दीवारें
दीवारों के सिर्फ कान नहीं होते....
ज़बान भी होती है....
सन्नाटे को तोड़ती है...
खुसुर पुसुर करती है...!
चौंक जाती हैं दीवारें सन्नाटे में
चूल्हा जला लेती हैं...
दाल खदबदाने लगती है...!
उसकी खदबदाहट से
गूंजने लगता है सन्नाटा...
दीवारों की ज़बान चलने लगती है.....
बतियाने लगती हैं वो
आपस में....
तुम्हारे मेरे मौन के बीच....
दीवारों के सिर्फ कान ही नही होते...
ज़बान भी होती है.....!
ज़बान भी होती है.....!
2.
जीवन
जीवन जैसा है
इच्छाएं भी वैसी ही होनी चाहिए...
जीवन ऐसा
और
इच्छाएं वैसी क्यों हों....
इतने द्वंद्व की ज़रूरत क्या थी...!
इच्छाएं भी वैसी ही होनी चाहिए...
जीवन ऐसा
और
इतने द्वंद्व की ज़रूरत क्या थी...!
जीवन देना था वही...
जिसकी इच्छा देनी हो.....
इच्छा देनी थी वही....
जैसा दिया था जीवन.....
जिसकी इच्छा देनी हो.....
इच्छा देनी थी वही....
जैसा दिया था जीवन.....
नमक तो नमक
पानी तो पानी.....
नमक को पानी
और
पानी को नमक में
बदलने की कवायद
बेमतलब क्यों.....
होती किसी आज़ादी के लिए
तो ठीक थी....!
पानी तो पानी.....
नमक को पानी
बेमतलब क्यों.....
होती किसी आज़ादी के लिए
तो ठीक थी....!
किसी के स्वरूप को
बेवजह बदलना....
क्यों बदलना....
बलिदान नहीं....
शोषण है....!
क्यों बदलना....
बलिदान नहीं....
शोषण है....!
3.
मैं
मैं पेड़ थी...
किसी जंगल की....
मुझे आंगन क्यों दे दिया....!
केवल आंगन नहीं....
आंगन के भीतर कोई एक कमरा....
अंधियारा....
जहां न है
नीलाकाश....
न बरसता है सावन....
न कुहुकता है कोई पंछी....
आंगन के भीतर कोई एक कमरा....
अंधियारा....
जहां न है
न बरसता है सावन....
न कुहुकता है कोई पंछी....
शाखें सूनी हैं....
कोई घोंसला नहीं है
यहां मेरी किसी शाख पर....
कोई घोंसला नहीं है
यहां मेरी कोई शाख ही नहीं....
कोई छांव ही नहीं.....
कोई छांव ही नहीं.....
मैं लहर थी...
मुझे लपट क्यों बना दिया....!
बहाना था किसी झरने के साथ....
नदी की क्रोड़ में
जिसमें डोलती एक नाव....
लहरातीं उर्मियां....
और...
जिसमें डोलती एक नाव....
लहरातीं उर्मियां....
और...
टकराकर भागती चली जातीं
शिलाओं के पार.....
निर्विरोध....
निर्बाध....
निरंतर....
निर्विरोध....
निर्बाध....
निरंतर....
बांधा क्यों कोई बांध...
मेरे सीने पर....!
मेरे सीने पर....!
अनुजा
संडे नवजीवन में प्रकाशित
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