गुलज़ार से पहली मुलाकात हुई थी लखनउ के होटल ताज में, जगजीत सिंह भी साथ में थे। सोच के गयी थी कि उन दोनों का इंटरव्यू करेंगे। प्रतिभा और मैं दोनों साथ थे। उसी दिन मुझे पता चला था कि गुलज़ार प्रतिभा के हीरो हैं। नवीन जी ने बताया था। हम उन दिनों स्वतंत्र भारत में थे। ये 1996-97 का दौर था। पर कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम नि:शब्द हो जाते हैं जब उनसे मिलते हैं जो हमारी सोच का एक हिस्सा हो जाते हैं। ऐसे ही लोग नायक हो जाते हैं। उस वक्त पत्रकार, लेखक और व्यक्ति को अलग करना मुश्किल होता है। वो वक्त वही वक्त था जब हम उनसे एक भी शब्द नहीं पूछ सके, बस खामोशी को बहते बोलते सुनते रहे तमाम सवालों के शोर में....।
लौटकर कुछ लिखने की कोशिश की पर बस इतना ही बन पड़ा था और कहीं किसी पुरानी डायरी के पन्नों में दबा पड़ा था ये पन्ना...।मैंने भी तो यार जुलाहे......
और ऐसा लग रहा था कि सामने ही वो जुलाहा, जिसने शब्दों के ताने बाने से बुना है पूरा एक दर्शन......जीवन की एक पूरी सोच....विचारों का एक ग्रंथ....।
सफेद बुर्राक क़लफ किया कुर्ता पायजामा, सफेद बाल, हल्की सी बढ़ी हुई विशिष्ट पहचान वाली दाढ़ी और पांवों में सफेद चप्पल....और इसके साथ ही चमकती-उजली मुसकान.....।
ये गुलज़ार थे... हमारे शहर में...हमारे बीच....एक स्वप्न के साकार होने की प्रक्रिया.....।
बेइरादा किया गया काम अनिश्चितता की स्थिति से जब उबार लेता है और हम वो पा जाते हैं जिसके बारे में हमने सोचा भी नहीं होता है तो बस जो होता है..... वही हुआ......, कहीं छलक पड़े आंसू...कहीं रच बस गयी खामोशी....।
क्या बोलें॥क्या पूछें..., न कोई सवाल ....न कोई जवाब....।
बस बोलती है खामोशी....।
अनुजा