छेड़कर वीणा ये किसने
मृत्यु का है गीत गाया ?
सप्त-सुर के बीच किसने
आठवाँ सुर यह लगाया
फूल का दामन झटककर
ज़िन्दगी कल पास आयी
लाख चाहा, मन न भीगे
आँख लेकिन डबडबायी
और छलिया एक भँवरा,
पी गया सारा मधुर रस
दो दिनों की एक दुनिया
दो पलों में ही गँवायी ।
मुस्कुराहट के चमन के
कौन ये पतझार लाया ?
आग सी यूँ लग गयी है
जल रहा धू-धू गगन तक
नफ़रतों की आँधियों में
उड़ गया सबका सपन तक
एक बगिया थी कि जिसमें
फूल हर रंग के लगे थे
पर घृणा के यज्ञ में इस
हो गया जीवन हवन तक
सृजन की इस मधुर बेला
में है क्यूँ संहार आया ?
इन घृणा की आँधियों का
कौन ज़िम्मेदार होगा
प्रश्न है इतना मगर क्या
शीघ्र ही हल हो सकेगा ?
व्यर्थ का संहार करके
फूल का हर घर जला के
क्या बचे श्मशान में फिर
राज्य कोई कर सकेगा ?
दिग्दिगन्तों से उठे इस
प्रश्न ने उत्तर मँगाया ।
मौन, लेकिन मौन केवल
सब निरुत्तर आज हर पल
कुर्सियों की नीति में इस
आज खोया घर का सम्बल
कौन दे उत्तर कि जब
उत्तर छुपा सबने दिया है
जागने वाले को क्या
कोई जगायेगा भला कल
कान सबने बंद करके
शोर है दुगना मचाया ।।
प्रश्न का उत्तर नहीं इस
और कल पूछेगा कोई
क्यों भगतसिंह की ज़मीं
इस सरज़मीं से कहाँ खोयी
किसलिए फिर एकता के
प्रश्न से है मुहँ चुराया ?
बन्द कर दो, बन्द कर दो
आज ये संहार सारा
जो बना सकते नहीं तुम
क्यों उसे तुमने मिटाया ?
मिल गया सारा सहज क्या
इसलिए आक्रोश है यह
क्यों नहीं बलिदान का वह
अमर गायन तुम्हें आया ?
यदि तुम्हें आ जाए वह तो
पओगे जीवन मधुर रस
जो नहीं संहार के मन्थन
में तुमने कभी पाया ।
27.11.1988
अनुजा