जुदाई का हर निर्णय संपूर्ण और अंतिम होना चाहिए, पीछे छोड़े हुए सब स्मृतिचिन्हों को मिटा देना चाहिए, और पुलों को नष्ट कर देना चाहिए, किसी भ्ाी तरह की वापसी को असंभव बनाने के लिए।
हर पीड़ायुक्त निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए हमें उसे दैनिक जीवन का स्वाभाविक अंग बनाना होगा । तभी हम उसे भूल सकते हैं जिसे हमने खो दिया है।
वह थकान- इसके नीचे लेट जाना चाहिए, इसकी घनी छाया के नीचे जहां विरक्ति की अलमस्त लहर घेर लेती है...पीड़ा, इच्छा, उम्मीद का वह पत्ता कहां गया, क्या शून्यता से टकराकर झर गया...या वह अब भी वहीं है, निश्चल, शांत, आंखों से आेझल ?
एक जि़ंदगी जो बीच में कट जाती है अपने में संपूर्ण है । उसके आगे का समय उसके साथ ही मर जाता है, जैसे उम्र की रेखा- वह चाहे कितनी ही लंबी क्यों न हो- म़त हथेली पर मुरझाने लगती है । क्या रिश्तों के साथ भी ऐसा होता है जो बीच में टूट जाते हैं ? हम विगत के बारे में सोचते हुए पछताते हैं कि उसे बचाया जा सकता था, बिना यह जाने कि स्मृतियां उसे बचा नहीं सकती़, जो बीत गया । मरे हुए रिश्ते पर उसी तरह रेंगने लगती हैं, जैसे शव पर च्यूंटियां । दो चरम बिंदुओं के बीच झूलता हुआ आदमी । क्या उन्हें (बिंदुओं का) नाम दिया जा सकता है? दोनों के बीच जो है, वह सत्य नहीं पीड़ा है । वह एक अर्धसत्य और दूसरे अर्धसत्य के बीच पेंडुलम की तरह डोलता है, उन्हें संपूर्ण पाने के लिए, लेकिन अपने गति में- जो उसकी आदिम अवस्था है- हमे
शा अपूर्ण रहता है ।
अब कुछ भी नहीं है, उतना भी नहीं, जिसमें अपने न होने को समर्पित किया जा सकेा जब कुछ भी नहीं रहेगा तो शून्यता का स्वच्छ बोध भी, जो हमेशा भीतर रहता था, हमारा साथ छोड़ देता हैा
लेकिन जब कुछ भ्ाी नहीं रहता, तो मैं कुछ भी हो सकता हूं- एक वृक्ष, एक पत्ता , एक पत्थर। और यह ख्ा़याल कि हम 'कुछ नहीं' से भी कम हो सकते है, मृत से अधिक मृत- एक गहरी सांत्वना देता है, जैसे बचपन में, बीमारी की रात, मां का हाथ अंधेरे में सहलाता है.....जिस दिन मैं अपने अकेलेपन का सामना कर पाउंगा- बिना किसी आशा के- ठीक तब मेरे लिए आशा होगी कि मैं अकेलेपन को जी सकूं।
-निर्मल वर्मा