गर्म माथे पर रखा हुआ हाथ वो
सर्द कब हो गया कुछ पता न चला...
सब भिगोते रहे आंसुओं से ज़मीं
वो चला कब गया कुछ पता न चला...
एक मुद्दत रहा सायबां की तरह
कब हवा हो गया कुछ पता न चला...
उसकी नाराज़गी को न समझा कोई
क्यूं ख़फ़ा हो गया कुछ पता न चला....
उम्र भर तो कोई भी उसे न मिला
सब मिले जब उसे कुछ पता न चला...
अब ये पूछो अगर है कहां आजकल
क्या बताएं अभी कुछ पता न चला...
लौट आते हैं अक्सर मुसाफि़र सभी
वो कहां रह गया कुछ पता न चला...
उसके चेहरे का कुछ भी नहीं है कहीं
गुम किधर सब हुआ कुछ पता न चला...
अब हिदायत नहीं दे रहा है कोई
सब धुआं क्यों हुआ कुछ पता न चला....
क्यूं थी फिक्रों से महरूम ये जि़न्दगी
वो चला जब गया ये पता तब चला....
- अनुजा
20.02.1997
बहुत ख़ूबसूरत और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया कैलाश जी...।
जवाब देंहटाएं