मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

चल हंसा......

जब उनके पास नहीं था कोई रूप रंग....
कोई आकार....
कोई चेहरा....
कोई पहचान....
उन्‍होंने चुना एक माली को.....
एक कुम्‍हार को.....
एक दर्जी़ को...
एक मिस्‍त्री को.....
एक कामगार को....
एक बुद्धिजीवी को.....
एक मां को....
एक औरत को....
एक टीचर को.....
एक निर्माता को....
रोका एक राही को.....
स्‍वागत किया सबका....

आज...
जब तैयार हो गया है उनका घर....
हो चुका है रंग रोगन....
आ चुका है दुनिया की नज़र में....
वो नहीं चाहते
कि वहां रूके एक पल भी वो....
उन्‍होंने तय कर दी हैं....
उनकी दिशाएं...
उनकी सीमाएं....
उनकी जि़म्‍मेदारियां....
उनकी भूमिकाएं....
उनका लक्ष्‍य.....

खींच दी है
एक लक्ष्‍मणरेखा....
ख़त्‍म करने को तैयार हैं उनका अस्तित्‍व....
ताबूत में बस आखिरी कील जड़नी बाक़ी है....

न जाने वो पल कौन सा होगा.....
किस झोंके के साथ आएगा.....
कहां ले जाएगा.....

कुछ भी नहीं पता....
बस दूर तक फैले सन्‍नाटे में....
उड़ती हुई रेत में....
फैली...बिखरी..धंसी....उभरी...हुई चट्टानों में...

सूखते पत्‍तों के कांपते हुए होठों को
पैरों से चूमते हुए.....
रौंदते हुए रेत के ढेर को.....

जाना है कहीं दूर....
किसी दिशा में....
तैयार है.... सब कुछ....

चल हंसा....
उस देस, जहां.....
उड़ते हों बादल....

खिलती हो धूप....
बहते हों झर झर झरने....

नाचती हो जीवन की उमंग....
बचपन का भोलापन.....
चल हंसा....!

-अनुजा
10.04.12

बुधवार, 11 जनवरी 2012


जब
खुद को भगतसिंह
का अनुयायी मानने वाले

सोने लगें
पलकों की छांव में....
छुपने लगें
ज़ुल्फों के घेरे में....
ढूंढने लगें
मोहब्बत की गोद.....

तब
सही ही है भगत
तुम्हें सिर्फ एक
याद
करार देना

और
तुम्हें भूल जाना.....
याद करना
23 मार्च के .......!

अनुजा
Friday, April 1, 2011

संबंध...

संबंधों को
तोड् देते हैं
कितनी निर्ममता से.......
या
बनने ही नहीं देते......
या
बनते हुए संबंध को ठहरा देते हैं
कुछ संकोच..
कोई हिचक..
कुछ झूठ..
कुछ अभिमान..
कुछ अहं..
कुछ आक्रोश..
कुछ पूर्वाग्रह..
कुछ दुख..
कुछ भय..
कुछ निराशाएं..
कुछ अविश्‍वास..
कुछ आहत मन..
और
बस एक पहल का इंतजार
ही होती है
इन संबंधों की परिभाषा
और नियति........!

अनुजा

भारत माता की जय

कि

अब भी

इस रात जब क्रिकेट वर्ल्‍ड कप की जीत में दीवाली मनाई जा रही है

न जाने कितने कोनों में कितने बच्‍चे भूखे ही सो रहे हैं

कितनी औरतें अपनी अस्‍मत का सौदा कर रही हैं

न जाने कितने बूढ़े पानी के लिए खुदकुशी कर रहे है

कितनी बेटियों का बचपन ब्‍याहा जा रहा है

कितने मजदूर इस चिंता में जाग रहे हैं

कि

कल काम मिलेगा या नहीं

हम वर्ल्‍ड कप की ,खुशियों की इन्‍तहा देख रहे हैं

सड़कें सन्‍नाटी रही हैं

दफ्तरों में काम काज ठप है

दुकानें खामोश हैं

पटाखे चिल्‍ला रहे हैं

क्‍लाइमेट चेंज पर हंस रहे हैं

हम वर्ल्‍ड कप को इंज्‍वॉय कर रहे हैं

आप

मुझे सैडिस्‍ट कह सकते हैं

......!

अनुजा

सबसे ज्यादा पाई जाती हैं औरतें कविता में...

पर वो औरतों की कविता नहीं होतीं
उन कविताओं का विषय औरतें नहीं
होता है प्रेम .....
प्रेम भी औरतों का नहीं होता
होता है औरतों से प्रेम...,
सभी औरतों से प्रेम भी नहीं होता.
जब तक न हो उनमे एक ख़ास किस्म का औरतपन...,
हाँ ज़रूरी है इस औरतपन को देखने के लिए मर्दाना नज़र का होना..
इसीलिए तो मर्द लिखते हैं औरतों की कवितायेँ..
अनुपस्थिति हैं औरतों की कविताओं में औरतें..

तो औरतों की कवितायेँ कहाँ हैं..
क्यूँ नहीं इनकार कर देतीं वो मर्दों की कविता में आने से ,,
ओह् ! तो.. कविताओं में क़ैद हैं औरतें..
बाहर तो उनकी महज़ छायाएं हैं ...
और छायाओं से लिपटे पड़े हैं..
टूटे हुए शीशे ...गोरेपन की क्रीम..
माहवारी के बाद फेंके गए संक्रमित कपड़ों के पैड ..
गर्भ निरोधक गोलियां..सुडौल वक्ष के विज्ञापन..
और अनचाहे बाल हटाने के जादुई ब्लेड........

खूबसूरत कविताओं की दुनिया में औरतें कहाँ हैं..
या इतना ही बता दो..
जो औरतें खूबसूरत नहीं..वो कहाँ हैं..
औरतों की खूबसूरत दुनिया कहाँ है
औरतों की कवितायेँ कहाँ हैं..
सवाल ये भी है कि...''औरतें कहाँ हैं.''

तुम्हारी कविताओं में इतनी खुश्बू है..
कि बदबू आती है दोस्त...
कविता में बदबू होती तो कविता से बदबू नहीं आती..
कविता में बदबू को..
कविता में साझे प्रेम को...
कविता में जिंदगी को..
कविता में औरतों को आने दो...
औरतों की कविता को आने दो.......

दीपक कबीर