आज गुलज़ार का जन्मदिन है.....। हर तरफ उनके प्रशंसकों की बधाइयां हैं।
मुझे याद आ रही है उनसे वो पहली मुलाक़ात......।
ये स्वतंत्र भारत के दिन थे....।
तारीख़ आज याद नहीं, पर पुखराज उन दिनों बड़ी चर्चा में थी और मैंनें एक प्रति खरीदकर अपनी एक दोस्त के जन्मदिन पर उसे भेंट की थी।
गुलज़ार से मैं मिलने जा रही हूं, और साथ्ा में जगजीत सिंह भी आए हैं, ये सुनकर उसने एक आह सी भरी थी- हाय रे, हम भी मिलते।
चलो, मैंने कहा। पर वे जाने को तो राज़ी नहीं हुईं, हां मुझे पुखराज पकड़ाई-' इस पर जगजीत सिंह और गुलज़ार के ऑटोग्राफ ले आना।'
मैं और प्रतिभा एक साथ गए थे.....मुझे याद है.....।
पुखराज पर उनके ऑटोग्राफ लिए.....
किसकी है ये तुम्हारी... उन्होंने पूछा था...
नहीं, मेरी दोस्त की है..... मैंने उसे उसके जन्मदिन पर दी थी....
पर मुझे नहीं मिली उसके बाद....स्टॉक में ख़त्म हो गयी थी....।
मैंने सबको दी और मुझे ही नहीं मिली....मैंने शिकायत सी की थी....।
नया प्रिंट आने वाला है..... उन्होंने आश्वासन दिया।
आज मेरे पास पुखराज है मगर उस कवर पेज के साथ नहीं जो मुझे बेहद पसंद है... किताब और क़लम का....
मुझे शायद सब चाहिए होता है...... पर सब तो हमेशा, हर किसी को नहीं मिलता न...।
जितना मिल जाए उतना ही हमारा हिस्सा होता है...।
गुलज़ार नाराज़ थे मीडिया से.....हम उनकी रचनाधर्मिता के प्रशंसकों की तरह उनसे मिलने गए थे.....।
झक सफेद कपड़े पहने वो बैठे थे कमरे में। हमने आने की अनुमति मांगी तो बड़ी सहज और धीमी आवाज़ में उन्होंने हमें बुला लिया। हमें उन्हें बताना पड़ा कि हम मीडिया से नहीं हैं।
गुलज़ार प्रतिभा के हीरो हैं...... यह नवीन जी ने बताया था मुझे....। नवीन जोशी उन दिनों हमारे संपादक थे।
हम गुलज़ार से मिलने उनके कमरे में गए....प्रतिभा तो उनके आशीर्वाद का हाथ सर पर आते ही भाव विभोर हो रो पड़ी और मेरी समझ में नहीं आया कि उनसे क्या सवाल पूछूं या क्या बात करूं.....
आप कैसे लिखते हैं.... बस इतना पूछ के रह गयी......।
जो किसी न किसी रूप में आपको हमेशा अभिभूत करता रहा हो...... उसको अपने सामने पाकर आप ख़ुद कैसे गूंगे से हो जाते हैं........... और यह भी एक दिलचस्प अनुभव है.......संवेदनशील लोगों की प्रतिक्रियाओं का......।
जो मुझे छू गया :
गुलज़ार से मिलना जैसे साक्षात् कविता से मिलना है.... वे न सिर्फ एक खूबसूरत प्रभावशाली गीतकार, कलाकार, निर्देशक और लेखक हैं बल्कि उनसे मिलकर कोई भी यक़ीन के साथ्ा यह कह सकता है कि वे एक बेहतर इंसान भी हैं।
उनकी फिल्में अगर देखी जाएं ज्यादातर.....आंधी हो या किताब..... या माचिस या बरसों पहले आयी वो एक खूबसूरत फिल्म- खुश्बू ।
मिट्टी की महक हर फिल्म में बरकरार रही। मुझे आज तक नहीं भूली वो फिल्म।
खुश्बू के नायक थे जीतेन्द्र। लेकिन उनका गेटअप ऐसा था कि बहुत दिनों तक मैं यह समझती रही कि गुलज़ार ही अपनी फिल्म खुश्बू के हीरो थे। युवा गुलज़ार का झक सफेद कुर्ता पायजामा और चश्मे का गेटअप खुश्बू के नायक ने क्या अपनाया कि वह बिल्कुल गुलज़ार का लुक सा लगा।
मैंने काफी बचपन में वह फिल्म देखी थी और मैं बहुत दिनों तक यह नहीं जानती थी कि गुलज़ार हीरो नहीं कवि और गीतकार हैं....। खुश्बू की खुश्बू आज भी मेरे मन को महकाती रहती है। किनारा, लेकिन और रूदाली भी ऐसी ही फिल्में हैं जो मैं कभी भी नहीं भूल सकती...।
किनारा के भी एक दृश्य में जीतेन्द्र ने गुलज़ार का सा चश्मा लगाकर उनका लुक लिया था.... और उनका वह गीत... नाम गुम जाएगा...चेहरा ये बदल जाएगा....मेरी आवाज़ ही पहचान है....गर याद रहे.....। सचमुच अपनी पूरी ताज़गी के साथ्ा यह गीत एक कालजयी गीत है।
आज भी आंख मूंदकर बिना कुछ सोचे समझे गुलज़ार की फिल्म देखने बैठ जाती हूं.....। कितनी बार भी देख लूं कोई भी फिल्म.... आप कभी बोर नहीं हो सकते.... सामयिकता और ताज़गी कभी गुलज़ार की फिल्मों से कभी ख़त्म नहीं होती.....।
गुलज़ार की सभी रचनाएं कालजयी और सादगी से भरपूर हैं... यदि यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी...।
गुलज़ार की नज़्में हों, गीत हों या फिल्में........ दर्द इतना ज़्यादा है कि चाहे कितना भी रिसे ख़त्म नहीं होता।
उन्होंने कहा ही है-
ये शायर भी अजीब चीज़ है
कितना भी कहे ख़त्म ही नहीं होता..... कुछ ऐसी ही कैफियत है उन पंक्तियों की......, शब्द इस वक्त मुझे ठीक से याद नहीं हैं.....।
ये हैं गुलज़ार....भले ही याद न रहें मगर एहसास रहते हैं।
अनुजा
यह पढ़ कर मुझे भी यही लगा...जो हरेक गुलज़ार के फैन को लगेगा....कि ,काश ...मैं भी मिल पाती .खैर,दी ..अभी तक तो यह संभव नहीं हो पाया है ..देखिये आगे शायद कभी..
जवाब देंहटाएंवैसे ,आपकी यह मुलाक़ात पढ़ कर,अच्छा लगा .