अगले दिन बांग्ला देश के शाहबाग आंदोलन पर बात करने के लिए वो एक कार्यक्रम में शिरकत कर रही थीं! लखनऊ की नूर तीन दिनों तक अपने शहर के साथ अपने शहर वालों के साथ थीं। इस दरम्यान उनसे एक मुलाक़ात, जीवन समाज और समय के बहुत सारे पक्षों पर उनसे बातचीत का मौका मिला। यहां प्रस्तुत है उस लंबी बातचीत के संपादित अंश:
प्रसिद्ध उर्दू लेखक, मार्क्सवादी चिंतक व इंकलाबी सज़्ज़ाद ज़हीर और रजिया ज़हीर की चार बेटियों में सबसे छोटी बेटी हैं नूर ज़हीर। शोधार्थी, नृत्यांगना, एक्टिविस्ट और लेखक...एक साथ चार भूमिकाओं को जीती हैं नूर। दस वर्ष (1979-89) अंग्रेज़ी पत्रकारिता में गुज़ारे और इस बीच नेशनल हेराल्ड, पैट्रियट और टेक।। तथा प्वाइंट काउंटर प्वाइंट में काम करती रहीं। कथक नृत्य की प्रवीण नृत्यांगना के तौर पर भारत के अनेक स्थानों के अलावा रूस, उजबेकिस्तान, क्यूबा, सिंगापुर और इंडोनेशिया में अपनी कला का प्रदर्शन किया। एक वर्ष तक टाइम्स फेलो और तीन वर्ष तक भारत सरकार के संस्कृति विभाग की सीनियर फेलो रहीं। गए ग्यारह बरस से हिमाचल प्रदेश के किन्नौर और लाहौल स्पीती ज़िलों के आदिवासियों के बीच उनकी मौखिक परंपराओं, नृत्य, संगीत और नाट्य रूपों का दस्तावेजीकरण कर रही हैं। उनकी रचनाओं में चार लंबे नाटक- नयन भरी तलैया, काहे का, पत्थर के सैनिक, मानस हिरण और चैबीस अन्य बाल नाटक हैं। बर्तोल्त बे्रख़्त के विज़न्स आॅव दि सन जैसे नाटकों का अनुवाद भी इसमें शामिल है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के लिए शेक्सपियर के ‘टाइटस एंद्रोनिकस’ और ज्यां आनूह के ‘आर्देल’ का भी हिन्दी अनुवाद नूर ज़हीर ने किया है।
नूर का बचपन लखनऊ में गुज़रा और बहुत बेहतरीन गुज़रा अपने बचपन को याद करते हुए वो कहती हैं, ‘‘बचपन मेरा बहुत ही खुशगवार गुज़रा। अगर कोई मुझसे पूछे कि दोबारा अगर आपको बचपन मिले तो कैसा जीना चाहेंगी तो मैं कहूंगी, वैसा ही बचपन मिले जैसा मिला...!
लखनऊ का फैला हुआ घर, ....उसमें बड़े लेखक जो घर पर आते रहते थे...सहज भाव से बैठते थे, हमारे साथ बातें करते रहते थे, और सिर्फ उर्दू के लेखक नहीं.... हमने अपने घर में मलयालम के लेखक भी देखे, फ्रेंच के भी देखे, रूसी भी आते थे, उर्दू के लोग भी रहते थे, हिन्दी भी, कश्मीर से आते थे! ये आज के दौर की चीज़ है कि उर्दू हिन्दी अलग है हिन्दी, बंगाली अलग है। उस वक्त ये था कि प्रगतिशील आंदोलन मे सभी लेखक थे और सिर्फ वो लोग लेखन की बात नहीं करते थे, पाॅलिटिक्स, महिलाओं के मुद्दे, दलितों के मुद्दे, किस चीज़ तवज्जो दी जानी चाहिए, किस चीज़ पर कम कर देनी चाहिए, क्या चीजें उठानी चाहिए, इक्नाॅमिक्स क्या है, ग्लोबलाइज़ेशन क्या है । आज जो हम देखते हैं कि लेखन में बहुत कम हो गया है। लेखन लोग यही कर रहे हैं कि बस मैं और मेरी ज़िन्दगी, मेरी सोचना, मेरी मोहब्बत मेरा इश्क...वो नहीं था इसलिए वो बचपन बहुत अच्छा था, बहुत खुशगवार था!’’
ये कौन सा दौर था समय के हिसाब से....?
मेरी पैदाइश सन् 58 की है और मेरी यादें 63-64 से मानी जा सकती हंै। वो एक बनती हुई दुनिया की कहानी थी। हिन्दुस्तानियत, भारतीयता वो पूरी हर बात में जिंदा थी और भारतीयता का बहुत बड़ा अंश था सेक्युलरिज़्म। बचपन में घुट्टी में डाल दिया गया था कि इंसान को इंसान की तरह परखोगे। कभी किसी मोड़ पर ये नहीं सोचोगे कि अरे इसने मेरे साथ दुव्र्यवहार इसलिए किया कि मैं मुसलमान हूं या ये तो ऐसा करेंगे ही क्योंकि ये मुसलमान हैं या ये ठाकुर हैं...इस तरीके की चीजें नहीं सोचनी हैं। और उसको लेकर बराबर लड़ाई होती रहती थी।
अभी के माहौल में जो हम ये देख रहे हैं, बहुत ज्यादा हिंसा और विभाजन और वो भी छोटे छोटे मसाइल को लेकर, और उसे फिर सांप्रदायिकता का रूप दे दिया जाता है, उसकी क्या वज़ह लगती है उन्हें?
अहम मुद्दे घटा दिए गए हैं समाज से, और इसकी कोई वजह नहीं है....ये एक सोची समझी साजिश है पूरे समाज को अपने जरूरी मुद्दों से हटा देने की। इस तरह उलझाया गया है समाज को धर्म में....., और मैं सारे धर्मों की बात कर रही हूं....। ये केवल अलगाव तक नहीं, बल्कि मैं तो ये भी देखती हूं कि छोटी छोटी पूजा और नज़र नियाज़ देने में कितना आडम्बर हो गया है आज....! पहले ये होता था कि अपने घर में छोटी सी पूजा कर ली कि त्यौहार है। और उसके बाद बाहर जाकर सबके साथ मिल कर खाया पिया....। अब उसका इतना ज्यादा आडम्बर हो गया है।
नूर साहित्य, आंदोलन की दुनिया से जुड़ी रही हैं।
उस दौर में जब वो बड़ी हो रही थीं तो क्या कोई लक्ष्य बनाया था जीवन का?
हां, तब तो यह था कि वामपंथी आंदोलन से जुड़े थे तो तब तो यह लगता था कि दुनिया को बदलने में लगा देनी है पूरी ज़िन्दगी पर फिर जब और बड़े हुए तो यह लगा कि पूरे हिन्दुस्तान को तो शायद नहीं बदल सकते, लेकिन ये ज़रूर था जो चीज क़ायम रही, जो सिखाया गया था बचपन से और हमने शायद माना था कि लेखन के ज़रिये समाज को सोचना सिखाया जा सकता है और अगर सोचना सिखाया जा सकता है तो सोचते सोचते वह उन नतीजों पर ज़रूर पहुंचेगा और वह फिर अपना बदलाव खुद करना शुरू करेगा और सवाल उठाना शुरू करेगा।
तब से, उम्र के उस दौर से आज क्या फर्क पाती हैं ?
देखिए समाज को बदलने की जरूरत तो हमेशा रहेगी और समाज को बदलना एक मुस्तक़िल सिलसिला है। यू.एस.एस.आर. या लेफ्ट सोशलिस्ट ब्लाॅक के गिरने की वजह यही थी कि उन्होंने समाज को बदलना बंद कर दिया था कि जितना बदलाव हो गया है वह हमारे लिए काफी है, और इसके आगे बदलाव की जरूरत नहीं है। जबकि समाज का बदलना एक साइकिल है, वो हमेशा चलते रहना चाहिए, उसकी कोशिश हमेशा रहनी चाहिए, सवाल हमेशा समाज पर उठने चाहिए और जवाब हमेशा हासिल करने की कोशिश करते रहना चाहिए।
जहां तक लेखन का सवाल है, तो तब लोग लेखन पर रिएक्ट करते थे, अच्छा और बुरा दोनों ही। आज मेरे ख्याल से रिएक्शन कम हुआ है और उसको भी मैं ग्लोबलाइजेशन से जोड़ूंगी...एक अंगे्रज़ियत का दौर आ गया है। मैं अपने को हिन्दी और अंगे्रजी दोनों का लेखक मानते हुए कहूंगी कि जब यह फैसला लिया था कि अब हिन्दी/देवनागरी में लिखूंगी तो यह मानते हुए लिया लिया था कि हिन्दी ज़्यादा पढ़ी जाती है लेकिन आज मैं देखती हूं कि ज्यादा तवज्जो अंग्रेजी की तरफ है जो सिर्फ मेरे लिए नहीं पूरे मुल्क के लिए चिंता का विषय है।
लेखन जिनके बारे में और जिनके लिए किया जा रहा है, उनके पास उसे पढ़ना, लिखना सोचना, इसके लिए कोई समय नहीं है तो ऐसे में लेखन कहां पर, कितना और क्या बदलाव कर पाएगा? या फिर आपको लगता है कि एक खास समूह में बदलाव कर देगा और फिर बाकी के साथ फिर काम करने की जरूरत पड़ेगी।
दोनों ही बातें हैं। पहली बात तो यह कि मैं यह नहीं समझती कि लेखन जो है वो उसी वक़्त तक सीमित रहता है। किताब की उम्र पिरामिड से ज्यादा है। एक किताब आप लिख देते हैं तो उसका असर बहुत दूर तक जाता है और इसीलिए लिखना जो है वो सिर्फ उसी दौर तक सीमित नहीं रहता। जहां तक रही निजी फौरी बदलाव की बात तो जरूर काम करने की जरूरत है और इसमें मैं समझती हूं कि लेखक कहीं अलग नहीं है, वह समाज का ही हिस्सा है और जरूरी है कि वह समाज से ही जुड़ा रहे। आज के दौर की मुश्किल यह है कि हमने किसान के बारे में, मजदूर के बारे में, गांव में जो औरत है, जो औरत रेड लाइट एरिया में है, जो कस्बों में हैं उनके बारे में जानकारी रखनी कम कर दी है। जो ताकत प्रेमचंद की क़लम में थी वो हमारे क़लम में इसलिए कम हो गयी है क्योंकि हम ये सब जानकारियां नहीं रखते। हममें से कितने लोग जानते हैं कि कर्नाटक में जो किसान आत्महत्या कर रहे हैं वो किन वजहों से कर रहे हैं। उस कपास में ऐसा क्या है, किस तरह से फर्टिलाइजर्स पर से सब्सिडी हटाई जा रही है, किस तरह से सिंचाई के साधन नहीं हैं, किस तरह से बैंक लोन दिया जा रहा है और किस तरह से बैंक्स जो हैं, वो गुंडे पाल रहे हैं कि जाओ जाकर वसूली करो जाकर।
तो किस तरह से हमें सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्तरों को बदलना चाहिए कि समाज का कल्याण किया जा सके?
देखिए, पहले तो मुझे इन शब्दों से एतराज है कि समाज का कल्याण करना चाहते हैं। समाज में जो बदलाव है वो भीतर से आता है। ज़ेहनी और दिमाग़ी तैयारी में जरूर आप सहयोग दे सकते हैं। जो कल्याण की बात है वो ऊपर से थोपी गयी चीज़ होती है और वो कभी भी ग्रास रूट लेवल तक नहीं पहुंचती और वो स्थायी और सतत् भी नहीं होती। मुझे लगता है कि शुरू से किसान को ठगने की नीति के साथ ही बैंक्स आ रहे हैं या उसको आप ग्लोबलाइजे़शन कह लें या वेस्टर्न नीति कह लें या पूंजीवाद कह लें, वो अलग अलग नाम हैं पर उसका मुद्दा एक ही है। जो सदियों से चीजें हो रही हैं उसी का एक तरह से पैकेजिंग और कवर बदल गया है।
हमारे यहां जो नीति बनाने वाले लोग हैं वो लोग बिक गए हैं। इस ज़मीन के जो किसान हैं, मज़दूर हैं, खेत मज़दूर हैं, फैक्ट्री वर्कर्स हैं उनके बारे में बिल्कुल नहीं सोच रहे हैं। इतना बड़ा करके सार्क जमघट बनाया गया है आठ मुल्कों का और ये पाॅपुलेशन का सबसे डेंस एरिया है सारी दुनिया में, यहां पर स्किल्ड और अनस्किल्ड वर्कर सबसे ज्यादा मौजूद है। मल्टीनेशनल्स यहां आएंगी ही, यह मान कर चलना चाहिए और हमारे जो पूंजीपति हैं वो भी फैलेंगे, बड़े होंगे। हर दूसरे साल सार्क सम्मिट होता है, हमारी सरकारें कभी ये बात नहीं करतीं कि हमारा लेबर कैसे प्रोटेक्टेड होगा! हमारे कांट्रैक्ट लेबर को क्या वेज दी जाएगी! क्यों नहीें ये आठ मुल्क बैठकर ये तय करते हैं कि नहीं भई, मिनिमम वेज तो इतना होगा, यही इंडिया में इतना है, पाकिस्तान मंे इतना हो जाएगा, नेपाल में इतना, बांग्ला देश में इतना टका हो जाएगा, अफगानिस्तान और श्री लंका में इतना हो जाएगा। क्यों नहीं हम तय करते हैं क्योंकि हमारे नीति बनाने वालों की दिलचस्पी ही नहीं है कि लेबर को प्रोटेक्ट करें।
ये जो हमारे समय में इतनी हिंसा और यौन हिंसा बढ़ गयी है, इसकी वजहें क्या हैं, इसकी सज़ा क्या हो और इसे रोका कैसे जाए?
सज़ा तो किसी एक घटना से जुड़ी हुई होती है लेकिन समाज की सोच को बदलना मुस्तक़िल प्रक्रिया है, उस पर काम लगातार होते रहना चाहिए। जहां तक महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा का सवाल है उसमें मैं केवल रेप को नहीं गिनूंगी, उसमें मैं डोमेस्टिक वाॅयलेंस को भी गिनूंगी, मैं ट्रिपल तलाक़ को भी गिनूंगी, मैं मेहर न देना, बच्चों की मेंटीनेंस न देना, उसको भी गिनूंगी, उसमें जो तेज़ी आयी है उसकी वजह यही है कि पेट्रियार्की अपने आखिरी चरम में है।
मुुंबई की इस लड़की को तो मेरा जी चाहता है, मैं गले लगा लूं, बहुत बहादुर लड़की है ! वो एक मिसाल है अपने आप में और एक तमाचा है पेट्रियार्की के मुहं पे कि देखो जैसा तुम समझ रहे हो कि हम मुहं छिपाते फिरेंगे, हम मुहं छिपाते नहीं फिरेंगे।
क्या वजह है कि सरकार एक पाॅलिसी बनाती है महिलाओं को लेकर ,मगर ग्राउन्ड पर जाकर वो वैसे लागू नहीं होती है ?
जाहिर है। क्योंकि वो लोग पेट्रियार्कल हंै। उनकी अपनी जो छोटी सी सत्ता है वो ग्राम प्रधान क्यों छोड़ेगा ? अब जहां पर रिजर्वेशन कर दिया गया है कि महिलाएं ग्राम प्रधान होंगी, वो शिफ्ट होता रहता है वहां पर अब एक नया नाम निकल आया है-प्रधान पति। वही आता है वही साइन करता है, बैठता है बीडीओ के आॅफिस में। बीडीओ से मैंनेे पूछा तो वह कहता है- ये तो चलता है मैडम। और ये प्रेशर नहीं मौकापरस्ती है।
इस्लाम व अन्य दूसरे धर्मों से बौद्ध धर्म की परंपराओं और विचारधाराओं में क्या फर्क पाती हैं आप?
बौद्ध धर्म ग्रन्थ मैंने जितने पढ़े हैं उससे मैं इस नतीजे पर पहुंची हूं कि बुद्धिज़्म आपको पूरी तरह आज़ाद छोड़ देता है। एक जगह पर तो बुद्धिज़्म कहता है कि आप ही बुद्ध हो। तो आपको अपना रस्ता खुद तलाश करना है जैसे बुद्ध ने किया और अंत में जब बौद्धगया में उनको ज्ञान प्राप्त हुआ उसमें उनको यह समझ में आया कि अपनी ज़िन्दगी इसी तरह से जीना है, इसके आगे कुछ नहीं है, इसके पहले कुछ नहीं है। इसी में से सब कुछ मिलता है, इसी में से सब कुछ खो जाता है। आज जो बुद्धिज़्म इतना पापुलर हुआ है, उसमें से ज्यादा वजह यही है कि वो आपको आपके ऊपर छोड़ता है।
लेकिन हाल ही में मैंने फिर से वेद पढ़े और मैं समझती हूं काफी हद तक ऋग्वेद और युजर्वेद में भी ये आज़ादी है। वहां भी ये सवाल उठाया जाता है कि क्या कोई है जो मेरी प्रार्थना सुन रहा है या कोई है ही नहीं, मैं ख्ुाद से प्रे कर रहा/रही हूं। तो ये जो फ्रीडम है सोच का, ये वेदों में भी है। दो वेद में तो है ही। सामवेद तो ज्यादा संगीत की ओर है। और ये फ्रीडम आपको सूफीज़्म में भी मिलेगी। जो अनल हक़ का काॅन्सेप्ट है, आई एम द ट्रुथ! तो वह यह है कि अपने अंदर आप तलाश कीजिए कि सच क्या है... अब ये आपके ऊपर है कि कितना अंदर आप जा पाते हैं।
कथक को लेकर, जो उनकी परम्पराएं थी उससे अलग जो प्रयोग किए उन्होंने, वो क्या हैं ?
दो तरीके के प्रयोग हुए। एक तो जो पारम्परिक पात्र थे, उनमें भी जो अलग चीजें थीं, मैं जिस तरह से कंसीव करती हूं कृष्ण को, वो बहुत बड़े पाॅलिटीशियन हैं, बहुत बड़े योद्धा हैं, बहुत अच्छे दोस्त हैं। मैं चाहती थी कि वो सारे इंटरप्रिटेशंस, उन कैरेक्टर्स के बारे में, मेरे डांस में आएं, और मैंने वो प्रयोग किए।
जैसे निराला की राम की शक्ति पूजा, उसको यह माना गया कि ये तो वो राम का ट्रेडीशनल इंटरप्रिटेशन नहीं है। ये तो राम दुखी भी हैं, तड़प भी रहे हैं सीता के लिए। तो उसको लेकर मैंने जहां जहां किया, बहुत अच्छा रिस्पांस रहा, उसको बहुत पसन्द किया गया।
दूसरी चीज़ ये कि जो नए मुद्दे हैं, आज़ादी का मुद्दा है, इंकलाब का मुद्दा है, औरत की आज़ादी का मुद्दा है, बराबरी का मुद्दा है, उस पर भी जो लिखा जा रहा है उसको भी कथक में नज़र आना ज़रूरी है। उसको भी किया है और वास्तव में अनबन जो शुरू हुई कि ये कथक नहीं है, वो इसी पर हुआ है कि आप औरत की आज़ादी को कथक में कैसे उठा सकती हैं! मेरे लिए राधा बहुत एक आज़ाद औरत है। मियां भी हैं उनके कहीं न कहीं एक पर वो न मियां की बात सुनती है न सास की, उनको इश्क़ है कहीं एक बाहर...। ये इंटरप्रिटेशंस लोग नहीं लेना चाहते, नहीं बात करना चाहते जबकि ये तो हमारे हर मंदिर में मौजूद हैं, उनकी पूजा की जा रही है। तो ये हमारे कल्चर की जो ताक़तें हैं, उसको छोड़ दे रहे हैं, क्यों छोड़ रहे हैं! आई थिंक वी शुड एक्सेप्ट गाॅड लाइक वन आॅफ अस !
अपना ख़ुदा एक औरत , इसकी मूल प्रेरणा कहां पर है और इसका संदेश क्या है ?
शुरूआत तो वहां से हुई जहां से शाहबानो का केस पढ़ना शुरू किया। मैं पेट्रियट में नौकरी कर रही थी और दानियल लतीफी के यहां जाना शुरू किया, वहां बैठना शुरू किया और उनसे बातें शुरू कीं। वहां से ये लगा कि ये औरत तो लड़ाई सच की लड़ रही है, हक़ की लड़ रही है, इसको हक़ मिलना चाहिए। फिर फैसला आया, जो कि उसके हक़ में गया और फिर उस फैसले को उल्टा गया।
वो बहुत बड़ा सेटबैक था, मेरे अपने सोचने के लिए भी, जो मुझे लग रहा था कि डेमोक्रेसी में लगता था, सब कुछ ठीक हो जाएगा। और मैंने दानियल लतीफी को भी बहुत बुरी तरीके से टूटते हुए देखा, जो कि इतने स्ट्रांग थे, लेफ्टिस्ट थे, औरतों के लिए खड़े होने वाले थे। जिस दिन फैसला आया हक़ में, इतने खुश थे, कह रहे थे कि अब तो तैयारी करो अब तो बड़े बड़े बदलाव होंगे इस्लामिक लाॅ में। और वही जब फैसला उलट गया तो न रोए न हंसे, बस चुप....घंटों दीवार देखते रहते थे। तो ये जो उनका टूटना था इसने भी मुतासिर किया। फिर जो सीपीआई, सीपीएम, लेफ््ट आॅरगेनाइजेशन जितनी हैं, उनमें जाकर सबसे बात की कि आप लोग क्यों नहीं इसे फैलाते गांव गांव जाकर। तो उनका जो रवैया था कि नहीं मुसलमान ही बदलेंगे, हम अगर कहंेगे तो हमें हिन्दू कहा जाएगा, उसने बहुत डिसार्टन किया, तब लगा कि इस पर और काम करना चाहिए। थोड़ा सा और रिसर्च वर्क किया।
फिर जो रिफारमिस्ट मूवमेंट था 1940 से, शुरू तो पहले हो गया था लेकिन 1940 में वो नीचे आना, ट्रिपल डाउन होना शुरू हो गया था। तो रिफारमिस्ट मूवमेंट जिस तरह से खत्म हुआ शाहबानो के बाद, वो पूरा पढ़ा, और वहीं से लगा कि इस पर एक किताब होनी चाहिए जो उन मूवमेंट्स से भी कनेक्ट करे और शाहबानो से कैसे खत्म हुआ वो मूवमेंट, उस पर भी बात हो और आगे फिर किस तरह की तब्दीली औरत चाहती, उस पर भी औरत होने के नाते मैं बात कर सकूं।
तस्लीमा का निष्कासन और सुष्मिता का मर्डर...क्या कहेंगी इस पर....?
तस्लीमा के साथ जो भी हो रहा है वो बंगाल गवर्नमेंट ने किया हो या हिन्दुस्तान की पूरी गवर्नमेंट ने, वह बहुत ग़लत है। किसी जगह वो औरत इस मुल्क के खि़लाफ बात नहीं कर रही वो सिर्फ शरीयत के खि़लाफ बात कर रही है जिसके खि़लाफ बात करने की बहुत सख़्त ज़रूरत है। वो ओपेनली बात करती है। जब फै़ज़ को निकाल दिया गया था पाकिस्तान से, जिया उल हक़ की रिजीम में, तब हिन्दुस्तान की पांच युनिवर्सिटीज़ ने उनको जाॅब आॅफर की थी। लेकिन वही फैसिलिटी हम तसलीमा को नहीं हम लोग दे रहे। ये अपने आप में हमारा एक पेट्रियार्कल एटीट्यूड है।
सुष्मिता का जो ख़ून है वो मुझे पूरा किस्सा समझ में नहीं आया। जिस वक़्त वो शादी करके गयीं और फिर वहां से निकल कर आयीं। उनकी वो किताब आयी- काबुलीवाला की बंगाली बीवी, उस वक्त उनके लिए मेरे दिल में बहुत सिम्पैथी थी। जब इतनी दुश्वारी, इतनी डोमेस्टिक वायलेंस से वो गुज़री थीं तो क्यों नहीं तलाक ले लिया, दोबारा क्यों वह चली गयीं।
ये मुझे जो औरत जो खुद पशोपेश में रह जाती है और निकल नहीं पाती, इस पर मुझे थोड़ा सा गुस्सा भी आता है औरतों पे और ये लगता है कि भई आपकी ज़िन्दगी सिर्फ मियां पर तो मयस्सर नहीं है, आप तो और भी चीजें करना चाहती हैं तो आगे बढ़िए करिए।
बचपन की कोई एक कहानी, कोई एक बात जो कभी आप नहीं भूल सकती हैं।
बचपन की एक बात जो मुझे हमेशा याद रहती है और जिसे मैं बार बार सुनाती भी हूं और जिस पर लोग अक्सर ऐतराज करते हैं कि नहीं सुनाना चाहिए। मैं कोई दसेक साल की थी, जहां से मैं गिनती हूं कि मेरी नास्तिकता की शुरूआत हुई, वो पूरा किस्सा तो मेरे हिस्से की रौशनाई में दर्ज हैं, लेकिन वो अब्बा का एक रूबाई सुनाना था- ‘ऐ बन्दा-ए-हक़ बात को मेरी पहचान। इन्सान एक हक़ीकत है और अल्लाह गुमान।।’
तो ये जो डाउट उन्होंने उस वक्त सिखाया कि हर चीज़ पर सवाल उठाओ और यह अब्बा ने बहुत ही खूबसूरती से किया कि सबसे बड़ी हस्ती जो मानी जाती है आपकी ज़िन्दगी में, भगवान या अल्लाह, उस पर सवाल उठाओ और बाकी जो दूसरी चीजंे हैं वो छोटी चीजें हैं, उन पर फिर सवाल उठाती रहो, तो यह सिलसिला वहां से शुरू हुआ कि सवाल हर चीज़ पर उठाना है.... तो वह सिलसिला अगर मैं जारी रख सकूं तो मेरी खुशकिस्मती होगी।
ज़िन्दगी को कैसे देखती हैं?
डिस्कवरी।
प्रकृति में क्या पसंद करती हैं ?
चिड़ियों को। सबसे ज्यादा गाती हैं वो, सबसे ज्यादा अच्छी लगती हैं।
कोई ऐसी चीज़ जो लग रही है कि अभी भी छूटी पड़ी है, करना चाहेंगी?
छूटी पड़ी हुई मगर कर नहीं पाएंगे, ये मुझे पता है। मुझे बहुत बहुत गाना गाने का शौक़ है और मैं बहुत बेसुरी हूं।
जब बहुत परेशान होती हैं तो क्या करती हैं?
पढ़ते हैं।
इश्क़ के बारे में कैसे सोचती हैं?
जो भावना आपको काम से अलग न करे, बल्कि जो काम को बढ़ाए और आप उस काम को पा कर उस इश्क़ की तृप्ति को महसूस करें, तो वह इश्क़ है। मेरे खयाल से मैं इस बात में रवीन्द्र नाथ ठाकुर को कोट करूंगी- Life is kept evergreen by death, I would say- Love is also kept evergreen by death. One love is die than another is born, is what keeps love alive.
बुद्धिज़्म के बाद क्या करेंगी?
मैंने अभी एक बड़ा प्रोजेक्ट खत्म किया है नेशनल इंदिरा गांधी सेंटर फाॅर आर्ट्स के साथ, वो है अर्ली उर्दू राइटिंग, इंडिया में। तो 1900 से लेकर 1950 तक का दौर कवर किया है, जो चार वाल्यूम्स में है। दो फिक्शन, एक पोएट्री और एक नाॅन फिक्शन है।
अब नेक्स्ट 14 सितम्बर को मैं जा रही हूं सेंट्रल एशिया, वहां प्रोजेक्ट यही है कि सिल्क रूट के ऊपर बुद्धिज़्म का कैसे विकास हुआ, क्या आर्ट सेंटर्स हैं। ये ट्रेड रूट ही था और मेरी पीएचडी इस पर है कि ये रूट जो डेवलप हुआ, किन किन धर्मों से इस में बदलाव आया। ‘सिल्क रूट’ यानि बनारस से शुरू होकर चाइना, तिब्बत होते हुए फिर सेंट्रल एशिया पहुंचता है और फिर रोम पहुंचता है। तो उस रूट पर, ऐसा मेरा मानना है, जो मेरी बेसिक रिसर्च है कि उस पर सबसे ज्यादा बुद्धिज़्म फैला। वहां पर सेन्टर्स बने, बुद्धिस्ट मठ बने, कल्चरल डेवलपमेंट्स हुए, जातक टेल्स पहुंची। तो वो जो मुस्लिम हो गए हैं इलाके, उनमें बुद्धिज़्म अन्दरूनी तौर पर कैसे सरवाइव कर रहा है, कैसे वो घुल मिल गया है इस्लाम के अन्दर क्योंकि उनका इस्लाम बहुत मुख़्तलिफ है। वो तालिबानी इस्लाम नहीं है। उसमें डांस भी है म्यूज़िक भी है, गाने भी हैं, नाटक भी हैं, तो वह कैसे सरवाइव किया ।
अनुजा
(सुपर आइडिया में प्रकाशित)
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