बुधवार, 10 अगस्त 2011

बारिश, सावन, मेंहदी और.....और.....;

बारिश, सावन, मेंहदी, गुडि़या......, सब एक साथ याद आता है। याद आते हैं वो दिन, वो काले बादलों से भरा आसमान और उस पर उड़ती हुई बगुलों की पांत ' वी' के शेप में...। घनघोर बारिश के बाद भीगी हुई छत पर भीगे बादलों और भीगी हवा से तन-मन को सहलाते हुए काले बैकग्राउन्‍ड पर सफेद बगुलों की उस पांत को देखना.....और तब तक देखते रहना......जब तक वो दिखना बंद न हो जाएं.............., आज भी उसी रोमांच और सिहरन से भर देता है जो उस वक्‍त ध्‍यानमग्‍न सा कर देता था........।
सावन गए कई बरसों में कई बार आया और गया है। कभी सूखा कभी भीगा.........। कभी इस शहर, कभी उस शहर.......बस अपनी छत की उस निश्चिन्‍तता से दूर.........., बेफिक्री से परे........., एक कोलाहल और अशान्ति के बीच सावन हर बरस आता और जाता रहा है।
पिछले तीन बरसों से उसे झांसी में पकड़ने और संभालने की कोशिश में रही हूं........।
झांसी में जब पहली बार आयी थी-2008 में तो सितम्‍बर का महीना था वह, सावन तब तक था या भादों आ चुका था, आज याद नहीं.........पर बारिश का भीगापन तब भी था हवाओं में और इसी भीगेपन ने मुझे शायद यहां बांध लिया था। झांसी की आकर्षक, रोमांचक ऐतिहासि‍कता के अतिरिक्‍त यहां के पत्‍थर, यहां की हरियाली और बारिश ने बांध लिया था मुझे। बेतवा का तट और फूली सरसों के खेतों ने पैरों में बेडि़यां डाल दी थीं........, अभी भी शायद कहीं मैं उस मोह से मुक्‍त नहीं हूं।सच यह है कि इस सबसे घिरते हुए भी मुझे गुडि़यों के इस त्‍यौहार की इतनी शिद्दत से याद नहीं आयी जितनी इस बरस आयी....।
ताज़ी हरी मेंहदी से भरे हमारे हाथ पांवों को बांधकर हमें चारपाई पर बिठा देती थीं हमारी बुआ......। नई फ्राक, नया हेयर बैंड या नए रिबन से हमारे बालों को सजा देती थीं वो। कमरे से रसोई तक जाने के लिए आंगन से गुज़रना पड़ता था पर झमाझम बरसे पानी में हमारे लिए थाली में मम्‍मी के हाथ का स्‍वाद लेकर उसकी गर्माहट को संभाले पीठ पर बूंदों की थाप संभाले वो कमरे में हमारे लिए खाना लातीं और हम तीनों बहनें आराम से उनके हाथों से खाने का मज़ा लेते।ये वो दिन होता था जब न तो पढ़ाने के लिए मास्‍टर आते थे, न डांट-मार या सजा का भय होता था।
दर्द से कराहते घुटनों पर पुराने कपड़ों के टुकड़ों को लपेटकर दादी हमारे लिए सुन्‍दर गुडि़यां बनाती थीं। उन गुडि़यों को डलिया में काले, उबाले और कल्‍हारे चनों के साथ हम चौराहे पर डालने जाते और मोहल्‍ले के भाई, चाचा उन गुडि़यों को पीटते थे।
गुडि़यों को पीटने का यह राज़ मुझे आज तक समझ में नहीं आया। हमारे घरों में इसे गुडियों का त्‍यौहार कहते थे जबकि बाकी पूरी दुनिया में इसे नागपंचमी के नाम से मनाया जाता है।
बस में वापस लौटते हुए हमारे उत्‍तर प्रदेश के रहने वाले मेरे एक सहयोगी मित्र मधुबन ने इस बरस मुझे याद दिलाया - 'अरे यार, आज हम लोगों के यहां गुडि़यों का त्‍यौहार है' तब मुझे याद आया। बस से उनके स्‍टॉप पर उतरते हुए मैंने एक धौल जमाई उन्‍हें- 'लै, हमने तो आज गुड्डे को पीट दिया। मन गई हमारी तो गुडियां।' और वे मेरी ठिठोली पर मुस्‍कराते और झेंपते हुए चले गए।
सावन के इस सुरीले और भीगे से महीने की उन रौनकों की अब बस यादें ही रह गयी हैं.......लोग भी चले गए.....गुडि़यां भी चली गयीं और वक्‍त भी....।
सावन अब एक नए रंग और सौन्दर्य में है और अनोखी त़ृप्ति के साथ। बुन्देलखण् के इस हिस्से में मैं इस बार इतनी बरखा देख रही हूं........मन मचलकर गा उठता है.....बरखा रानी जरा जम के बरसो.......................।

  • अनुजा

सोमवार, 8 अगस्त 2011

वापस लौटने की एक कोशिश.............

आज तीन सालों की मेहनत से बनाए गए, संवारे और संभाले गए साथियों में से एक ने रिज़ाइन कर दिया........।

ये सवाल इसका नहीं कि कोई गया, क्‍यों गया, क्‍या होगा शो का या कार्यक्रम का या रेडियो का........... ।

ये सवाल इसका है कि हमारी आस्‍थाएं कितनी और किसके प्रति हैं.............।
गए कुछ सालों में मैं गैर सरकारी संस्‍थाओं की दुनिया से जुड़ी रही हूं.......शायद आगे भी जुड़े रहना होगा........।
आज के दौर में भूखे पेट क्रान्ति जो नहीं होती.......... ।
कई बार मन में सवाल उठा कि आखिर इन संस्‍थाओं के लिए पैसा जुटाने की जद्दोजहद में लगे लोगों ने इन्‍हें बनाया क्‍यों........
कुछ से सवाल भी किया........ जवाब में एक ही सच सामने आया.......किसी दूसरे के दुख की करूणा से जन्‍मा नहीं था ये समाज सेवा का भाव..........
कुछ तो विशुद्ध काम के लिए खुले थे....... कुछ अपनी तकलीफ की प्रतिक्रिया में....... वही व्‍यष्टि से समष्टि की कहानी.........
मगर आज वे एक सेवा क्षेत्र मात्र बनकर रह गए हैं............

आजकल जिस संस्‍था में हूं उसके कांसेप्‍ट से काफी प्रभावित हूं मगर व्‍यवस्‍था से निराश और आहत हूं........
अब यह किसी आम बिजनेस की तरह है जिसके फैल जाने के बाद मालिक अपने ड्राइवर को भी नहीं पहचानता।
अब यह सफर कुछ मुश्किल लग रहा है............


प्रेम से, दुख से, विषाद से दूर आकर इस रेगिस्‍तान में जैसे खो सी गयी हूं.........।
गए बरसों में अपनी सारी प्रिय चीजों और लोगों से मुहं मोड़ लिया था........
रेगिस्‍तान में जीने का मन था........शुतुरमुर्ग की तरह रे‍त में मुहं छुपाकर सोचा.....कुछ है ही नहीं........।
चिन्‍तकों की दुनिया में बाहर बाहर घूमी और अर्थ की रूखी दुनिया में अपनी शांति ढूंढी.........
मगर वह कहीं नहीं मिली............।
जो अपने ही भीतर है, उसे न जाने कहां कहां खोजते हुए मैं भागती फिरती रही अपने आप से..........अपने साये से..........।
पर कुछ भी नहीं बदला.........।
सब कुछ वैसा ही है।
.......... और मैं कोशिश कर रही हूं कि मैं अपनी दुनिया में वापस लौटूं........।

मेरी दुनिया........।

मुझे खुद पर आश्‍चर्य होता है........।
कहां है मेरी दुनिया......, क्‍या किया इतना जीवन........., कुछ भी समझ नहीं आता........., किसी सवाल का जवाब नहीं मिलता.........., और सब तरफ से अनुत्‍तरित सी छायाएं डोलती हुई मुझ तक बढ़ती आती हैं...........।

मैंने ऐसे सफर के बारे में तो कल्‍पना नहीं की थी......... । फिर ये क्‍या और क्‍यों हो रहा है........
क्‍या मैं सचमुच लौट सकूंगी उस जगह......... जिसे मैं अपनी दुनिया कह सकूं..........

अग्निगर्भा को कभी दुनिया भर की औरतों की बात करने वाले मंच के रूप में रचा था...........
आज ये सिर्फ मेरा मंच है........... मेरी डायरी.......... मेरा पन्‍ना.............।
यहां मैं अपनी बात करूंगी और अपने नज़रिये से............।
जीवन की, काम की दिशा की, दशा की, समय की, वसंत की पतझर की..........।
हालांकि मुझे यहां से जाना ही होगा...........
मगर मैं यहां एक गर्मी और बिताना चाहती हूं..........
पलाश और अमलतास की रौनक के उन कुछ पलों को अपने में भर लेना चाहती हूं.......... जिनके बीच में रहते हुए भी मैं कभी उनके बीच ठहर नहीं पाई.........।
पर वो रंग और उन रंगों का अक्‍स आज भी मेरे भीतर वैसे ही जिंदा है...........

वो कहानी फिर कभी.........
आज इतना ही........।
अनुजा

रविवार, 7 अगस्त 2011

दूसरी पाती.........

आज फिर लौटने की कोशिश है वापस....
2007 में यह ब्‍लाग शुरू किया था इस सपने के साथ कि यह एक मंच बनेगा जहां स्त्रियों पर बात हो सकेगी।स्त्रियों का मंच होगा, स्त्रियों की बातों का, उनकी संवेदनाओं का, सपनों और आसमानी पंखों का मंच होगा।
यह वह जगह होगी जहां वो बात कर सकेंगी अपनी, दुनिया की, सौन्‍दर्य की, प्रेम की, दुख की, सुख की, सपनों की, आहत मन की, और भी न जाने क्‍या क्‍या.......। वो सब जिसे कहने के लिए कोई और जगह नहीं है वो कहने के लिए एक जगह होगी।
यह केवल स्त्रियों की दुनिया नहीं है, यहां वो सब आ सकते हैं जो अपनी बात करना चाहते हैं, संवेदनाओं की बात करना चाहते हैं, प्रेम की बात करना चाहते हैं, बंधन और मुक्ति की, उड़ान और थकन की, क्रान्ति और शान्ति की बात करना चाहते हैं।

पर सब कुछ बदल गया। गए तीन बरसों में बंद हो गया यह रास्‍ता और बदल गयी ये दुनिया........।
ब्‍लाग की दुनिया बदल गयी और शायद मेरी भी......।
मेरा वक्‍त चुरा लिया एक नई उम्‍मीद ने..........।

और ब्‍लाग की दुनिया में सब अकेले होकर सबके बीच में आए, सबसे सब बांटा और सबके साथी बन गए......।
सबके अपने अपने मंच बन गए.........।

प्रिंट की दुनिया में जगह कम हुई,बाज़ार ने घेर ली रचनाकारों, क्रान्तिकारों, लेखकों, पत्रकारों की जगह और वे सब सिमट आए इस दुनिया में..............।

अच्‍छा है..........।
मुझसे भी छूट गया यह। मुझे जीने के लिए एक जिंदा ज़मीन मिल गयी थी.................।
मैं आ गयी ज़मीन पर क्रान्ति की एक नई उम्‍मीद का छोर पकड़कर.......।
दुनिया थी सामुदायिक रेडियो की..........।
बात थी गांव देहात की............।
उस आम आदमी की....... जो बड़े बड़े अखबारों और चैनलों से गायब होता जा रहा है। जिसके दर्द, जिसकी दुनिया और जिसके राग के लिए कोई जगह नहीं है इस चमकती धमकती दुनिया में..............।

मैं खु श थी इस नई शुरूआत से..............।
कहां मैं ब्‍लाग की बात सोच रही थी, कहां उनके बीच में जाने और सीधे उनसे दर्द, दुख, अभाव, राग, द्वेष, सुख और कला सबसे सीधे बात हो सकेगी।

कुछ हद तक यह सपना सच भी हुआ.........।
जुनून को एक शक्‍ल मिली।
वो, जो साथ नहीं आते थे............साथ आने लगे............। सपनों को पंख लगने लगे...........सुकून की एक सांस मैंने भी भरी................ जीवन का एक बहुत पुराना सपना सच हुआ............। ऐसे ही तो काम करना चाहा था...........।
कभी मन भटकता भी था कि सारा कुछ तो वैसा नहीं हो रहा जैसा सोचा था..................।

भीतर से मां सा कोई हाथ मन को थपकी देता था...............-'कोई बात नहीं, दुनिया एक दिन में नहीं बनी तो तुम कैसे सोचती हो कि एक दिन में सब बदल जाएगा। सब कुछ धीरे-धीरे होगा...........।'
'एकला चलो रे' का जो आह्वान मुझे हमेशा चलने को प्रेरित करता था, उसी ने हाथ पकड़कर मुझे फिर संबंल दिया..........आगे चलने का..........। विपरीत परिस्‍थतियों में.............गहन निराशा से भरे लोगों को आशा के उजास में ले आने का संघर्ष करते और नई आंखों में सपनों के दीपक जलाने की कोशिश के साथ अब तक चलती आरही हूं............।
मगर जैसे एक व्‍यक्ति की गद्दारी पूरे आंदोलन को, सारी क्रान्ति को असफल कर देती है, सारे लड़ाकुओं को फांसी की राह पर ले आती है.............कुछ वैसा ही हो रहा है यहां भी आज..............।

बावजूद इसके कि इस सारे सपने को जीने और इसके साथ आगे बढ़ने के सुख का एहसास ही अनोखा है............कई बार लगता है कि गलत प्रयास, गलत जगह किया गया, गलत लोगों के साथ किया गया, गलत उद्देश्‍य से किया गया।
सच यह है कि क्रान्ति का सपना सिर्फ मेरा था.........। उन लोगों का नहीं जिन्‍होंने इसे शुरू किया........... जो इसमें साथ आए.................। उनके उद्देश्‍य अलग थे और सपने भी.................।

लिहाज़ा मैं चाह कर भी इसे उस तरह से आगे नहीं ले जा सकती, जैसे इसको जाना चाहिए और जैसे यह एक अपना असर छोड़ सकती है।
क्रान्ति भूखे आदमी को तो अपने साथ ला सकती है मगर हारे हुए आदमी की निराशा के साथ आगे कभी नहीं बढ़ सकती है...........यही क्रान्ति का सच भी है और शायद दुर्भाग्‍य भी.............।

शायद इसीलिए मेरा क्रान्ति का यह सपना चोटिल हो रहा है।
शायद नौकरी और क्रान्ति कभी एक साथ नहीं हो सकते।
यह पहल जो दूसरे की थी...........इसके साथ मैं अपना सपना कैसे जी सकती हूं.............।
यह शायद क्रान्ति का सही रास्‍ता नहीं था...........।

क्रान्ति कभी दूसरे के कंधों पर बैठकर नहीं की जाती..........।
क्रान्ति की तो अपनी धुन होती, अपनी राह और अपनी दुनिया............. ।
उसके अपने तरीके होते हैं........... और अपने नियम..........।
उसमें लोग स्‍वेच्‍छा से जुड़ते हैं............... और जानते हैं कि इस रास्‍ते पर मृत्‍यु से भी कहीं मुलाकात हो सकती है...........।
मगर यहां तो कुछ भी नहीं है..............।
यहां तो बस अपेक्षाएं हैं............... और वो भी सिर्फ अपने लिए.............।
यहां की हवा अब जहरीली और खुदगर्ज होने लगी है...........। यहां सब तरफ षडयंत्रों का भय भर गया है..........।
लगता है सब कुछ डूब रहा है और बचाने के लिए पतवार लेने का अधिकार भी हमारा नहीं...........।
यह क्रान्ति हमारी नहीं................ क्‍योंकि इसके नियम दूसरे बना रहे हैं और निर्णय भी दूसरों के हाथ में हैं.............।

यह हमारी दुनिया नहीं.............।
कोशिश है कि इस षडयंत्रकारी दुनिया से मैं वापस लौट सकूं...............।

शायद किसी दूसरे मोड़ पर वह क्रान्ति मेरा बाट जोहती मिल जाए...........।
या शायद यह दौर ही न हो क्रान्ति का..............।
शायद मैं इस दौर से कुछ ज्‍यादा ही उम्‍मीद लगा बैठी हूं........... ।
शायद मैं कहीं गलत हूं..........गलत अपेक्षाएं और गलत कोशिश कर रही हूं............ ।
क्‍योंकि आज मुझे फिर तलाश है एक नौकरी की............... ।
एक ऐसी नौकरी............जिसमें आजीविका तो हो मगर क्रान्ति का कोई सपना न हो............।
और मैं अपने पैरों को ज़मीन पर रखा हुआ महसूस करूं............. और मन को सुखी.............।
यहां कोई उम्‍मीद न हो...............।

सच तो यह है कि रचनात्‍मकता की भी शायद एक सीमा होती है............।
क्‍योंकि घूम फिर कर सब फिर वहीं आते हैं..............बल्कि आ रहे हैं जहां से शुरूआत हुई थी.............दूसरों की नकल कर रहे हैं नई जगहों पर और उन्‍हें नया प्रयोग बता कर पेश कर रहे हैं और अपनी रचनात्‍मकता पर गर्व कर रहे हैं...........अपनी पीठ ठोंक रहे हैं.........।
इसमें मेरी क्रान्ति कहां है..............
अनुजा

गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

चाक चौबन्‍द चौबारा.......

तस्‍लीमा नसरीन का मुद्दा अभी ठंडा नहीं पड़ा है। हां उसकी आंच कुछ कम हो गयी है। शायद तस्‍लीमा के आत्‍मसमर्पण या यों कहें समझौते की वजह से। मगर नंदीग्राम की आग अभी भी झुलसा रही है। यहां दो सवाल हैं जो आपके बीच चर्चा के लिए छोड़े जा रहे हैं, आपकी बेलाग टिप्‍पणी का इंतज़ार है.....

  • तस्‍लीमा बनाम नन्‍दीग्राम। ये राजनीति है, धर्म है या अभिव्‍यक्ति की आज़ादी पर हमला अथवा तस्‍लीमा के बहाने नंदीग्राम पर से ध्‍यान हटाने की कोशिश ।
  • क्‍या द्विखंडिता से विवादास्‍पद हिस्‍से निकाल देने का तस्‍लीमा का निर्णय सही है।

रविवार, 4 नवंबर 2007

शोषितों की इतिहास रचना का म‍हत् क्षण

यह समीक्षा अब से तीन बरस पहले लिखी गयी थी, जब 'संगतिन यात्रा' नई नई प्रकाशित हुई थी। इसे लिखे जाने का उद्देश्‍य तो था कि इसे इसके लेखिका समूह को भेजा जाए और उस निमित्‍त इसे दिया भी गया था परन्‍तु न जाने क्‍यों और कैसे यह उन तक नहीं पहुंची.......। इसके उत्‍तर का मौन ही दरअसल इसका जवाब है.....क्‍योंकि ये मौन भी वहीं से आया है जिनके खिलाफ़ एक मुहिम के तौर पर सामने आयी है 'संगतिन यात्रा ' ।
'संगतिन यात्रा ' के आने के बाद क्‍या हुआ ये तो अगर ऋचा सिंह खुद बताएं तो बेहतर होगा। हमें उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा......; देखने, पढने के बाद हमें कैसा लगा अभी यहां बस इतना ही......।


'संगतिन यात्रा' में एक क़दम साथ साथ........
गैर सरकारी संगठनों के साथ काम करने की शुरूआत एक्‍सीडेंटल ही थी। न जाने क्‍या ढूंढते-भटकते हुए कभी अचानक इस दुनिया से रू -ब-रू हुई थी। तब तक संगठनों, समाज सेवा और प्रतिरोध विरोध को व्‍यवसाय समझना नहीं सीख सकी थी (आज सीख्‍ा, समझ और स्‍वीकार कर पायी हूं, यह भी पूर्ण विश्‍वास से नहीं कह सकती)। दुनिया में किसी के कुछ काम आ सकूं, बस इतना ही सपना था।........पर जब से इस दुनिया से परिचय हुआ , आंखें कई बार अचम्‍भे से फैलती रहीं-' क्‍या ऐसा भी होता है' , शायद यह एक अव्‍यावहारिकता ही कही जाएगी दुनिया में और समय से बहुत पीछे होना.......पर सच यही है। एन.जी.ओ. की दुनिया को जब से जानना समझना शुरू किया....... क़लम बहुत मचलती थी और आक्रोश बहुत उद्वेलित करता था कि कुछ कहूं पर अंधेरे में कुछ भी न कहने की फितरत हमेशा इंतज़ार करने के लिए रोक लेती। यह दीगर बात है कि वे सारी उम्‍मीदें, जिन्‍हें समाज सेवा के बदलते प्रत्‍यय ने तोड़ दिया, मन को हमेशा मथती रहीं।

समता और समानता के लिए लड़ाई करने का दावा करने वालों के दोमुहेंपन से उपजे आक्रोश को अभिव्‍यक्ति का रास्‍ता दिया इस 'संगतिन यात्रा' ने। हर दो पृष्‍ठ पढ़ने के बाद बेचैनी इतनी बढ जाती थी कि अगला पृष्‍ठ पढने के लिए बैठे रहना संभव नहीं हो पाता। फिर भी इसे दो दिन में ख़त्‍म कर दिया। ऋचा सिंह और ऋचा नागर से मेरा सीधा कोई परिचय नहीं। संस्‍थाओं के कार्यों और लेखन के संदर्भ में दूसरे लोगों से‍ मिलते हुए उन्‍हें देखा और जाना है। आज शायद उनके चेहरे भी नहीं याद हैं मुझे।.....पर संगतिन यात्रा की इन सात पथिक लेखिकाओं को, जिन्‍होंने अपने मन की गांठें यहां खोली हैं और व्‍यवस्‍था के स्‍वरूप पर कुछ मूल प्रश्‍न उठाए हैं, कई चेहरों के साथ, कई चेहरों में बार-बार उन्‍हें देखा है, जाना है, समझा है। हर चेहरे में बोलने की, कहने की आकुलता लिए खामोशी का जबरन साधती वो बार-बार दिखी हैं, हर कहीं.......।
अपने सच को बेधड़क, बेखौफ कह जाने, स्‍वीकार कर लेने का साहस ज़मीन से जुड़े उन लोगों में ही है जो असली लड़ाई लड़ते हैं लेकिन पर्दे पर कभी नहीं आते, बुर्ज पर कभी नहीं सजते, भीड़ में सबसे पीछे चलते हैं गुमनाम से। ये वही लोग हैं जो हालांकि सारी लड़ाई का नेतृत्‍व खुद करते हैं पर 'नेता' किसी और को बना देते हैं आखिरी पंक्ति में खड़े होकर। ऋचा सिंह की उलझन भी वही है जो पिछले कई बरसों से मेरी है......पर वह क्‍या मजबूरी है कि हम अब भी यहीं हैं.....यह अस्तित्‍व की तलाश है या रोज़ी की ....अथवा रोज़ी के, आत्‍मनिर्भरता के बहाने अपनी पहचान, अपनी अस्मिता की तलाश।

चीज़ें उतनी सुन्‍दर, सहज और निश्‍छल नहीं हैं जितनी कि बाहर से लगती हैं। ऋचा सिंह ने अपनी क़लम से (संगतिन यात्रा; पृष्‍ठ 8-10) जो कुछ भी कहा है, वह बेहद कड़वा सच है और विडम्‍बना भी कि मुक्ति की, समता और समानता की लड़ाई, श्रम की पहचान और उसके अधिकार की लड़ाई ऐसे लोगों के हाथ में है जो वैचारिक और कार्य स्‍तर पर शोषण, गैर बराबरी और भ्रष्‍टाचार के दलदल में आकंठ डूबे वो कीटाणु हैं जिनका ज़हर पूरे आंदोलन को न सिर्फ कमज़ोर कर रहा है बल्कि उसकी शक्‍ल भी बदलता जा रहा है। ऋचा सिंह ने जिस बात को इतने क्षोभ और दु:ख के साथ्‍ा किसी क्षेत्र विशेष के बारे में इतनी विनम्रता से कहा है उसे नग्‍न और वीभत्‍स शब्‍दों में कुछ यों कहा जा सकता है कि ये सब बाज़ार का खेल है और ये सारे तथाकथित समाजसेवी उन्‍हीं मुरदारों के हाथों की कठपु‍तलियां हैं जिन्‍होंने स्‍त्री की मुक्ति, समता और समानता की जायज़ लड़ाई को चंद सिक्‍कों में तौल दिया है।........ और ये ऐसी कठपु‍तलियां हैं जो उनकी लय ताल को इतनी निपुणता से सीख चुकी हैं कि अब ख़ुद ही उस पर नाचने-नचाने लगी हैं। ये एक ऐसी पौध को तैयार करते जा रहे हैं जो समता, समानता और मुक्ति की लड़ाई में एक शोषण का बाज़ार चलाने में दक्ष होती जा रही हैं।

'संगतिन यात्रा' पर कुछ समीक्षकों, लेखकों व संपादकों से भी चर्चा हुई। इसे देखने का उनका नज़रिया बहुआयामी है और उनकी आलोचना शायद व्‍यक्तिगत जानकारियों और अनुभवों से प्रेरित। पर सच यह है कि स्‍त्री जीवन के इस पूरे यात्रा वृतान्‍त को सिर्फ पथिकों के नज़रिये से देखा जाना चाहिए, पथिकों के कथाकारों के नज़रिये से नहीं। एन.जी.ओ. कार्य प्रणाली/व्‍यवस्‍था के सकारात्‍मक व नकारात्‍मक परिणामों (वैसे नकारात्‍मक कम ही मिलेंगे क्‍योंकि दानदाताओं को उनके धन का पूर्ण सदुपयोग और अपेक्षित सुखद परिणामों की रपट प्रस्‍तुत करना इनकी कार्य व्‍यवस्‍था की एक रणनीति है) के दस्‍तावेजों की भीड़ में यह एक ऐसा दस्‍तावेज है जो इस सारे हंगामे की पोल पूरी निर्ममता से खोलता है। तमाम फंडिंग एजेंसियों, दानदाताओं की नीतियों, उद्देश्‍यों, उसके अमल की असली तस्‍वीर सामने रखता है।
नारी विमर्श की इस पूरी यात्रा में यह एक ऐसा दस्‍तावेज है जो आंदोलन के खोखले होते जाने को रेखांकित करता है और नारी विमर्श के महान् अध्‍येताओं और चिंतकों के गहन गंभीर सूत्र वाक्‍यों को बहुत पीछे छोड़ देता है। सतह पर जिस नारी विमर्श की जागीरदारी को लेकर इतनी कलह मची हुई है, उस नारी विमर्श की असली नायिकाएं इस सारी लड़ाई व इसके चिंतन को खारिज करती हुई उन्‍हें भौंचक छोड़ेंगी, यह दावा है। बशर्त्‍ते इसे तमाम साहित्यिक व आंदोलनात्‍मक मानकों के निकष पर न कसा जाए। अगर इसे बिना किसी विचार मंथन के सहजता के साथ ग्रहण किया जाए तो कितनी ही कथा पात्रों की वास्‍तविकता यहां दिखाई पड़ जाएगी।
बचपन, कैशोर्य, विवाह, मातृत्‍व और फिर स्‍वायत्‍तता और आत्‍मनिर्भरता का संघर्ष......संगतिन यात्रा का एक-एक पृष्‍ठ एक मुद्दा और हर अभिव्‍यक्ति एक नया सच.....उन सारे सत्‍यों को परास्‍त करता, नकारता हुआ, जिन्‍हें अब तक सामने नहीं रखा गया। यह शोषितों की इतिहास रचना का महत् क्षण है। भविष्‍य वर्तमान के अतीत होने पर अतीत के दोनों सत्‍यों को समान रूप से देखकर नयी संतुलित दुनिया रचने का बीड़ा उठा सके, यह उसकी शुरूआत है।
पल्‍लवी, शिखा, मधुलिका, चांदनी, संध्‍या, राधा, गरिमा.... बचपन से लेकर जीवन के जिस मोड़ पर वे खड़ी हैं उस तक के सारे सफर के वे सारे लम्‍हे......सुख्‍ा के, दु:ख के, खुशी के, अवसाद के...। पर पूरी पुस्‍तक टटोलें तो खुशी और सुख के इने गिने लम्‍हे ही दिखाई पड़ेंगे। बचपन आंसुओं से सराबोर, उपेक्षा की आंधी से जूझता हुआ....कैशोर्य विचारों, भावनाओं, गतिशीलता पर पहरे और पाबन्‍दी लगाता हुआ, जवानी ससुराल और परिवार की जिम्‍मेदारियों को ढोते हुए। समाज और समय के बंधन के अंधड़ का शिकार सबसे पहले वही शख्‍़स होता है जो संसाधनों से महरूम होता है, गरीबी से जकड़ा होता है। इन सात कथाओं की व्‍यथा उनकी डायरी से उद्धृत किए गए अंशों से और तीव्रता से छलक आती है जो शब्‍दश: वैसे ही रख दिए गए हैं। 'यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यन्‍ते' की अवधारणा यहीं खण्‍ड खण्‍ड होती दिखाई पड़ती है। पितृसत्‍ता का दंभी वर्चस्‍व वैसे भी स्त्रियों की मुखरता और आत्‍मविश्‍वास को स्‍वीकार नहीं कर पाता। खामोशी से मुस्‍कराकर बात को तरे डाल देने वाली स्त्रियां/लड़कियां ही उन्‍हें भली लगती हैं ( अपने जीवन में तो उन्‍हें गाय ही चाहिए, जिसके मुहं में जुबान न हो और सींगों से वे उन्‍हें साध सकें) फिर ऐसे में जीवन के तमाम संघर्षों, द्वन्‍द्वों को शब्‍द देने वाली इन महिलाओं को क्‍या सहना पड़ा और क्‍या सहना पड़ेगा, अकल्‍पनीय है।
ताज्‍जुब की बात है कि ये अनुदानदाता एजेंसियां जिनके विकास और मुक्ति के नाम पर अनुदान देती हैं, उन्‍हीं की असुविधाओं, दिक्‍कतों, परेशानियों का उनके सामने खुलासा नहीं होता और ना ही उनकी उपलब्धियों व परिश्रम का श्रेय उन्‍हें दिया जाता है। पूरी चेन में वही सबसे नीचे हैं जो नींव के पत्‍थर की तरह काम कर रहे होते हैं पर उनके महत्‍व और बलिदान से नावाकिफ हैं वो जो उन्‍हें बुर्ज के सौन्‍दर्य का सा सम्‍मान देना चाहते हैं। आज नींव के पत्‍थर जब अपनी बोली बानी में खुद ही बोल उठे हैं अकुलाकर तो उसे हर छल बल-कपट , रीति, नीति से परे सिर्फ सच के न‍ज़रिये से देखा जाना चाहिए। मुक्ति के संघर्ष में उनकी महत्‍वपूर्ण भूमिका को समझना और स्‍वीकार करना चाहिए। शायद यही मुक्ति के संघर्ष में मील का पत्‍थर साबित हो। ......और शायद यही हो मुक्ति के संघर्ष का प्रस्‍थान बिन्‍दु।

पुस्‍तक का नाम : संगतिन यात्रा
प्रकाशक : संगतिन

अनुजा