गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

पांचवा रास्‍ता..

समय बदलता है तो
बदल जाता है बहुत कुछ.....

ख़्याल उगते हैं तो
रच जाती है एक दुनिया.....।

यादों पर जमी हुई धूल की परतें साफ होने लगी हैं...
गिरहें खुलने लगी हैं......

नज़र आने लगी है एक पगडंडी सी
जो ले जाएगी उस मोड़ तक.....

जहां से शुरू होगा
कोई एक पांचवां रास्ता......।

अनुजा
02.09.13

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

हथेलियों में....


जब कुछ नहीं होता
तो बहुत कुछ होता है
हथेलियों में.....

ख्‍वाहिशें....
सपने....
उम्‍मीदें....
आसरे....
यक़ीन...                   

मेरा-तुम्‍हारा....

यादें....
तुम और मैं....

एक कप चाय
के बीच
बहती गुफ्तगुएं.....
लंबी यात्राएं.....

बादलों के बीच खोते रास्‍ते.....
एक रूमानी निश्चिन्‍तता.....

हवाओं के झोंके....
सूखे पत्‍तों से भरे रास्‍ते...

नीला शामियाना....
सुर्ख़ पीला सफेद बल्‍ब
उजियाली सुबहें
सर्द सफेद रातें....
सन्‍नाटे जंगल....
पैरों की थाप....

टहनी पर अटकी कलियां
दानों पर गिरती चिडि़या....

एक खामोशी.....
कुल आवाज़ें.....

जि़न्‍दगी से बात
सारी उजास....
उदासी की शाम...
आवारगी की रात.....
भोर की बात.....
मौजों के साहिल....
शफ्फाक झरने....
एक मौज
एक साहिल.....
एक चांद और ढेर से सितारे.....

बहुत कुछ होता है...
जब कुछ नहीं होता
ह‍थेलियों में.....।
अनुजा
14.09.13
फोटो:आर.सुन्‍दर(c)

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

चालीस के पार....



जि़न्दगी
जब पार कर जाती है 40 वसन्त....

एक सही सलामत
आजीविका का
नहीं होता कोर्इ स्थायी आधार.....
ना ही
कोर्इ सहारा....

ढूंढे नहीं मिलता कुछ भी....
हर
दरवाज़े से बैरंग लिफ़ाफ़े सा
लौटा लाती है उम्र....

साथी
मर जाता है
अपने साथ आने से पहले ही
शहर की किसी दौड़ती सड़क के सन्नाटे में....
दफ़्न रहता है लावारिस सा
शहर के किसी ख़ामोश मुर्दाघर में......

गुलाबों की पंखुरियां झर जाती हैं
नीम के कसैले पत्तों सी
कड़वी हो जाती है समझ....
चिता की लपटों के बीच
झुलस जाता है हर सपना...
सुलगते हुए एहसास
तब्दील हो जाते हैं ठंडी राख में.....
लहराती हुर्इ मुटिठयां
झूल जाती हैं मृत बांह सी...

सपने तब कितने अलग हो जाते हैं सारी दुनिया से....

नर्इ कोंपलों
और
पोढ़ी पत्तियों का कोर्इ मेल नहीं होता....!

04.03.05
अनुजा

सन्‍नाटा....

फोटो: आर.सुन्‍दर (C)
तुमने
ये कैसा सन्नाटा बोया है.......
चारों तरफ
बस धुंधलाती दिशाएं हैं
और टूटकर बिखरते फूल.....
तुमने ये कैसा सन्नाटा खींचा है.....
कि कैनवास की रेत पर रुकता ही नहीं कोर्इ रंग......
तुमने ये कैसा सन्नाटा बोला है.......
सन्नाटा...!
जिसमें गूंजता है बस
खामोशी का एक लम्हा
और
चुप्पी का एक मौसम.......!

कितनी भारी है ये खामोशी
उन आंधियों से.....
जब
टूटती थीं शिलाएं......
और
भागते थे दरिया......
बस अपनी ही रौ में.....
दौड़ती थीं लहरें
पांवों को छूने
और छूकर लौट जाने के लिए......
रेत के लहराते सपनों पर
रचा है तुमने
ये कैसा सन्नाटा........!

यहां न सितारे हैं.....
न चांद...
न निरभ्र आकाश.....
ना बादलों का ओर छोर छूते
चहचहाते पंछी.....
बस एक चमकीली नीलिमा
के साये तले
बिखरी हुर्इ उजड़ी सी हरीतिमा के आगोश में......

छीजता है एक गहरा सन्नाटा........!


अनुजा
23.04.07

सांप्रदायिकता, राजनीति और हम....


हमने जब सफ़र शुरू किया था.....
गहरे दोस्त थे.........

आज
मैं तुम्हारे लिए एक हिन्दू भर कैसे रह गयी......
तुम आज दोस्ती के चोले को छोड़
केवल
मुसलमान कैसे रह गयीं........?

अपनी जि़दों और ज़दों के कटघरे में कै़द हो
तुमने ना सिर्फ मेरे भगवान को छोड़ा
बल्कि
अपने ख़ुदा को भी मुझसे जुदा कर दिया.....
जिसे
मैंने पुकारा हर बार उसी शिद्दत से अपने भगवान के साथ....
जिससे
मांगी हर बार तुमने दुआ
मेरे ही लिए......

तुमने  आज उस ख़ुदा का भी बंटवारा कर दिया.......

तुम आज उनके पाले में कैसे हो
जो
मुझे तुम्हें बांटकर अपनी सत्ता की सीमाओं को और बड़ा करना चाहते हैं......

तुम,
जो उनकी गलतियों से क्षुब्ध और भयभीत हो.....
आज उनकी गलतियों को दोहरा रही हो.....
यानि कि वो अपने मकसद में कामयाब रहे.....
और हम
नाकामयाब मोहब्बत के दर्द के साथ तन्हा हो गए........!

हमें तो यह लड़ार्इ फिर से लड़नी पड़ेगी....
किसी नर्इ रणनीति के साथ......
क्योंकि
अब यह लड़ार्इ केवल दुश्‍मनों से नहीं है
उन दोस्तों से भी है
जो
आज हमारे दुश्‍मनों के साथ खड़े हैं......!

10.05.07
अनुजा