अच्छी बात है कि हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं....! सरकार और सहयोगियों ने उसके जश्न में कोई कमी नहीं रहने दी है....! अच्छा लगता है....पर मुन्नू और मिश्रा जी, गुप्ता जी, अग्रवाल जी, पाल जी वगैरा-वगैरा के घर में अभी भी बदहाली ही है....! कुछ महंगाई से....कुछ गरीबी से....कुछ बेरोज़गारी से....तंगहाल परिवार में रानों की अम्मा अभी भी मार ही खा रही है....! क्या ही अच्छा होता कि रौशनी से शहर को सराबोर करने में मदद करने वाले मददगारों के घर और मन, जीवन भी रौशन होते...! हर हाथ के पास काम होता....हर आंगन में खुशियां होती....!
लीजिए, हम कह ही रहे थे और ट्रांसफार्मर भड़ से उड़ गया....! अब हम भी अंधेरे में बैठ रौशनी की दुहाई दे रहे हैं....! बिजली वालों को फोन किया जाएगा....वो आते-आते आएंगे....बमुश्किल बिजली ठीक होगी और तब तक हम मौसम की उमस का मज़ा लेंगे ।
आज़ादी के 75 बरस का हासिल कुछ भी नहीं है....ऐसा नहीं कहा जा सकता...! जितनी सरकारें आईं...सबने कुछ न कुछ किया....! वैचारिक मतभेद चाहे जितना हो सबने कुछ न कुछ किया ही देश और देशवासियों को विकास की ओर ले जाने के लिए....! तब ही हम आज मोबाइल और इंटरनेट के युग में हैं....तब ही पुरानी और नई पीढ़ी में ढेरों मतभेद हैं...हवा नई है...! मंहगाई का रोना हर बार की तरह वही है....! यह तो होता ही है...दस बरस बाद पीढ़ी बदल जाती है...बहुत कुछ पीछे छूट जाता है, बहुत कुछ आगे आ जाता है....पर कुछ ऐसा है...जो कभी नहीं बदलता...अलग-अलग शक्लों में सब कहीं आज भी वैसा ही है।
हर कोई अपनी सोच, समझ और विचारधारा के अनुरूप चीज़ें ठीक करने की कोशिश करता रहा, करीं भी ! ....किसी की मंशा पर शक नहीं किया जा सकता । पर फिर क्या है कि अभी भी रानो की अम्मा मार खाती है....इंद्र को मटकी से पानी पीने के लिए मार दिया जाता है....निर्भयाएं बलात्कार का दंश सहती हैं...मर भी जाती है..., कुछ मन से, कुछ तन से भी....., कितने युवा, प्रौढ़ बेरोज़गार हैं.....भिखारियों की संख्या बढ़ती जाती है.....प्रकृति के आवरण में छेद बढ़ता ही जाता है....पड़ोसी की छत पर लगे तिरंगे को बंदर नोच फाड़ जाता है....! ये किसका स्वार्थ है....हमारा, सरकार का, या राजनीति का.....!
तो आज़ादी के इस अमृत महोत्सव को किसके लिए मनाया जा रहा है, कौन मना रहा है....? क्या वो, जिनके लिए महोत्सव और उत्सव का मतलब केवल महंगे बाज़ारों में अपनी कारों में घूमना, खाना पीना फिल्म देखना भर है...., या उनके लिए जो यह तय करते हैं कि लाल सिंह चड्ढा देखी जाएगी, कश्मीर फाइल्स देखी जाएगी या नहीं देखी जाएगी....!
किसी ने कहा, यदि हमें अंदाज़ा होता कि आज़ादी के लिए लड़ने वालों ने क्या प्रताड़नाएं, और क्या अत्याचार झेला है तो हम निश्चय ही आज़ादी के जश्न में शामिल होेते......! तो क्या माना जाए कि जो इस उत्सव में शामिल हो छुट्टियों का मज़ा ले रहे हैं, उनको इसका अंदाज़ा है कि आज़ाद भारत का दिन दिखाने के लिए हमारे पूर्वजों ने क्या सहा है? मुझे नहीं लगता कि ऐसा है । आज़ादी का पर्व हो या कोई सांस्कृतिक पर्व....कामगारों के लिए वह एक छुट्टी का दिन होता है...आगे पीछे छुट्टियां हैं तो घर वापस जाने का मौका....बाहर घूमने का मौका....या फिर होटलों और बाज़ारों की आय बढ़ाने का मौका....! 75 बरसों में ही आज़ादी के उत्सव के मायने बदल चुके हैं।
अच्छा लगता है देखकर कि सरकार ने आह्वान किया कि हर घर तिरंगा हो....सरकार और उनके नुमाइंदों ने रौशनी की चादर फैला दी चारों तरफ...! देश ने साथ भी दिया....! पर क्या युवाओं को शांति, प्रेम और न्याय का वह संदेश मिला है...जिसकी बेहद ज़रूरत है....! क्या हम पूरी तरह भयमुक्त और लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं? क्या देश की आज़ादी का अमृत महोत्सव प्रकृति की सुरक्षा संरक्षा का संदेश दे पाया है....? हमारे युवा जिनके हाथों में इसे आगे ले जाने की बागडोर है क्या मनुष्य बन पाए हैं....क्या प्रकृति का हिस्सा बन पाए हैं....? या इस उत्सव के बाद हम फिर वापस उसी उपभोक्तावाद में डूब जाने वाले हैं....? या क्या हम आज भी उपभोक्तावाद की छत्रछाया में आज़ादी का अमृत महोत्सव नहीं मना रहे हैं....यह विचार करने की बात है.....! नहीं, मुझे आज़ादी के महोत्सव में उत्सव और आनंद मनाने से कोई गुरेज नहीं है....! पर इसमें जो पीछे छूट गए हैं.....उनको साथ लाने की दरकार ज़रूर है.....! यह आज़ादी का अमृत महोत्सव तब ही पूरी तरह से जगमगाएगा....जब बहुत से छूट गए मूलभूत प्रश्नों का हल खोज लिया जाएगा....!
अनुजा