मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

ग़ज़ल

उसे भी याद आयी जो जानता था हमें
तो अब तुम्हारी नवाजि़श का इंतज़ार ही क्या।

लहूलुहान अगर जिस् हुआ कांटों से
तो फिर हमारे चमन में कोई बहार ही क्या।

ख़ुदी भी अब तो हुई बेअसर ख़ुदाओं पर
बगैर वक़्त के मिलता है इंतज़ार भी क्या।

यूं कहो कि खुदा कुछ नहीं है दुनिया में
बिना ख़ुदा के नहीं कुछ मिला करार ही क्या।

अगर संवरना है तो टूटना भी वाजि़ब है
बिना तराशे मिला गुल को है निखार भी क्या।

अनुजा
03.12.1996

रविवार, 18 दिसंबर 2011

गहरी काली रातों में...ग़ज़ल

ये भी इन्‍सान की नवाजि़श है
बिन पिए ही वो आज बेख़ुद है।

सांप की तरह लग रहा है अब
ऐसी कुछ आदमी की फि़तरत है।

कुछ सही या ग़लत समझ न अरे
जब तक उसकी नहीं इनायत है।

हमसे ही छीनते हो तुम मंजि़ल
ऐसी भी हमसे क्‍या अदावत है।

कोई अ‍ाखि़र तो निगहबान बने
कब से ख़ाली पड़ी इमारत है।

दिन गए वो कभी मिला ही नहीं
कैसे जानें उसे मुहब्‍बत है ।

जब उठा है तो गिर सकेगा नहीं
उसके गिरने में ही क़यामत है।

इस खिजां से कहो ज़रा ठहरे
कुछ बहारों की भी हक़ीक़त है।

बाज की तरह छीनता है सब
कैसी उस आदमी की नीयत है।

तुम भी ले लो जो तुमको ठीक लगे
सबको थी, तुमको भी इजाज़त है।

या सहारा न दो, या साथ चलो
अब नहीं टूटने की हिम्‍मत है।

अनुजा
30.11.1996

गहरी काली रातों में...ग़ज़ल

इस कदर थक के चूर हैं आंखें
कोई सीढ़ी नज़र नहीं आती।

वक् की राह देखते हैं यूं
कोई सूरत भी अब नहीं भाती

याद आती है अब अकेले ही
साथ उसको कभी नहीं लाती।

रौशनी कम है इन सितारों की
तीरगी को मिटा नहीं पाती

कब तक उम्मीद का जलाएं दिया
सुबह अब भी नज़र नहीं आती।

जब से रस्ते में मिल गया है सच
बेखुदी अब कभी नहीं छाती

अनुजा
30.11.1996

गहरी काली रातों में...ग़ज़ल

वक्‍़त का ये कुसूर है यारों
मुझको भी अब सुरूर है यारों ।

मैं ही उस पर फिदा नहीं हूं बस
वो भी कुछ कुछ ज़रूर है यारों।

यूं ख़ताओं को माफ़ उसने किया
तख्‍़त पर बेक़ुसूर है यारों ।

उसका बिस्‍तर बिछाओ आंख लगे
वो बहुत थक के चूर है यारों ।

मैं समझता था कट गया है सफ़र
घर मगर अब भी दूर है यारों ।

जबकि शीशों पे बाल आए हैं
तुमको किस पर ग़ुरूर है यारों।

जानता है समझ रहा है सब
वो नशे में ज़रूर है यारों

अनुजा
30.11.1996

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

तुम्‍हारे जाने के बाद.....

उस छत पर
जिसके एक कमरे में
रहा करते थे तुम...
अब धूप
सूनेपन के साथ
करती है चहलकदमी ...
एकदम गुमसुम और खामोश
रहती है वो छत....
सर्दी की गुनगुनी दोपहरों....
गर्मी की सुरमई धुंधलाती शामों में
बारिश की गुनगुनाती
छप्‍पकछैय्या के बीच भी
कोई आहट... कोई उमंग....
कोई पुकार....
नहीं आती उसमें से....।

न खामोश सूखते कपड़ों में
कोई रंग छलकता है तुम्‍हारा....
न चटाई पर सजी महफिलों में
दिखाई पड़ती है कोई थाली तुम्‍हारी
मुंडेर पर रखा लैपटॉप....
न नेटवर्क से जद्दोजहद करता डाटाकार्ड..
न 'का बा ?' के साथ
मोबाइल कान पर लगाए
मां की रूआंसी आवाज़ पर.....
उदास होते मन की
धुंधलाती लहरियां
अब खड़काती हैं मेरी सांकल....।

तुम्‍हारे जाने के बाद
धुंधलाई सुरमई शाम में
अब बंद रहता है मेरे कमरे का द्वार
किसी भी आहट के लिए.....।

अनुजा
17.12.11