हम सब कवि हैं/ कथाकार और आलोचक/जो अपनी गंधाती पोशाकें नहीं फेंक सकते/क्योंकि उनमें तमगे टंके हैं......हम सब भाषा के तस्कर/ मुक्तिबोध को और कितना बेचेंगे/ हम जो भाषा को / फंसे हुए अन्न के कणों की तरह/ कुरेदकर निकालते हैं दांतों से/ उसे कब निकालेंगे जिसे निगल जाते हैं / चालाकी से......!
कुमार मुकुल के सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह ‘ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएं’ की उक्त पंक्तियां स्वयं ही सारी बातों को खोल देती है.....उनका जवाब देती है जो प्रश्न निरुत्तर से आज भी खड़े हैं। यह मुकुल का दूसरा काव्य संग्रह है। पहला काव्य संग्रह ‘परिदृश्य के भीतर’ 2000 में प्रकाशित हुआ था।
हालांकि कुमार मुकुल अभी अल्पपरिचित कवि हैं परन्तु कविता रचना की दृष्टि से वे नए नहीं हैं। उनकी कविताएं सामान्य होते हुए भी पाठक पर असर छोड़ती हैं। संग्रह की कविताओं में गांव, घर, देस, परदेस से लेकर वैश्विक स्तर की चिंताएं दिखाई पड़ती हैं....और दृश्य भी। भाषा के सुन्दर प्रयोग हैं और ध्वनियों को पकड़ने की कोशिश। एक ओर बिहार के लोक जीवन से वाया साइबर सिटी हैदराबाद दिल्ली तक के विभिन्न विडम्बनापूर्ण दृश्य उनकी कविता के कैनवास पर बिखरे हैं। दूसरी ओर पर्यावरण की चिंताओं से लेकर चांद की बदलती पहचान भी उनकी संवेदना को कुरेदती है। ग्लोबल संस्कृति में प्रेम के बदलते स्वरूप की अभिव्यक्तियां भी हैैं और राजनीति व राजनीतिज्ञों की पर्तें खोलते हुए उसके नग्न बेशर्म रूप की गाथा भी हैं। राष्ट्रीय से अंतराष्ट्रीय राजनैतिक स्थितियों (ग्यारह सितम्बर) पर जैसी करनी वैसी भरनी की एक तटस्थ दृष्टि भी साथ साथ चलती है।
बेशक संग्रह की सारी कविताएं अपना असर हर बार नहीं छोड़ंतीं , कुछ रेशमी पर्दों सी सरक जाती हैं और कुछ पर पन्ने भी पलट जाते हैं (जैसा कि लगभग हर किताब के साथ होता है।) किन्तु अंत और मध्य की कुछ बेहतरीन कविताएं संग्रह का वज़न बढ़ा देती हैं।
हर दौर की कविता की अपनी कुछ विशेषता होती है और मुकुल के दौर की कविताओं की शायद यही विशेषता है कि संवेदनाएं यथार्थ से जब टकराती हैं तो यथार्थ शेष बचता है और संवेदनाएं चूर चूर हो जाती हैं और कविता में भी उसी मेटीयरिलस्टिक कल्चर की नीरसता प्रतिध्वनित होती रहती है। शायद यह समय ही ऐसा है कि हरेक रचनाकार चिंताओं और क्षोभों से जूझता है और फिर उम्मीद में उठ खड़ा होता है। यह शायद उसकी विवशता है कि कोई और विकल्प नहीं है। उत्तर आधुनिक कवियांे की ज़मीन से जुड़े होने की आकुलता यहां भी है। ‘स्मृतियों में शरद’, ‘कटनी’, ‘पेड़े रामोआर के’, कुछ ऐसी ही कविताएं हैं जो महानगर में निरंतर अकेले पड़ते जा रहे आदमी की चिंता और असुरक्षा का खुलासा करती हैं। उत्तर आधुनिक रचनाकार की शायद यही नियति है। ‘इच्छाओं की कोई उम्र नहीं होती’, ‘तोताराम’, ‘परमपद पाने के निकट’, ‘गूंगे लोग’, ‘बूढ़े बच्चे’,‘उनका मन’, ‘कुदाल की जगह’,‘हर सूद’, अंतरिक्ष में विचार’ आदि ऐसी कविताएं हैं जिनमें इस दौर के यथार्थ की अभिव्यक्ति है, अनेक जीवन स्थितियां हैं, उत्तर आधुनिक समय की सुगबुगाहटें हैं। अनेक सामान्य बिम्बों में कही गयी इन बातों में कोई लकीर बहुत दूर तक जाती है।
‘संतोष ही सुख है’, देवता दुःखी हैं और ‘संत समागम’ व्यंग्य के साथ एक प्रतिरोध की अभिव्यक्ति हैं। ‘पहाड़’ एक अलग तरह के प्रभाव की कविता है। कुछ संक्षिप्त कविताएं हैं -‘धूसर बुदबुद सा’, ‘ एक निगाह’, ‘ खुशी’, ‘महानगर’, ‘दफ्तर में लड़की’, सरीखी जो बिना अटकाए जाने नहीं देतीं।
प्रेम की श्रृंखला में लिखी लगभग सारी कविताएं शुुष्क हैं। वैश्वीकरण के दौर में प्रेम शायद दैहिक चेष्टाओं तक ही सीमित रह गया है। भावना का उत्ताप और विचारों का उन्माद कुछ भी सक्रिय नहीं होता, प्रेम कविताओं की सतह पर से गुजर जाता है, भीतर नहीं जा पाता। ये दूसरी बात है कि ‘अनुपमा’ जैसी प्रेम कविता अंत तक आते आते आंसू के रचनाकार की तरह प्रेम को पर्दे में छुपा ले जातीे है। उत्तर आधुनिक कवि का प्रेम आज भी सोलहवीं सदी में जीता है.......प्रेम का स्वतंत्र उद्घोष और उसकी अभिव्यक्ति आज भी उसके लिए बहुत मुश्किल है।
चांद को भी कवि ने क़लम के नीचे उतारा है पर शायद चांद की असलियत का पता लग जाने के बाद उत्तर आधुनिक दौर का कवि चांद और उसकी चांदनी के सौन्दर्य के मोहपाश से मुक्त हो गया।.......और सपनों के टूटने का यही दर्द उसे चांद में कुत्ते का बिम्ब देखने को प्रेरित करता है। वक्त की बदली शख्सियत की ओर संकेत करने में पूर्णतः सफल हैं चांद श्रृंखला की कुछ कविताएं।
वैसे तो इस दौर की कविता की पर्तें उधेड़ने में कई बार बहुत वक्त लग जाता है तब समझ में आता है कि दरअसल ये कुछ और था जो अनकहा रह गया। परन्तु कविताओं में केदारनाथ सिंह, वर्मा जी, अजय श्रीकांत, गौरीनाथ, काशीनाथ सिंह, अरूण कमल, प्रेम कुमार मणि की उपस्थिति जिस तरह से हुई है उससे उनकी उपस्थिति का प्रयोजन समझ में नहीं आता क्योंकि यह कोई सूर सूर तुलसी ससि.......वाली बात भी नहीं उद्धृत करती है। कविता (पेेड़े रामोतार के व अन्य कविताएं) अपने राग रंग रस में बहती हुई आती है और पाठक जब तक उस असलियत में डूबता उतराता है, संस्कृति, सभ्यता व जड़ों का प्रतिनिधित्व करने वाले ये निजी संबंध अचानक बैरियर से आ जाते हैं और पाठक के उस भाव बोध को तोड़ देते हैं जो उसमें अपनी जड़ों से जुड़े रहने की अकुलाहट से पैदा हो रहा होता है। बाकी तो ये उम्मीद के आखिरी छोर से नयी उम्मीदों के शुरू होने की गाथा भर है।
कवि: कुमार मुकुल
प्रकाशक: मेधा बुक्स
मूल्य: 150/
(कुछ पुराने पन्नों से...)
अनुजा
समीक्षा के लिए धन्यवाद - कुमार मुकुल
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