जब उनके पास नहीं था कोई रूप रंग....
कोई आकार....
कोई चेहरा....
कोई पहचान....
उन्होंने चुना एक माली को.....
एक कुम्हार को.....
एक दर्जी़ को...
एक मिस्त्री को.....
एक कामगार को....
एक बुद्धिजीवी को.....
एक मां को....
एक औरत को....
एक टीचर को.....
एक निर्माता को....
रोका एक राही को.....
स्वागत किया सबका....
आज...
जब तैयार हो गया है उनका घर....
हो चुका है रंग रोगन....
आ चुका है दुनिया की नज़र में....
वो नहीं चाहते
कि वहां रूके एक पल भी वो....
उन्होंने तय कर दी हैं....
उनकी दिशाएं...
उनकी सीमाएं....
उनकी जि़म्मेदारियां....
उनकी भूमिकाएं....
उनका लक्ष्य.....
खींच दी है
एक लक्ष्मणरेखा....
ख़त्म करने को तैयार हैं उनका अस्तित्व....
ताबूत में बस आखिरी कील जड़नी बाक़ी है....
न जाने वो पल कौन सा होगा.....
किस झोंके के साथ आएगा.....
कहां ले जाएगा.....
कुछ भी नहीं पता....
बस दूर तक फैले सन्नाटे में....
उड़ती हुई रेत में....
फैली...बिखरी..धंसी....उभरी...हुई चट्टानों में...
सूखते पत्तों के कांपते हुए होठों को
पैरों से चूमते हुए.....
रौंदते हुए रेत के ढेर को.....
जाना है कहीं दूर....
किसी दिशा में....
तैयार है.... सब कुछ....
चल हंसा....
उस देस, जहां.....
उड़ते हों बादल....
खिलती हो धूप....
बहते हों झर झर झरने....
नाचती हो जीवन की उमंग....
बचपन का भोलापन.....
चल हंसा....!
-अनुजा
10.04.12
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