शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

पिता....


गर्म माथे पर रखा हुआ हाथ वो
सर्द कब हो गया कुछ पता न चला...

सब भिगोते रहे आंसुओं से ज़मीं
वो चला कब गया कुछ पता न चला...

एक मुद्दत रहा सायबां की तरह
कब हवा हो गया कुछ पता न चला...

उसकी नाराज़गी को न समझा कोई
क्‍यूं ख़फ़ा हो गया कुछ पता न चला....

उम्र भर तो कोई भी उसे न मिला
सब मिले जब उसे कुछ पता न चला...

अब ये पूछो अगर है कहां आजकल
क्‍या बताएं अभी कुछ पता न चला...

लौट आते हैं अक्‍सर मुसाफि़र सभी
वो कहां रह गया कुछ पता न चला...

उसके चेहरे का कुछ भी नहीं है कहीं
गुम किधर सब हुआ कुछ पता न चला...

अब हिदायत नहीं दे रहा है कोई 
सब धुआं क्‍यों हुआ कुछ पता न चला....

क्‍यूं थी फिक्रों से महरूम ये जि़न्‍दगी
वो चला जब गया ये पता तब चला....

- अनुजा
20.02.1997

सोमवार, 10 मार्च 2014

औरत...

अब कहो...
वो
चरित्रहीन थी...
चरित्र
को जोड़ दो देह से...
बहुत आसान है
औरत को
जोड़ देना चरित्र से...
और
चरित्र को देह से....

अनुजा
28.08.1998
भोर : 5: 00 

औरत...

सारी दुनिया को
अपनी गोद में छिपाए...
रत्‍नगर्भा के हिस्‍से में
नहीं है
कोई अपना आलोक....

अनुजा
03.05.1998

औरत..

सदियों का सफ़र तय करके
धरती अब भी है
अपने उसी बिन्‍दु पर....
जहां
ताप शाप रस के लिए
ताकना पड़ता है
उसे
आसमान का मुहं....

अनुजा
03.05.1998





आधी दुनिया...

जब पूरी दुनिया को बांटे जा रहे थे
चांद ...
सूरज...
सितारे...
पहाड़...
नदियां...
समुद्र...
दरख्‍़त...
आकाश...
रंग...
झरने...
तब भी ढूंढ रही थी आधी दुनिया
अपने अंधेरे उजाले....

अनुजा
03.05.1998