदल जाएगा। सब कुछ धीरे-धीरे होगा...........।'
'एकला चलो रे' का जो आह्वान मुझे हमेशा चलने को प्रेरित करता था, उसी ने हाथ पकड़कर मुझे फिर संबंल दिया..........आगे चलने का..........। विपरीत परिस्थतियों में.............गहन निराशा से भरे लोगों को आशा के उजास में ले आने का संघर्ष करते और नई आंखों में सपनों के दीपक जलाने की कोशिश के साथ अब तक चलती आरही हूं............।
मगर जैसे एक व्यक्ति की गद्दारी पूरे आंदोलन को, सारी क्रान्ति को असफल कर देती है, सारे लड़ाकुओं को फांसी की राह पर ले आती है.............कुछ वैसा ही हो रहा है यहां भी आज..............।
बावजूद इसके कि इस सारे सपने को जीने और इसके साथ आगे बढ़ने के सुख का एहसास ही अनोखा है............कई बार लगता है कि गलत प्रयास, गलत जगह किया गया, गलत लोगों के साथ किया गया, गलत उद्देश्य से किया गया।
सच यह है कि क्रान्ति का सपना सिर्फ मेरा था.........। उन लोगों का नहीं जिन्होंने इसे शुरू किया........... जो इसमें साथ आए.................। उनके उद्देश्य अलग थे और सपने भी.................।
लिहाज़ा मैं चाह कर भी इसे उस तरह से आगे नहीं ले जा सकती, जैसे इसको जाना चाहिए और जैसे यह एक अपना असर छोड़ सकती है।
क्रान्ति भूखे आदमी को तो अपने साथ ला सकती है मगर हारे हुए आदमी की निराशा के साथ आगे कभी नहीं बढ़ सकती है...........यही क्रान्ति का सच भी है और शायद दुर्भाग्य भी.............।
शायद इसीलिए मेरा क्रान्ति का यह सपना चोटिल हो रहा है।
शायद नौकरी और क्रान्ति कभी एक साथ नहीं हो सकते।
यह पहल जो दूसरे की थी...........इसके साथ मैं अपना सपना कैसे जी सकती हूं.............।
यह शायद क्रान्ति का सही रास्ता नहीं था...........।
क्रान्ति कभी दूसरे के कंधों पर बैठकर नहीं की जाती..........।
क्रान्ति की तो अपनी धुन होती, अपनी राह और अपनी दुनिया............. ।
उसके अपने तरीके होते हैं........... और अपने नियम..........।
उसमें लोग स्वेच्छा से जुड़ते हैं............... और जानते हैं कि इस रास्ते पर मृत्यु से भी कहीं मुलाकात हो सकती है...........।
मगर यहां तो कुछ भी नहीं है..............।
यहां तो बस अपेक्षाएं हैं............... और वो भी सिर्फ अपने लिए.............।
यहां की हवा अब जहरीली और खुदगर्ज होने लगी है...........। यहां सब तरफ षडयंत्रों का भय भर गया है..........।
लगता है सब कुछ डूब रहा है और बचाने के लिए पतवार लेने का अधिकार भी हमारा नहीं...........।
यह क्रान्ति हमारी नहीं................ क्योंकि इसके नियम दूसरे बना रहे हैं और निर्णय भी दूसरों के हाथ में हैं.............।
यह हमारी दुनिया नहीं.............।
कोशिश है कि इस षडयंत्रकारी दुनिया से मैं वापस लौट सकूं...............।
शायद किसी दूसरे मोड़ पर वह क्रान्ति मेरा बाट जोहती मिल जाए...........।
या शायद यह दौर ही न हो क्रान्ति का..............।
शायद मैं इस दौर से कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगा बैठी हूं........... ।
शायद मैं कहीं गलत हूं..........गलत अपेक्षाएं और गलत कोशिश कर रही हूं............ ।
क्योंकि आज मुझे फिर तलाश है एक नौकरी की............... ।
एक ऐसी नौकरी............जिसमें आजीविका तो हो मगर क्रान्ति का कोई सपना न हो............।
और मैं अपने पैरों को ज़मीन पर रखा हुआ महसूस करूं............. और मन को सुखी.............।
यहां कोई उम्मीद न हो...............।
सच तो यह है कि रचनात्मकता की भी शायद एक सीमा होती है............।
क्योंकि घूम फिर कर सब फिर वहीं आते हैं..............बल्कि आ रहे हैं जहां से शुरूआत हुई थी.............दूसरों की नकल कर रहे हैं नई जगहों पर और उन्हें नया प्रयोग बता कर पेश कर रहे हैं और अपनी रचनात्मकता पर गर्व कर रहे हैं...........अपनी पीठ ठोंक रहे हैं.........।
इसमें मेरी क्रान्ति कहां है..............।
अनुजा
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