सोमवार, 12 सितंबर 2011

वो लड़की.....

कभी सोचो
उस
लड़की के बारे में
जि़न्‍दगी में
जिसकी आते हैं तमाम
संघर्ष
बाधाएं
ढेरों उलझनें...
अस्‍थायित्‍व की लड़खड़ाहट...
स्‍थायित्‍व के सारे
प्रयास
परिवार और समाज की बंदिशें....
पर
कभी नहीं दिखते
जिसे
विन्‍ध्‍य और सतपुड़ा के जंगल....
कनेर के
पीले खुश्‍बूदार रंग....
अपने सौन्‍दर्य के
सारे उत्‍ताप के साथ......।
नहीं होती
जो
वेरा, वनलता सेन सी...
नहीं होता कोई दांते...
नहीं आता
नीले आसमान का शोख नीलापन
जिसके पास रहता है
अनन्‍त शून्‍य ....
खालीपन.... ।
नहीं आता
जिसके पास
प्‍यार.........।
अनुजा
18.11.1999
-आलोक की कविताओं से गुज़रते हुए

रविवार, 11 सितंबर 2011

सवाल.........।

सवाल
आहत करते हैं हमें......

कभी-कभी
चीर भी देते हैं भीतर तक......
शायद
भयाक्रान्‍त भी करते हैं

सवाल...
और
कुछ उत्‍तर भी....
तो
क्‍या सवालों के मुहं पर
जड़ देना चा‍हिए
ताला......?????????

-अनुजा
15.07.1999

रविवार, 28 अगस्त 2011

लौटा लाओ.......

माथे पर
तुम्‍हारा एक चुंबन...
अश्‍वत्‍थामा के रिसते ज़ख्‍़म पर
मरहम...
फिक्र के दो शब्‍द...
अपना ध्‍यान रखो.....
सुकून का एक झोंका.....
बाहों का एक आश्रय....
गले से लगी हुई
आत्‍मीयता.....
एक बार
फिर लौटा लाओ
वो कुछ
बीते पल .......!
अनुजा
02.08.11

सुबह सुबह एक ख्‍़वाब की दस्‍तक पर.......पर.......

सुबह सुबह एक ख्‍़वाब की दस्‍तक पर दरवाज़ा खोला........
तो देखा 8:30 बज गए थे। बारिश का एक तेज रेला बहकर जा चुका था। अपनी भोर के सा‍थियों के स्‍वागत में जो पकवान रखे थे , पानी के तेज बहाव के साथ बहकर जा चुके थे। चिडि़यां ज़मीन पर उन्‍हें तलाश रही थीं। गिलहरी पौधे की एक पतली सी टहनी पर कलाबाजि़यां कर रही थी। सारी की सारी आपस में बतिया रही थीं......बहस जारी थी- 'सुबह हो गयी.... अभी तक उठी नहीं।' एक ने कहा।
'दरवाज़ा तो खुल गया है'- दूसरी बोली।
'उसका कुछ भरोसा नहीं, दरवाज़ा खोल के सो जाती है।' तीसरी ने अपनी राय ज़ाहिर की। ये राय भी ज़रूर उसकी आंखों देखी होगी।
'इतनी देर हो गयी....भूख लगी है', गिलहरी टहनी की फुनगी को कुतरते हुए टुप से बोली।
'क्‍या करें अब'॥, किसी अगली ने चिंता व्‍यक्‍त की।
'चलो, मिलकर शोर मचाएं'....।
' आज अभी तक बाहर भी नहीं दिखाई दी......' किसी ने कहा।
तबियत तो ठीक होगी ना...।
'ओहो, धैर्य रखो न, आ जाएगी.......' गिलहरी सर्र से नीचे उतर आई।

कान में कुछ सुर सुर तो हो रहा था मेरे। गैस के पास खड़ी चाय बना रही थी कि ये खुसुर पुसर मेरे कान में पड़ी। सुबह पानी के कोप से साफ हो चुकी छत को देख चुकी थी। अचानक मुड़कर खिड़की के बाहर देखा तो पूरा का पूरा कुनबा मौजूद था इंतज़ार में अपनी अठखेलियों और प्रपंच के साथ।
अक्‍लमंद को इशारा काफी है।
दाने ले जाकर छत पर बिखेर दिए। और बस सब की सब एक साथ झुंड में चिट् चुट् कलरव करने लगीं। आपस की छेड़छाड़ शुरू हो गयी।
गिल्‍लू तो अभी भी वहीं पर है और खाने में मग्‍न है अपनी पतली टहनी के झूले पर झूलते हुए। उसकी सभी सहेलियां बीच बीच में आकर उसे छेड़ती हैं और नीचे आने को कहती हैं पर अब तक वह अपनी निश्चिंत सी अपने झूले पर झूल रही है।
ये मेरे घर की हर सुबह का दृश्‍य है। और दिनों की अपेक्षा रविवार को यह ज्‍यादा दिखाई देता है क्‍यों‍कि रविवार को मैं देर तक सोती हूं। ये कहानी 14 अगस्‍त की है। आज़ादी के एक दिन पहले की कहानी है......।
सचमुच पंछी, नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्‍हें रोके......।
ऐसा लगता है घर के आंगन से उड़कर यहां मेरा साथ निभाने आ गयी हैं और रोज सुबह हाजिरी लगाने आ जाती और मेरी ये गिटपिट उनसे लगभग रोज़ ही चलती है.......।
..........और वो रोज़ ही अपनी टी वी टी टुट् टुट् में मुझसे मेरा हाल लेती हैं......।
हम एक दूसरे की भाषा समझते हैं..... जानते हैं और बतियाते हैं........।
आंगन की ये अनोखी आत्‍मीय साथी अब धीरे धीरे सिमटती जा रही है........ कम होती जा रही है.......।
ऐसे तो क्‍या बचेगा शुभ कल......।
मैं तो बोलूंगी कि अपनी इस हर सुबह की साथिन को बचा सको तो ही बचेगा 'शुभ कल'।

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

भमीरी

हम सब भाग रहे थे
रिफ्यूजी थे
मां ने जितने ज़ेवर थे, सब पहन लिये थे
बांध लिये थे....
छोटी मुझसे.....छ: सालों की
दूध पिला के, खूब खिलाके, एक साथ लिया था
मैंने अपनी एक ''भमीरी'' और इक ''लाटू''
पाजामे में उड़स लिया था
रात की रात हम गांव छोड़कर भाग रहे थे
रिफ्यूजी थे......

आग धुएं और चीख़ पुकार के जंगल से गुज़रे थे सारे
हम सब के सब घोर धुएं में भाग रहे थे
हाथ्‍ा किसी आंधी की आंते फाड़ रहे थे
आंखें अपने जबड़े खोले भौंक रही थीं
मां ने दौड़ते दौड़ते खू़न की क़ै कर दी थी!
जाने कब छोटी का मुझसे छूटा हाथ
वहीं उसी दिन फेंक आया था अपना बचपन....
लेकिन मैंने सरहद के सन्‍नाटों के सहराओं में अक्‍सर देखा है
एक ''भमीरी'' अब भी नाचा करती है
और इक '' लाटू'' अब भी घूमा करता है......!"

गुलज़ार