इक सबब मरने का, इक तलब जीने की
चांद पुखराज का रात पश्मीने की।
आज चांद बहुत सुन्दर है। पूरे आकाश में अकेला घूमता फिर रहा है...। सितारों की तो झलक तक नहीं है। बादल हालांकि बरस चुके हैं मगर फिर भी ढीठ से आसमान को घेरे हैं।
अभी कुछ देर पहले नमिता भाभी की रातरानी की महक से गुज़री हूं और अब तक सराबोर हूं।
पूरी छत पर चांदनी और उसके बीच में बह बहकर आती रात रानी की महक का आभास....।
ये केवल लेख का नशा नहीं हो सकता........ पक्का कहीं आस पास रातरानी इतरा रही होगी........।
बाहर छत पर बहुत सुन्दर है। बादलों ने आवारा चांद को फिर अपने आगोश में ले लिया है और उसे घेरे घेरे आगे बढ़ते जा रहे हैं ढीठ से.......। चांद चुपचाप उनके लम्स को महसूस कर रहा है...... और अपनी ठंडक को उस भीगेपन से सराबोर करके बिखराता चला जा रहा है।
बादलों से घिरी चांदनी रात का यह खामोश ठंडा सन्नाटा.......और भोर की धुंधली चमक में बहती हवा की ठंडक का ताज़ा झोंका..... दोनों ही मुझे हमेशा बांधते हैं.......मगर दोनों ही मुझसे बहुत दूर हैं.........।
अज्ञेय के उपन्यास नदी के द्वीप में भुवन का एक डायलॉग मेरे भीतर हमेशा बहता है, जो वह चांदनी को निहारती हुई रेखा से कहता है- 'पगली, चांदनी है। सब न पी सकोगी।'
सुबह सवा आठ बजे दफ्तर की बस को पकड़ने और कैंटीन के खाने से बचने के लिए सुबह सुबह खाना बनाने की जिम्मेदारी ने मेरी ये भोर और रात की ठंड को फांकने का सुख छीन लिया है।
जाते हुए हर रोज़ में कोशिश होती है कि अपनी इस खुशी को, इस तसल्ली को वापस ले लूं....... छीन लूं वक्त से...... पर मशीन में फंसे धागे सी घड़ी की सुइयों में फंसे समय वाली इस जि़न्दगी से उसे वापस लाना मुश्किल ही होता जा रहा है......।
नींद मुसलसल पीछे ही पड़ी रहती है और टिप् टिप् बूंदों सा मन में कुछ बहता रहता है सारे दिन........
शायद नींद का कोई अनछुआ सा झोंका.....जो चांद की नरमाई और ठंडी हवाओं की सिहरन से महरूम कर देता है।
15.08.11
आज भी सचमुच चांद बाहर अपने पूरे शबाब पर है....।
चांदनी रात और ठंडी हवा...। बाहर गयी थी नल बंद करने कि चांद ने बाहं पकड़ ली और सरगोशी की- अन्दर क्या कर रही हो, बाहर आओ न....।
आज ये चांद तन्हा है पर यही चांद कभी कभी तन्हाई का अकेला साथी होता है।
मेरे कमरे के बाहर की छत काफी बड़ी है। छत पर एक बगिया भी है....। पिछले दिनों जबसे माली बदला है छत और बगिया सुन्दर लगने लगी है।
जब से मैं अकेली रहती हूं, यह चांद ही है जो साथ देता रहा है.....। चाहे एकाग्रता का अभ्यास करना हो या एकान्त से बाहर आना हो, सिर्फ चांद ही अपना साथी रहा है।
दिल्ली शहर के बाद इस छोटे से शहर में रहने का यह तो फायदा हुआ ही है। कम से कम चांद सितारों से थोड़ी दोस्ती निभ जाती है। बड़े शहरों से तो ये रात और इस रात की छुअन दोनों ही महरूम हैं।
अनुजा
दी...चाँद भले आपका साथी हो...तन्हाई का...एकांत का..पर,अब हम सब आपको यूँ अकेला न रहने देंगे...खींच लायेंगे वापस इस ज़िंदगी में...जिसे छोड़ कर आप कहीं दुबक गयी हैं जाकर..
जवाब देंहटाएंआपकी डायरी के यह पन्ने आपके मन की स्थिति को बाखूभी अपने में समेटे हुए हैं.....भावों से ...बिम्बों से परिपूर्ण ..डायरी लेखन!
शुक्रिया निधि। दुनिया गोल है.... आदमी कितना भी भागे...कहीं भी भागे.... एक दिन उसे पता चलता है कि वह वहीं खड़ा है जहां से वह चला था...।
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