बेचैन आत्मा सी भागती कहां जा रही हो....
ये तीव्र आकुलता
और ये पथरीला रास्ता....
तुम्हारे रेशमी दुपट्टे में लगे हैंं घाव कितने....
पांव आहत हृदय भीगा भग्न....
किस ठौर ठहरेगी, रूकेगी....
पांचाली
तुम्हारी बेचैन आत्मा....
कब सूखेंगें...
वैदेही
तुम्हारे पथराये नयनों के अश्रु....
कहां पूर्ण होगी
राधिेके
तुम्हारी प्रतीक्षा....
कब तुम्हारे कक्ष में लौटेंगे
यशोधरा.....
तुम्हारे बुद्ध
अपने गौतम के साथ.....
या कि
सदियों तक उड़़ता रहेगा तुम्हारा ये रेशमी आंचल
अयोध्या की अंगनाई में....
या लखन की निद्रा
लेकर देती ही रहोगी
उर्मिला
तुुम उन्हें जागरण का उपहार.....
ओ नदी.....
अनुजा
13.10.2016
फोटो : साभार: खजान सिंह जी....
पढ़ते-पढ़ते यादों की नदी बह चली
जवाब देंहटाएंयाद आये लक्ष्मण सिद्धि और तपोवन
ककरहा के जंगल, बौराई सी अमिया
मेरे नाम का अर्थ पूछते लोग
छोटी नदी, गंदी नदी कहते मुसाफिर
नदी तो नदी है घायल ही सही
बहती है साफ रहती है
गढ़ती है खुदरे पत्थरों को
कोई कंकर यूं ही नदी से निकल बन जाता शंकर
अपवित्रा से पवित्रता तक का ये सफर
अविरल निरंतर
नदी को जाना पहचाना
तुम सचमुच अनुजा हो , नदी की अनुजा
धन्यवाद सरिता, बहुत सुन्दर है तुम्हारी कविता.....
जवाब देंहटाएं