रविवार, 22 सितंबर 2013

बिटिया....

बहुत पुरानी 1997 की एक कविता....तब बिटिया दिवस होता था या नहीं....याद नहीं पर घटनाएं तब भी यूं ही होती थीं...दहेज, बलात्‍कार, भ्रूण हत्‍या, बेटियों को नकार...विवाह का बोझ और भी जाने क्‍या क्‍या...जो पितृसत्‍ता की देन है...और साथ ही यह ताना भी अपना पल्‍ला झाड़ने के लिए कि औरत की सबसे बड़ी दुश्‍मन औरत ही होती है....क्‍यों.....इसकी पड़ताल किए बिना....बार-बार, लगातार.... । बाद में ये उस समय की साहित्यिक पत्रिका 'उत्‍तर प्रदेश' के नारी विशेषांक में भी छपी....। हालांकि स्‍त्री के पक्ष में बात करने वालों ने इसे पढ़ने के बाद यही प्रतिक्रिया की कि मैं ऐसा क्‍यों लिखती हूं..., सोचती हूं...कहती हूं कि बिटिया को जन्‍मना ही नहीं चाहिए, मुझे कहना चाहिए कि बिटिया को जनमना चाहिए, उसे अपने अधिकार भी हासिल करने चाहिए और इसके लिए लड़ाई जारी है...। कविता से शायद उन्‍हें एक दु:ख और बेबसी का आभास हुआ था....।

हां था...। शादी की उम्र में बार बार यह सुनना कि शादी कर लो, सब मिलेगा....,उनसे, जो जानते थे कि बिटिया क्‍या चाहती है...। पता है कि वो भी बेबस थे....बिटिया से बुढि़या बनी वह औरत....जो आज नहीं है...मगर जिसकी किताब में शायद यह था ही नहीं कि बिटिया को बिना ब्‍याहे भी सब कुछ दिया जा सकता है....सब कुछ...., जिसके एलबम में पति के बिना कोई तस्‍वीर होती ही नहीं है...क्‍या है जो वह उसे एक थप्‍पड़ मार भी देता है....,जिसके जीवन की शुरूआत और अंत बिटिया से ही होती है...जो यशोदा सी थी...और जिसे बिटियों से सबसे ज्‍़यादा प्रेम था....‍जो बेटों और बेटियों में से बिटिया को ही चुनती थी सब देने के लिए....हां, उसकी हसरतों के निषेध की प्रतिक्रिया में ही जन्‍मी थी यह रचना.....न जाने ऐसी कितनी बेटियों के लिए...जो बूढ़ी हो गयीं हैं...जानती हैं, मानती हैं....पर स्‍वीकार नहीं कर पाती हैं स्‍त्री का अकेला पूर्ण स्‍वरूप....। तो बेटी के विवाह की ये कामना पितृसत्‍ता से उपजे भय की प्रतिक्रिया थी, मातृ स्‍नेह था या स्‍त्री की असुरक्षा.....पड़ताल जारी है.....

(।)
बिटिया
मत जन्‍मो तुम...
मत जन्‍मो
कि
यहां कुछ भी नहीं है तुम्‍हारा....
सब धरती..
सारा आसमान....
सारे पे‍ड़....
ये सारा जहान...
कुछ भी नहीं है तुम्‍हारा बिटिया....
न ये सड़क...
न ये घर...
न ये स्‍कूल...
न ये दफ़्तर...
न ये पेड़...
न ये सूरज....
न ये चांद...
न ये तारे...
कुछ भी नहीं है तुम्‍हारा बिटिया...
न ये धूप....
न ये बारिश...
न ये धर्म....
न ये देश...
न ये संस्‍कृति...
न ये शिक्षा...
कुछ भी नहीं है तुम्‍हारा बिटिया....।

(2)
चन्‍द लोगों के घर सुख पाओगी
तुम बिटिया...
वो सुख
जो भिखारी को फेंके गए रोटी के टुकड़े सा है
इस घर से उस घर तक
ख़ानाबदोशों सी
ढू़ंढोगी तुम अपना घर....
अपने घर का सुकून...
मगर नहीं....
कहीं कुछ भी नहीं है तुम्‍हारा बिटिया....
या तो इस घर आने के लिए...
या तो उस घर जाने के‍ लिए....
बिस्‍तर पर बिछने वाली एक चादर सा है...
रहेगा अस्तित्‍व तुम्‍हारा....
जिसे बेटवा/आदमी
तब इस्‍तेमाल करता है जब खाली होता है
जब वक्‍़त नहीं कटता है....

(3)
बादल सा दु:ख
और
बारिश सा आंसू
साथ रखोगी तुम
दिये की बाती सी जलोगी...
तुम्‍हारी कोई पहचान नहीं रहने देगी
बिटिया से बुढि़या बनी औरत...
बिटिया मत जनमो तुम....
कि
तुम्‍हारे जन्‍म के लिए
तुम्‍हारी मां बनी बिटिया को
जीने नहीं देगी
बिटिया से बुढि़या बनी औरत....
बिटिया मत जनमो तुम....
कि
तुम्‍हें जलाने के लिए खरीदा जाएगा
एक दूल्‍हा...
बिटिया,
उस दूल्‍हे के बिना कोई पहचान
नहीं है तुम्‍हारी....।

(4)
बिटिया
मत जन्‍मो
बात मानो...
चाहे हम बना लें कंप्‍यूटर
ईजाद कर लें क्‍लोनिंग
बच्‍चे के जन्‍म के लिए
खरीदें कोख....
मगर
उस कोख से ‘बिटिया’ का जन्‍म नहीं चाहेंगे...
बिटिया
मत जन्‍मो तुम
तुम्‍हें कुछ नहीं मिलेगा
मुट्ठी भर राख के सिवा...
इसी मुट्ठी भर राख से एक चुटकी
सिंदूर देकर
तुम्‍हें ख़रीद लिया जाएगा...
और उस लाल रंग को
आग बना कर सजा दिया जाएगा
’मांग’ बनी तुम्‍हारी मांग में...
और
सब कुछ देकर भी तुम मांगती ही रह जाओगी...
रीते हाथ....
बिटिया मत जन्‍मो तुम...
जहां हो
वहीं सुखी रहो
दु:ख बीनने मत आओ यहां
बिटिया....।


अनुजा
02.08.1997

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