सुबह सुबह एक ख़्वाब की दस्तक पर दरवाज़ा खोला........
तो देखा 8:30 बज गए थे। बारिश का एक तेज रेला बहकर जा चुका था। अपनी भोर के साथियों के स्वागत में जो पकवान रखे थे , पानी के तेज बहाव के साथ बहकर जा चुके थे। चिडि़यां ज़मीन पर उन्हें तलाश रही थीं। गिलहरी पौधे की एक पतली सी टहनी पर कलाबाजि़यां कर रही थी। सारी की सारी आपस में बतिया रही थीं......बहस जारी थी- 'सुबह हो गयी.... अभी तक उठी नहीं।' एक ने कहा।
'दरवाज़ा तो खुल गया है'- दूसरी बोली।
'उसका कुछ भरोसा नहीं, दरवाज़ा खोल के सो जाती है।' तीसरी ने अपनी राय ज़ाहिर की। ये राय भी ज़रूर उसकी आंखों देखी होगी।
'इतनी देर हो गयी....भूख लगी है', गिलहरी टहनी की फुनगी को कुतरते हुए टुप से बोली।
'क्या करें अब'॥, किसी अगली ने चिंता व्यक्त की।
'चलो, मिलकर शोर मचाएं'....।
' आज अभी तक बाहर भी नहीं दिखाई दी......' किसी ने कहा।
तबियत तो ठीक होगी ना...।
'ओहो, धैर्य रखो न, आ जाएगी.......' गिलहरी सर्र से नीचे उतर आई।
कान में कुछ सुर सुर तो हो रहा था मेरे। गैस के पास खड़ी चाय बना रही थी कि ये खुसुर पुसर मेरे कान में पड़ी। सुबह पानी के कोप से साफ हो चुकी छत को देख चुकी थी। अचानक मुड़कर खिड़की के बाहर देखा तो पूरा का पूरा कुनबा मौजूद था इंतज़ार में अपनी अठखेलियों और प्रपंच के साथ।
अक्लमंद को इशारा काफी है।
दाने ले जाकर छत पर बिखेर दिए। और बस सब की सब एक साथ झुंड में चिट् चुट् कलरव करने लगीं। आपस की छेड़छाड़ शुरू हो गयी।
गिल्लू तो अभी भी वहीं पर है और खाने में मग्न है अपनी पतली टहनी के झूले पर झूलते हुए। उसकी सभी सहेलियां बीच बीच में आकर उसे छेड़ती हैं और नीचे आने को कहती हैं पर अब तक वह अपनी निश्चिंत सी अपने झूले पर झूल रही है।
ये मेरे घर की हर सुबह का दृश्य है। और दिनों की अपेक्षा रविवार को यह ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि रविवार को मैं देर तक सोती हूं। ये कहानी 14 अगस्त की है। आज़ादी के एक दिन पहले की कहानी है......।
सचमुच पंछी, नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके......।
ऐसा लगता है घर के आंगन से उड़कर यहां मेरा साथ निभाने आ गयी हैं और रोज सुबह हाजिरी लगाने आ जाती और मेरी ये गिटपिट उनसे लगभग रोज़ ही चलती है.......।
..........और वो रोज़ ही अपनी टी वी टी टुट् टुट् में मुझसे मेरा हाल लेती हैं......।
हम एक दूसरे की भाषा समझते हैं..... जानते हैं और बतियाते हैं........।
आंगन की ये अनोखी आत्मीय साथी अब धीरे धीरे सिमटती जा रही है........ कम होती जा रही है.......।
ऐसे तो क्या बचेगा शुभ कल......।
मैं तो बोलूंगी कि अपनी इस हर सुबह की साथिन को बचा सको तो ही बचेगा 'शुभ कल'।