मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

समय...पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ....

तुम्हारा प्रश्न सुनने के बाद मैं पेशेंस खेलने लगती हूँ। हर बार एक हारी हुई बाजी लगा लेती हूँ। हारने में मुझे मज़ा आने लगा है। जीतने के बाद एक और चढ़ाई आ जाती है...। हाँफती हुई साँसें आराम करना चाहती हैं और सामने कोई और मंज़िल मुँह बाये खड़ी होती है।
अब हारना बेहतर लगने लगा है...। जीतने के बाद इच्छा होती है...एक बाज़ी और सही...। हारने के बाद थोड़ा आराम करने का मौका मिल जाता है।

नहीं...नहीं...,कहने को कुछ नहीं है मेरे पास.. ऐसा नहीं है...पर अब कह कर क्या करना....कहने-सुनने का समय तो बीत चुका है...अब तो जाने का समय आ गया है...बस बाय बोलना बाकी है...। बहस मुबाहिसे...परिचर्चाएं जहाँ बेमानी हो जाती हैं...वही तो जगह है यह...मौन.....असीम शान्ति....और बस एक उज्ज्वल मुसकान....उन सारे प्रश्नों पर, जिन पर ज़िन्दगी की ज़द में आई उत्साही नौजवानी अपना माथा खपा रही है....।

पता है....उम्र के एक लंबे पड़ाव के बाद समझ आता है कि जो बीत गया उसमें की गयी चपल कलाकारियाँ और उत्पात कितने बेमानी और वाहियात थे....तब हम सोचते हैं कि काश! आगे वाले ये गलतियाँ न करें...। पर ऐसा होता नहीं है....सबकी अपनी यात्रा है....और सब ऐसे ही सीखते समझते हैं....और फिर वही दोहराते हैं जो उनके पुरखे करके गए हैं.....लाखों-करोड़ों में कोई भाग्यवान इस श्रृंखला को तोड़ पाता है....बाक़ी, बस इस अफसोस के साथ अंतिम श्वास लेते हैं कि काश! इतनी शांति, समझ और सुलझापन तब आ जाता जब इन उत्पातों की रचना हो रही थी और लोग छोड़ रहे थे....हम कम हो रहे थे....मैं बढ़ रहा था....असुरक्षाएं सुरसा सा मुहँ बाये मन में खड़ी थीं और सुरक्षित होने का एहसास घबराए हिरन सा इधर-उधर रास्ता खोज रहा था....! लगता है बस सब कुछ हम अपनी मुट्ठी में क़ैद कर लेंगे....बाँध लेंगे....अबकी सब बचा लेंगे....जाने नहीं देंगे....! इसके बावजूद कि हम ख़ुद देख रहे हैं कि कितने असहाय से उपजे थे.....पाँवों पर खड़े होने की तमीज़ सीखी थी....फिर वहाँ भी रुके नहीं.... बस बढ़ते ही गए....वह जो था...कहीं बचा नहीं आज...सरक गया हथेलियों से.....फिर भी...., फिर भी.... एक बच्चों सी ज़िद है.....कि हम भी देखेंगे....हम रोकेंगे...हम बाँधेंगे..., हम बचाएंगे...और वह पज़ेसिवनेस....वह अवसाद....वह कुंठा...., वह क्रोध....वह चिल्लाहट....वह बेचैनी....यहीं से, इसी रास्ते से आती है भीतर......पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ...... और ढाई आखर प्रेम के बीच, बस केवल इतनी ही दूरी है.....!

प्रेम क्या है...क्यों हैं...इसके क्या फायदे और नुकसान हैं...,इसमे पज़ेसिवनेस क्यों है....होनी चाहिए या नहीं.....पारस्परिक संबंधों के क्या दबाव हैं और क्यों हैं..इन सारी बौद्धिक बहसों में कुछ मिलता नहीं... सिवा टाइम पास के....ये भी एक समय के बाद बेमानी हो जाती हैं....। मनुष्य अपनी उम्र के हर पड़ाव के साथ सीखता ही रहता है और निरंतर बदलता रहता है....फिर वो चाहे दुनियावी भौतिक हो या आध्यात्मिक..पारलौकिक....सबकी यात्राओं के विकास के चरण हैं....बस इतना ही समझ में आता है....बाक़ी सब बीच की कथा है...कहन है....।
जाहिर है कि बहुत कुछ निजी अनुभवों से आता है बाक़ी बहुत कुछ आस-पास की घटनाएं भी बता देती हैं।

मैंने पेशेंस बंद कर दिया। उसमें मन नहीं लगा...काम कर रही थी...उसे भी बंद कर दिया...उसमें भी मन नहीं लगा....!

वैसे इस लाॅक डाउन में जब सभी ओर हाहाकार मचा है...सब क़ैद से परेशान हैं...मैं क़ैद में मुक्त हूँ...मुझे कुछ भी बँधा सा नहीं महसूस होता....। मैं अपनी कल्पना या अपनी चारदीवारी में बेहद मुक्त हूँ....! थोड़ा सा ख्ुाला आसमान....दिप् दिप् करता दिन...धंुधलाती सी शाम और श्यामल चन्द्रमय रात...। सब कुछ बेहद सुन्दर....। नहीं, मैं टाइम पास के लिए कोई व्यंजन नहीं बनाती... कोई खेल भी नहीं खेलती....फोन पर अधिक बात भी नहीं करती...आधा घंटा अखबार को देती हूँ....टी.वी. भी नहीं रखती...कोई महफिल...कोई लाइव भी नहीं होती.... हाँ, कभी कभी कोई अच्छी फिल्म देख लेती हूँ।

पूरा संसार जब खबरची है, डाॅक्टर है, सलाहकार है, जज है....तो ऐसे में क्या कहना...जितने आसमान तक मैं पहुँचती हूँ, कई बार वह भी बड़ी ऊब से भर देता है....इसलिए कुछ नहीं करती....बस अपने साथ हूँ...। और अपना यह साथ बड़ी मुश्किल से मिला है....यहाँ आनन्द है और आशीर्वाद भी....मुक्ति भी और निर्भयता भी...। जाने और पाने को कुछ है नहीं....जो खोएगा वह मेरा नहीं....जो पाएगा, वह भी जाएगा ही...इसलिए कहीं कोई भय नहीं....और इस मुक्ति में कोई जकड़न नहीं...जहाँ इतना अभय हो... इतनी निश्चिन्तता और इतनी स्वीकृति वहाँ पजे़सिवनेस की बात तो कुछ हो ही नहीं सकती....!


अनुजा
13.04.2020


फोटोः अनुजा

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