वसंत आता है तो
बुन्देलखण्ड याद आता है। जून की भीगती सूखती गर्मी और दिसम्बर जनवरी के धुंधले
झरते दिनों के बाद रंग बिरंगा हो उठता है बुन्देलखण्ड अपने पूरे सौन्दर्य के
उत्ताप के साथ। ऐसे ही नहीं चन्देलों बुन्देलों ने बनाया होगा इसे अपना
आशियाना...! पलाश के नीरस पेड़ों पर काली कलियों की लटें बिखरने लगती हैं,
सरसों
की पियरायेपन में झूमते बुन्देलखण्ड में चारों तरफ नारंगी लाल दीप जल जाते
हैं...यह फागुन का महीना होता है...पलाश अपने शबाब पर होता है...और आनन्द अपने चरम
पर....!
बुन्देलखण्ड में जाने का मौका मिला
मुझे 2008 में...। बावरी सी मैं मना कर आयी थी इस खूबसूरत आमंत्रण को....।
दिल्ली की चकाचौंध में जीवन की रहगुजर तलाशते दुर्गन्धित नाले के आस पास खिले
जंगली पेड़ पौधों और साउथ दिल्ली की हरियाली सड़कों पर गाड़ियों के धुंए से संघर्ष
करते सड़कीले छायादार पेड़ों, छत पर रखे गमलों या सामने के प्लॉट पर
गदराये सेमल के बीच में खिले सफेद फूलों को ही अपने प्रकृति प्रेम के लिए लिए
पर्याप्त मान समय की शुक्रगुज़ार होती रहती थी, जब बुन्देली
धरती ने आवाज़ दी थी।
आवाज़ इतनी गहन अपनाइयत से भरी हुई थी
कि न चाहते हुए भी खींच ही ले गयी। चार महीने का मन बनाकर गयी थी और मन को वहीं
पलाश के जंगलों...जमे पड़े पत्थरों के बीच छोड़ आयी। वजह तो काम ही थी पर यह नहीं
पता था तब कि एक सपने को जीने के लिए इस बुन्देली धरती ने आवाज़ दी है....और 23
अक्टूबर, 2008 को यह आवाज़ बुन्देलखण्ड के झांसी ओरछा के 200 गांवों के बीच
लहक कर गूंज उठी...और आज भी हूक सी सीने में जज़्ब है.....रेडियो बुन्देलखण्ड ।
समय ने सौभाग्य दिया बुन्देलखण्ड का
पहला ‘सामुदायिक रेडियो’ शुरू करने का। न कोई आकार था, न रूप, ना
ही कोई समझ, बस एक तलाश थी जो संघर्ष की इस धरती पर कुछ नया शुरू करने का बीड़ा उठा
पहुंच गयी....आज कुछ बातें उसी यात्रा की....।
यह सितम्बर का
महीना था। झांसी के सूने से, शोर शराबे से दूर, शान्त
स्टेशन पर अपनी एक अटैची और कंप्यूटर के साथ मैंने लक्ष्मीबाई के शहर में दस्तक
दी। स्टेशन परिसर से बाहर द्वार पर ही मिले- वृन्दावनलाल वर्मा, मैथिलीशरण
गुप्त और केशवदास, हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य क़लमकार,....फिर गांधी की
दांडी यात्रा....,फिर बारिश में भीगी हरियाली झांसी...। ओरछा के ताराग्राम तक के सफर
में एक खूबसूरत, शान्त और भीगे शहर से मुलाक़ात हुई...ये बुन्देलखण्ड का केन्द्र था।
स्वतंत्र बुन्देलखण्ड की राजधानी के तौर पर प्रस्तावित झांसी...। झांसी, जहां
पहले स्वतंत्रता आंदोलन की आग प्रदीप्त हुई, आहुति हुई,
मरदानी
झांसी की रानी की...और गली गली में गूंज उठे सुभद्रा कुमारी चौहान के बुन्देले
हरबोलों के ओजस्वी स्वर...।
बुन्देलखण्ड की झांसी से यह पहला परिचय
अभिभूत कर देने वाला था। यूं तो कर्वी चित्रकूट और महोबा में भी जाना आना हुआ कई
बार काम के सिलसिले में और पथरीले जंगलों के सौंदर्य से सजा बुन्देलखण्ड हमेशा
अपनी ओर खींचता रहा...मन्दाकिनी और गोदावरी का पानी बसता रहा अन्तस में...और
अन्ततः पहुज और बेतवा के तट पर खींच लाया...। हमेशा से सूखे दीन हीन हुए
बुन्देलखण्ड के समृद्ध स्वरूप से यह पहली गहन सी मुलाकात थी....। झांसी से ओरछा के
रास्ते में फैले हुए जंगलों ने अपनी आगोश में लिया और ताराग्राम ने बस जकड़ लिया।
मन ही मन धन्यवाद किया ईश्वर का और उस
बॉस का, जिसने प्रस्ताव पर ध्यान न दे झांसी जाने का सुझाव रखा।
ताराग्राम....! कल्पना थी कि यह कोई गांव है शायद जहां काम करना है....हां,
गांव
की तर्ज़ पर बना यह दफ़्तर है.... और यहीं शुरू करना था मुझे बुन्देलखण्ड का पहला
सामुदायिक रेडियो जिसका मुझे तब तक नाम भी नहीं पता था...कितनी तैयारी है...किसके
साथ काम करना है और कैसे करना है...कुछ भी ब्लू प्रिंट नहीं था...न मन में...न
निर्देशों में...। कोई नियम नहीं...कोई जानकारी नहीं...पंछी को छोड़ दिया गया था
निरभ्र आकाश में उड़ान भरने के लिए....रास्ता तय करने के लिए...और बस यहीं शुरू हुई
यात्रा...बुन्देलखण्ड के उस पहले सामुदायिक रेडियो की जिसका नाम बाद में पता
चला-रेडियो बुन्देलखण्ड।
ऑफिस के तौर पर
एक खाली कमरा, एक स्टूडियो, एडिटिंग टेबल, चार किशोर और एक
किशोरी लड़की....और ये पांचों पांडव पास के गांवों से निकल कर आये...बिन्दास
ग्रामीण रंग में रचे बसे...पांच दिन के प्रशिक्षण के साथ रेडियो बुन्देलखण्ड की
बागडोर संभालने....एक ऑल इन वन साथी संस्था के, और मैं....इन
सारे संसाधनों और रेडियो की शुरूआत के बीच था एक महीने का समय....बारिश की टिप टिप
और शरद की सुहानी हवाओं के बीच...। निमंत्रण देना था राम राजा को, राजा
हरदौल को और दतिया की पीताम्बरा माई को..। ‘किसी भी शुभ काम का निमंत्रण पहले यहां
रामराजा, हरदौल और दतिया की पीतांबरा माई को देते हैं। पहले यहीं देना चाहिए
मैडम। यहां इनके बिना कोई शुभ काम शुरू नहीं होता,’ समुदाय के साथी
बोले और पहले इन विशिष्ट अतिथियों को आमंत्रित किया गया सबसे पहले।
साथी अशोक की चिंता थी कि रेडियो और
संगीत का गहन संबंध है। गीतों के बिना रेडियो का क्या मतलब है? गीत
थे नहीं और गीत खरीदने के लिए पैसे चाहिए... 30 गीतों का मूल्य
40,000/-, इतने पैसे अनुदानों पर चलने वाली कोई गैर सरकारी संस्था नहीं खर्च कर
सकती और यही 30 गीत हमेशा तो रेडियो में नहीं बज सकते...श्रोता बोर हो जाएंगे..!
बात सही थी। गीत चाहिए वह भी स्थानीय लोक गीत, जिनमें ऐसे गीत
तो नहीं ही थे जो कॉपीराइट की अवधि से मुक्त हों....खोजने का समय भी नहीं
था...क्या किया जाए ? मैंने कहा रेडियो से एक आवाज़ दो समुदायों को...। जोशीली नौजवान टीम
को आइडिया पसंद आया और दूसरे ही दिन से रेडियो परिसर में उत्सव का माहौल हो गया।
ढोलक, हारमोनियम, झांझ, मजीरे के बीच
गूंजने लगीं सुमधुर आवाज़ें लोक गायकों की मंडलियों की...‘गई थी कहां धनिया,
डारी
कितै करधनियां’...‘नारी को तुम खम नहीं समझौ नारी जग उजियारी, अरी
ए री...’ ‘नवज्योति को जगा दो ओ वीणावादिनी’....‘सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम्,
शस्य
श्यामला मातरम्’....मिली जुली संगीत विधाओं, भाषाओं और
बोलियों से उर्जस्वित हो उठा रेडियो बुन्देलखण्ड...!
बुन्देलखण्ड के लोक संगीत की समृद्ध
परंपरा और लोक कथाओं से यहीं परिचय शुरू हुआ। आल्हा, राई, कजरी,
कहरवा,
बसंत,
दादरा,
लमटेरा,
गोट,
तिलवारा,
चैती,
दीवारी,
फाग
और ऐसी ही अनेक लोक, बल्कि ग्रामीण विधाएं, गांव की टूटे फूटे वाद्यों के संग गाने
वाले ग्रामीणों के सुरों में लयबद्ध रहती हैं। कबीर परंपरा के गीतों की चेतावनी
में, जल, जंगल, ज़मीन को बचाने की कोशिशों के गीत, सब दर्ज होते गए
बुन्देली गीत कोश में। बस रेडियो से दी गयी आवाज़ और जिसे खबर मिलती गयी वह मंडली
और गायक रेडियो आते गए और बुन्देलखण्ड के इस पहले रेडियो में अपनी समृद्ध परंपराओं
और मधुर आवाज का दस्तावेजीकरण करते रहे। ये मंच बना उनका जिनके लिए कोई मंच नहीं
था...और एक सफल मंच रहा स्थानीय समुदाय के कलाकारों, प्रतिभाओं और
निवासियों के लिए....।
लोकगीतों की इस परंपरा में नए प्रयोग
करते हुए रेडियो ने गांव गोहार में ज़रूरी सूचनाओं और संदेशों को भी स्वरबद्ध कर
पहुंचाया। मौसमी गीतों के बीच ‘पानी अमृत समान, सबै देत प्रान
दान, पानी में कचरा ना डालियो... जंगल के बिरछा न काटियो..’ जैसे गीतों को
भी सहेजा और यह समझ हासिल की कि संगीतबद्ध संदेश कैसे आमजन के जे़हन में बस जाता है
और अपना स्थायी असर छोड़ जाता है। रेडियो की टीम में बाद में जुड़े कई साथी इन
कार्यक्रमों और गीतों से इतने संवेदनशील हो गए कि रोज़मर्रा के ईंधन की ज़रूरतों के
लिए पेड़ की टहनियां काटने में भी सकुचाने लगे। राह चलते पानी बहता देख पहले के
लापरवाह छोकरे अब नल और पाइप को दुरूस्त करने लगे...! पानी और पेड़ के अभाव का दर्द
वैसे तो हर बुन्देलखण्डवासी जानता है पर स्थानीय लोकगीतों, संदेशों और
कार्यक्रमों ने उनकी संवेदना को और भी पैना कर दिया।
सामुदायिक
रेडियो हालांकि नया प्रयोग नहीं था पर गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा स्थानीय
ग्रामीणों के साथ, 10-15
किलोमीटर की रेंज में स्थानीय बोलियों और मुद्दों पर बात करना जैसी
कई नयी बातें इसमें एक चुनौती सरीखी थीं और ये सारे प्रयोग किये गए बुन्देलखण्ड
में...! पूरे देश भर से सामुदायिक रेडियो की दुनिया में काम करने के इच्छुक और
इसके साथ छोटे छोटे प्रयोगों में जुटे लोग, परामर्शदाता
सबकी नज़र हमारी ओर थी और संशय के साथ...देखें, क्या होता
है...सफल बनाने की ज़िम्मेदारी मिली थी डेवलपमेंट ऑल्टरनेटिव्स और बुन्देलखण्ड को
।...और अन्ततः सबने बुन्देलखण्ड के इस पहले रेडियो की धूम को स्वीकार किया। ऐसे कई
साथी, जो रेडियो शुरू करना चाहते थे..उनकी हिम्मत बना ‘रेडियो बुन्देलखण्ड’
और राहबर भी... सम्मानित हुआ बुन्देलखण्ड का पहला सामुदायिक रेडियो प्रथम पुरस्कार
से, सांस्कृतिक संरक्षण के लिए... झूम उठा विज्ञान भवन, बुन्देलखण्ड
के संगीत के सुरों पर।
केवल लोक संगीत ही नहीं, संस्कृति,
इतिहास
और लोक कथाओं का भी दस्तावेजीकरण किया गया यहां। हर समुदाय की तरह बुन्देली समुदाय
में भी लोक कथाओं और इतिहास की गाथाएं फैली हुई हैं, बुन्देलखण्ड
रेडियो में ये अपने मौलिक रूप में दर्ज हैं। आज़ादपुरा गांव, जहां अपने
अज्ञातवाद के दौरान चन्द्रशेखर आज़ाद रहते रहे, और जिनके नाम पर
उस गांव का नाम बदलकर आज़ादपुरा हो गया। उनकी मड़ैया और मूर्ति वहां आज भी स्थित है।
किलों, गढ़ियों, छतरियों और मन्दिरों से समृद्ध बुन्देलखण्ड में पत्थरों की अद्भुत
कलाकारियां जो आज भी बुत बना देती हैं, एक एक कर दर्ज की गयीं...कही और सुनाई
गयी। जून के महीने में सूखे से जूझते बुन्देलखण्ड के ओरछा में बेतवा पर बना पतला
राजसी पुल बारिश के महीनों में नदी के उफान से लोगों को बचाने के लिए बंद हो जाता
है। सैलानी और स्थानीय लोगों को सावधान करके बेतवा के दूसरे तटों पर रिवर राफ्टिंग
का मज़ा लेने, बर्ड सेंचुरी में दुर्लभ पक्षियों से मुलाकात का पता बताते रेडियो
बुन्देलखण्ड की ये आवाज़ पूरे देश की प्रेरणा बनती रही...विदेशियों शोधकर्ताओं और
प्रशिक्षकों को भी अचम्भित करती रही इसमें समुदाय की प्रतिभागिता । पत्थरों और
पलाशों से समृद्ध यह बुन्देलखण्ड अद्भुत कलाओं का स्वामी भी है और इसकी जिजीविषा
दुर्धर्ष। ओरछा, दतिया, टीकमगढ़, गढ़कुण्डार, चंदेरी और झांसी के किलों का अद्भुत
वास्तु, मौसम और भौगोलिक आपदाओं से जूझने की तैयारी लोगों को आज भी अचरज में
डालती है। खजुराहो की कला मन्त्रमुग्ध करके अचानक ही पूछती है कि कल्पना और कला का
संगम करने वाले ये कौन मूर्तिकार हैं ? मानसिंह तोमर के क़िले की ऊंचाई हैरानी
में डालती है, कुछ क्षणों के लिए मूक रह जाते हैं..जब कही जाती हैं यहां की
कहानियां स्थानीय लोगों के द्वारा...।
वो पांच पांडव जो बुन्देली देहातों से
निकलकर आए थे...क्रमशः प्रखर रेडियो रिपोर्टर में बदले...उत्साह इतना कि मानो रेंज
में आने वाले गांवों की सारी दुर्व्यवस्थाओं को बदलकर रख देंगे,
सारी
औरतों की ज़िन्दगी में अब एक नई दुनिया खुल जाएगी...उत्साह ठाठें मारता था..,
क्या
करें...देहातों में औरतों को घूंघट खोलने की आज़ादी नहीं,
फिर चिड़ियों की
चहक को मद्धिम हो ही जाएगी...! मेरे लिए यह अनुभव बहुत ही द्वंद्वमय था। एक ओर तो
लोक संगीत कह रहा है बिटिया को तुम खम नहीं समझौ,
बिटिया जग
उजियारी...और एक ओर औरतों से बात करना दुश्वार..! वो कैसे प्रतिभागी बन पाएंगी
अपने इस बाजे की,
जो दरअसल उनके लिए सूचना और मनोरंजन का एक पिटारा बनकर आया है उनके
ही क्षेत्र में...‘स्त्री एक कहानी मेरी भी’...एक पूरी श्रृंखला शुरू की...कहानी
एक औरत की...मुद्दे तो बहुत थे अब तक,
पर कहानी कहां थी औरत की...ये श्रृंखला
औरतों की सादी जीवन गाथा में गुंथी हुई थी,
गुड्डे गुड़ियों,
बर्तन
भांडे,
खेत जनावर,
रसोई खाना,
घूंघट पायल के
साथ ही दफ़्न हो चुकी उम्मीदें और सपने भी थे...और असीसें भी...बेटियों के लिए...।
औरतों की इस बानी से बनी बात और समझ आया कि आज़ादी और आत्म निर्भरता सभी को
चाहिए...औरत को भी...बुन्देलखण्ड की औरत को भी...! शुरूआत मुश्किल थी...।
प्राची, हमारी एकमात्र
महिला रिपोर्टर रोती हुई लौटी कई बार- ‘दीदी, का करी, कोऊ
बोलतै नाईं।’ दुनिया तलाशने निकली लड़की का पराजय बोध...। हाथ में माइक थाम चल पड़ी
उसके साथ- चल मैं करती हूं...कुछ कहानियां घर चौबारे में पहुंची और औरतों के फोन
आने लगे- ‘हमाई कहानी लई जाओ’..लड़की सीख चुकी थी...औरतें भी सीख चुकी थीं..। आज यह
श्रृंखला इसी नाम के साथ देश के शायद कई सामुदायिक रेडियो शुरू कर चुके
हैं...औरतों की कहानियां बुन्देलखण्ड से शुरू होकर अब सब कहीं दर्ज हो रही हैं।
यात्रा लगातार बढ़ रही थी और नया कुछ
करने की चाहत हिलोरें ले रही थी। उत्साही और सहयोगी टीम हमेशा कुछ नया और रचनात्मक
लाती है...रची गयी बुन्देलखण्ड के लोक संगीत की प्रतियोगिता- ‘बुन्देली आइडल’ ।
किसी भी सामुदायिक रेडियो पर होने वाली यह पहली प्रतियोगिता थी और इस प्रतियोगिता
ने बहुत से स्थानीय लोक गायकों को पहचान और काम दिलाया। गरीबी से आहत
बुन्देलखण्ड रेडियो क्षेत्र के इन स्थानीय कलाकारों का मूल्य बढ़ गया जब ओरछा राम
राजा के मन्दिर में उन्हें विजेता घोषित किया गया। जिनके लिए कोई मंच नहीं था उनके
लिए मंच बना रेडियो बुन्देलखण्ड और ओरछा से 100 किमी दूर
टीकमगढ़ तक यह धुन पहुंची, कलाकारों को काम मिला और नाम भी....।
यात्रा का दूसरा पड़ा था ‘रूरल रीयलिटी
शो’। जलवायु परिवर्तन के सताए हुए बुन्देलखण्ड में यह भी पहली शुरूआत थी। दुनिया
के किसी भी रेडियो पर ऐसा ‘शो’ पहली बार हुआ और बुन्देलखण्ड के किसानों, जिसमें
औरतें भी थीं और युवा भी, ने इसमें भाग लिया और जीत हासिल की।
अपनी मिट्टी को उर्जस्वित करने, अपने सूखे घरों में पानी बचाने और अन्य
भी अनेक स्थानीय परंपराओं का विज्ञान और तकनीक के साथ सामंजस्यपूर्ण प्रयोग करने
और उसे अन्य लोगों तक बांटने के लिए पुरस्कृत हुए बुन्देलखण्ड के युवा और औरतें।
आज चार सामुदायिक रेडियो हैं
बुन्देलखण्ड में, जो आठ लाख ग्रामीणों और कस्बाई समुदायों को उनकी स्थानीय बोली में,
स्थानीय
मुद्दों पर सूचना, जागरूकता और मनोरंजन उपलब्ध करा रहे हैं। सूखे से जूझते बुन्देलखण्ड
के सभी सामुदायिक रेडियो बस अपनी जिजीविषा पर काम कर रहे हैं विषम आर्थिक
परिस्थितियों में, पर ये बुन्देलखण्ड के अपने हैं। ‘चंदेरी की आवाज़’ बुनकरों का
सामुदायिक रेडियो है जो चंदेरी में स्थित है। चंदेरी अपनी अद्भुत बुनाई और सुकोमल
साड़ियों व अन्य कपड़ों के लिए प्रसिद्ध है। हर दूसरे घर में आपको ताना बाना मिल
जाएगा। दर्शनीय बादल महल के अलावा एशिया को पहला ‘हैण्डलूम पार्क’ यहां बनाया गया
है जहां कारीगर अपना काम करके अच्छे पैसे कमा सकते हैं। कबीरी कामगारों को गरीबी
से निकालने का यह प्रयास, संभव है इस विश्व प्रसिद्ध कला को
जीवित रखने में कामयाब हो सके। ग्वालियर जहां सो रही है मरदानी झांसी की रानी,
के
शिवपुरी में है ‘रेडियो धड़कन’ और ललितपुर जिसकी ललित छटा से आप सहज मुक्त नहीं हो
सकते, वहां ‘ललित लोकवाणी’ अपनी प्रबुद्ध उपस्थिति से समुदाय को समृद्ध कर
रहा है। स्थानीय युवाओं, प्रतिभाओं और कलाकारों के लिए एक मंच
हैं ये बुन्देलखण्ड के ये सामुदायिक रेडियो। इन रेडियो से जुड़े कितने ही साथी आज
अपनी यात्राओं में बहुत आगे निकल चुके हैं। रेडियो बुन्देलखण्ड में काम करने वाले
प्रथम पंक्ति के साथियों में से दो राष्ट्रीय रेडियो आकाशवाणी से जुड़े। आज वे
नियमित कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता हैं। केवल लड़के ही नहीं लड़कियों को भी यहां अवसर
मिले हैं और गांव की गोरियां छोरियां अब बुन्देलखण्ड की सीमाओं से आगे जाकर देश के
दूसरे राज्यों में अपनी प्रतिभा के फूल खिला रही हैं...यह इसी मंच से मिली ताक़त
है।
कहानी बहुत लंबी है और यात्रा जारी
है...। जैसे हर उदय का अवसान अवश्यंभावी है..बुन्देलखण्ड के इस पहले रेडियो में भी
एक वक़्त लगा कि यह ख़त्म हो रहा है...पर यह ख़त्म नहीं हुआ क्योंकि आज भी
बुन्देलखण्ड के दो लाख ग्रामीणों के मन में यह बजता है...दस साल हो गए हैं यात्रा
को...मशाल मेरे हाथ से अब बुन्देली नौजवान पीढ़ी के हाथों में गयी है...और वो संभाल
रहे हैं इस विरासत को...। यह जगह है जहां राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से
लोग आते हैं, इस पूरी कहानी को सुनते हैं...इसके काम को समझते हैं...सीखते हैं और
इस बात पर अचरज करते हैं कि रेडियो भी क्या ऐसी चीज है जिसे सामान्य ग्रामीण चला
सकते हैं...? क्या एक बढ़ई, एक किसान, एक रसोई में काम
करने वाली औरत, कभी भी घर से बाहर न निकली एक सामान्य ग्रामीण बालिका, एक
ठेलेवाला, एक सब्जीवाला....कोई भी चला सकता है...और यह बात बुन्देलखण्ड के इस
पहले रेडियो ने साबित की है कि सब कुछ संभव है । आज इस रेडियो के उन पहले पांच और
उसके बाद के भी पांच और उसके बाद के भी पांच अपने अपने रास्तों पर आगे बढ़ चुके
हैं...देश के दूसरे रेडियो और मीडिया मंचों को संभाल रहे हैं...और अगली कतार में
गांवों से निकले नए लोग आ चुके हैं...पर यात्रा अनवरत जारी है...क्योंकि केवल सूखे
से कराहता नहीं है बुन्देलखण्ड...गाता भी है...हंसता भी है....रंगमय भी होता
है...और हुलसता भी है....जी पर है हमें घमण्ड वो है हमाओ बुन्देलखण्ड और इसी
बुन्देलखण्ड के पहले सामुदायिक रेडियो- रेडियो बुन्देलखण्ड की धूम से मदमस्त हैं
इसके डेढ़ सौ गांवों की गलियां....!
अनुजा
(कला वसुधा बुन्देलखण्ड अंक में प्रकाशित)