सोमवार, 10 मार्च 2014

औरत...

सारी दुनिया को
अपनी गोद में छिपाए...
रत्‍नगर्भा के हिस्‍से में
नहीं है
कोई अपना आलोक....

अनुजा
03.05.1998

औरत..

सदियों का सफ़र तय करके
धरती अब भी है
अपने उसी बिन्‍दु पर....
जहां
ताप शाप रस के लिए
ताकना पड़ता है
उसे
आसमान का मुहं....

अनुजा
03.05.1998





आधी दुनिया...

जब पूरी दुनिया को बांटे जा रहे थे
चांद ...
सूरज...
सितारे...
पहाड़...
नदियां...
समुद्र...
दरख्‍़त...
आकाश...
रंग...
झरने...
तब भी ढूंढ रही थी आधी दुनिया
अपने अंधेरे उजाले....

अनुजा
03.05.1998


गुरुवार, 6 मार्च 2014

औरतें....

औरतें जायदाद नहीं होतीं...
कि
जितना चाहो उतना फैलें
और जब चाहो
सिमट जाएं....
कि 
उनके रखने, न रखने 
देने या लेने 
उठने-गिरने
बनने-बिगड़ने 
सहेजने या बांटने
जाने या रहने 
पर 
उनकी मर्जी का कोई वश न हो.....

औरतें कमाई नहीं जातीं....
कि 
जैसे चाहो उड़ा लो....

औरतें युद्ध नहीं होतीं
कि 
जीती जाएंगी...
कि 
उनके सपनों का कोई मतलब ही न हो....

औरतें दांव नहीं होतीं
कि 
लगा दो....
और 
भाग्‍य आजमाओ....।

औरतें 
महज़ सम्‍मान नहीं होतीं...
कि बचाने के लिए 
तत्‍पर रहें सदा आप....
उन्‍हें जीने दें ...
जीने की पूरी स्‍वतंत्रता के साथ...
उनकी अपनी अस्मिता के साथ....
उनके पूरे हक़ के साथ...
जिसमें कहीं न हों  आप...
उनके 
मालिक के तौर पर...

औरतें जायदाद नहीं हैं...


औरतें 
वन हैं...
निर्झर हैं...
आकाश हैं....
नदियां हैं...
सूरज हैं...
वृक्ष हैं...
हवा हैं...
पंछी हैं...

औरतें जीती हैं
अपने रंग के साथ...
अपनी पहचान के साथ....


औरतें जायदाद नहीं हैं...
कि 
चाहो तो ज़मीन बना लो...
या 
चाहो तो कैश करा लो...
चाहो तो सोना बना लो...
या
चाहो तो पगड़ी बना लो...

औरतें 
इंसान हैं....
जियेंगी
उनकी अपनी सोच के साथ....।

अनुजा
07.08.1998


शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

कितना अच्छा होता है


कितना अच्‍छा होता है

एक दूसरे को जाने बगैर
पास-पास होना 
और उस संगीत को सुनना 
जो धमनियों में बजता है
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं।

शब्‍दों की खोज शुरू होते ही 
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं ,
और उपके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से 
मछली की तरह फिसल जाते हैं।


हर जानकारी में बहुत गहरे
उब का एक पतला धागा छिपा होता है, 
कुछ भी ठीक से जान लेना 
ख़ुद से दुश्‍मनी ठान लेना है ।


कितना अच्‍छा होता है 
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर 
दूसरे का पा लेना।



सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना